Saturday, May 1, 2021

मर्सी किलिंग …

 

मर्सी किलिंग … 

मेरे पिता ने परिवार पर छत्र छाया बड़ी उम्र तक बनाई रखी थी। जब 88 की उम्र में जग छोड़ गए थे, मैं 61 वर्ष का हो चुका था। पाठशाला में मैं, अध्यापक मेरी सेवानिवृत्ति को तब 1 वर्ष शेष था। 

पिता जी अपनी पूरी उम्र स्वस्थ रहे थे। अपने अंतिम वर्ष में कुछ वर्षों से अनदेखी की गई मधुमेह के कारण उनके गुर्दे (किडनी) ठीक तरह से काम नहीं कर रहे थे। अपनी विषम वित्तीय स्थिति में भी मैं, उन्हें डायलिसिस के लिए ले जाया करता था। पहले वे तैयार होते थे। फिर उन्होंने मना किया यह कहते हुए कि - 

बेटा अब डायलिसिस और महँगी दवाओं पर खर्च बंद कर दो। मैं इन पर भी चार-छह महीने से अधिक ना जी पाऊंगा। तुमने अभी ही अपने दो बेटे और एक बेटी के विवाह पर अपनी सारी बचत व्यय कर दी है। एक साल में तुम सेवानिवृत्त भी हो जाओगे। बचा सब और उधार का पैसा लगाकर, मेरे उपचार के लिए खुद पर संकट नहीं बुलाओ। मैंने बहुत जी लिया, तुम कुछ थोड़ा अपने जीवन के लिए भी रख छोड़ो। 

मैंने कहा था - पिताजी हम पर जब आएगी तब देखेंगे। मैं अभी आपको ऐसे जाने नहीं दे सकता। 

पिता नहीं माने थे। अस्पताल ना जाने एवं दवाएं ना लेने के लिए, वे बिलकुल अड़ गए थे। मैंने भी सुना था कि अंतिम छह महीने जीने के लिए व्यक्ति, अपनी जमा पूंजी का 60% तक खर्च कर देता है। लाचार होकर मैंने, उनके जीवन पर खतरे को आने दिया था। 10 दिन में ही उनकी हालत अत्यंत बिगड़ गई। 

मैंने कहा - पिताजी, दवाएं ले आता हूँ। मुझसे, आप के कष्ट नहीं देखे जाते। 

रात भर वेदना में तड़फते रहे, कराहते हुए पीड़ा से चिल्लाते रहे थे तब भी उन्होंने हाथ उठा कर मुझे इसके लिए मना कर दिया था। 

बाद में, उनको पेशाब लगते हुए भी हो नहीं रही थी। मैंने अस्पताल ले जाने के लिए ऑटो ले आया था। वो कराहते हुए क्षीण स्वर में बोले थे - 

नहीं, मुझे घर पर ही मरने दे। दवा नहीं कराओ, हो सके तो विष ले आओ। जिसे खाकर जल्द मरुं तो मुझे इस पीड़ा से मुक्ति मिले। 

वे अपने दवा नहीं लेने के निश्चय पर इस असहनीय वेदना में भी दृढ़ थे। 

तब मुझे पहली बार विचार आया था कि यदि देश, सस्ता उपचार सुलभ नहीं करा सकता था तो मर्सी किलिंग की ही व्यवस्था कर देता। इससे, पिता को और साथ ही मुझे उनको कष्ट में देखने की, पीड़ा से शीघ्र मुक्ति मिल सकती। 

भयंकर वेदना सह कर अगली दोपहर उन्होंने प्राण त्याग दिए थे। उनके जाने के बाद पिछले दस साल जब तब उनकी ऐसी मृत्यु का स्मरण एवं अपनी असहाय स्थिति मुझे ग्लानि से भर देते थे। 

ऐसी ग्लानि में मैं सोचा करता कि जब क्षमता कम होने पर, कोई भी उत्पाद अधिक मात्रा में निर्मित किया जाता है तो उत्पाद की मात्रा तो बढ़ती है मगर गुणवत्ता नहीं रह जाती है। ऐसा मैं, अपने देश की जनसंख्या को देख कर सोचा करता था। जो 70 साल में तीन गुनी से भी अधिक हो गई थी।  

जब जनसंख्या 40 करोड़ थी तो नागरिकों में मानवीय गुण देखे जाते थे। स्वास्थ्य की देखभाल करने वाले, सेवा भाव से शुल्क कम लेते थे और परामर्श एवं औषधियाँ की शुद्धता सुनिश्चित रखते थे। 

देश में क्षमता से अधिक औलाद पैदा की जाने की प्रवृत्ति ने परिवेश ऐसे खराब किया है कि चिकित्सा क्षेत्र से सेवा के भाव वाले, गुण लुप्तप्राय हो गए। दवा एवं चिकित्सकीय परामर्श में मिलावट आ गई। नकली दवाओं एवं महंगे उपचार से रोगी की क्या दशा हो रही, इसे देखने की किसी को फुरसत एवं करुणा नहीं रही। 

औषध निर्माता एवं चिकित्सक तो अधिक हो गए मगर सेवा और औषधियों की गुणवत्ता कम हो गई। 

मैं ग्लानि बोध में रहा करता और यह देख व्यथित होते रहता कि अपने समर्पित भाव से किए अध्यापन से भी मैं, अपने शिष्यों में समाज समर्पित विचार एवं संस्कार नहीं डाल पाया था। वे गणित, विज्ञान में तो प्रवीण हुए थे। अंग्रेजी फर्राटेदार बोलने एवं लिखने लगे थे मगर नैतिक शिक्षा उन्होंने, मात्र अंक अर्जित करने के लिए ग्रहण की एवं भुला दी थी। 

तब आ गए कोरोना के समय में, वरिष्ठ जनों के लिए घर में ही रहना अनुशंसित किया गया था। मुझे घर में रहना चाहिए था। मगर हर किसी में आपदा की स्थिति में अधिक धन कमाने की होड़ देख, मैं व्यथित हुआ। मैं क्या कर सकता हूँ, इस पर मैंने गंभीरता से विचार किया था। फिर अपने छोटे प्रयास में, मैं सब्जी-फल का हाथ ठेला लिए शहर की गलियों में घूमने लगा। कम दरों पर लोगों को ये उपलब्ध कराते हुए, मुझे संतोष मिला करता था। 

मगर इसका परिणाम, बुरा निकला। 

मैं कोविड की घातक, दूसरी लहर में संक्रमित हो गया। अपने बेटों के मना करने के बाद अपनी मनमानी करके, मैंने उन पर संकट खड़ा कर दिया था। उन्होंने अपने दादा की घर में, बहुत कष्टप्रद मौत देखी थी। उन्होंने मेरे लाख मना करने के बाद भी मुझे, कोविड अस्पताल में भर्ती करा दिया। 

मेरे बेटों ने, डॉक्टर के परामर्श पर, 25000 की महंगी दरों पर मेरे लिए, 6 इंजेक्शन का प्रबंध किया। इंजेक्शन लगाए जाने पर भी मुझ पर अच्छा असर नहीं दिखा। इस बीच जिससे बेटों ने इंजेक्शन खरीदे थे, वह पकड़ा गया। पता चला कि उसने नकली इंजेक्शन बनाए और बेचे थे। 

तब शायद परोपकार की मौत के रूप में मेरी मौत सामने खड़ी थी। उसी रात गरीबी में आटा गीला होने जैसी बात हुई। ठसाठस भरे अस्पताल में श्वास लेने की परेशानी में, मैं जाग रहा था। आसपास के बिस्तरों पर बूढ़े रोगियों को कोरोना से तड़फता देख, मेरा ह्रदय द्रवित था। तब मैं सोच रहा था कि यदि हमें उपचार नहीं दिया जा सकता है तो मर्सी किलिंग की अनुमति ही दे दी जाए। जिससे इन्हें और मुझे, कम से कम, परिजनों पर भार बने बिना, कम तकलीफ में मौत मिल सके। 

दिमाग में यह विचार ही मेरा अंतिम रह गया था। 

मैंने देखा, हमारे हाल में धुआं भरने लगा था। हम सब मरीज जो पहले ही खांसी से परेशान थे सबकी खांसी और बढ़ गई। तब ही हाल के एक तरफ, आग की लपटें दिखाई पड़ने लगी थीं। आग, तेजी से पास पास लगे बिस्तरों में फैलते हुए, मुझ तक भी पहुंच गई थी। 

कोई कुछ कर पाता उस के पहले ही मैं झुलस कर मर गया था। मुझे पता नहीं मेरी मौत, कोविड से हुई मौत मानी गई या आग से जलने से …  

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

01-05-2021


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