तुम जैसी जीवन संगिनी …
यार तुम भी बड़ी विचित्र औरत हो। जब पति ज्यादा कमाई करने लगता है तो दुनिया की हर औरत खुश होती है। एक तुम हो कि मुंह फुलाए बैठी हो।
यह बात मुझसे, मेरा पति सुखबीर गुस्से में कह रहा था।
मैं पहले ही, सुखबीर से अपने विचार कह चुकी थी। मैं चुप ही रही थी। इससे सुखबीर का गुस्सा और बढ़ गया। उसने शब्दों की गरिमा त्याग कर कहा -
अब तू मुंह से कुछ बकेगी भी या कुत्ते जैसा सिर्फ मैं ही भौंकते रहूँ?
मैं इस तू तड़ाक का बुरा मानना चाहती थी। मगर सुखबीर के इतने गुस्से में होने पर मुझे हँसी आने को हुई थी क्योंकि उसने स्वयं के कहने को ‘कुत्ते का भौंकना’ कहा था। मैंने अपनी हँसने वाली प्रतिक्रिया पर नियंत्रण किया था। मैंने तब संयत स्वर में दृढ़ता सहित कहा -
मुझे आपका अधिक कमाना, बुरा नहीं लगता है। यह मैं पहले भी कह चुकी हूँ कि जिस तरह दवाओं और इंजेक्शन की कालाबाजारी के जरिए आप औरों जैसे बन कर कमा रहे हैं, वह ठीक नहीं है।
सुखबीर मेरे उत्तर दिए जाने से कुछ शांत हुआ था। उसने शब्दों की मर्यादा का पालन करते हुए कहा -
तुम समझती क्यों नहीं इस तरह अधिक कमाई के अवसर हर समय नहीं आते हैं। मुझ जैसे छोटे मेडिकल स्टोर वाला तो एक साधारण कमाई ही करता हुआ पूरा जीवन बिता देता है। अब अगर मुझे तुम्हारे कुछ सपने साकार करने हैं तो थोड़ा खतरा लेकर यह कार्य करना तो पड़ेगा ही।
अपने सिद्धांतविहीन कर्मों का आरोप, मुझ पर मढ़ देने वाला सुखबीर का बहाना मुझे दुखी कर गया था। मैंने रुखाई से अपने मोबाइल पर एक पोस्ट जिसका शीर्षक “फिर दिला देना मुझे, नए कंगना …” अपने मोबाइल पर खोल कर, पति की ओर बढ़ाते हुए कहा -
मुझे जो कहना है उसका सार इस कहानी में है। आप इसे पढ़ लो और स्वतः समझ लो। मैं आपसे बहस में पड़कर, आपको और गुस्सा नहीं दिलाना चाहती।
मेरी रुखाई और दृढ़ता से सुखबीर कुछ नरम पड़ा था। उसने मेरा मोबाइल लिया और पढ़ने लगा था। मैं रसोई में जाकर काम करने लगी थी।
रात का भोजन - सुखबीर, मेरे आठ वर्षीय पुत्र सिद्धांत और मैंने एक साथ किया था। तब ऐसा लग रहा था कि सुखबीर मुझसे बात करना तो चाहता है मगर सिद्धांत के कारण कुछ कह नहीं पा रहा था।
फिर सुखबीर बेडरूम में चला गया था। मैंने जानबूझकर टीवी पर सिद्धांत के पसंद की एक बच्चों की, मूवी लगाई और उसके साथ बैठ गई थी। सुखबीर से बातों में उलझने से बचने के लिए मैं, सिद्धांत का प्रयोग ढ़ाल जैसा कर रही थी।
डेढ़ घंटे बाद सिद्धांत को उसके कमरे में सुलाकर जब मैं, बेडरूम में पहुँची तो सुखबीर सोया नहीं था। मेरे बिस्तर पर लेटते ही उसने मुझे अपनी ओर खींचा था। मैंने उसके हाथ अपने पर से हटाते हुए कहा -
मुझे, अभी आपका किया जा रहा काम और आपकी बातों ने मानसिक ठेस पहुँचाई हुई है। अभी आपके साथ देने का मेरा मन नहीं है। आप सो जाओ और मुझे भी सोने दो।
सुखबीर ने मेरी उससे बचने की कोशिश का बुरा माना था। उसने, मुझसे विपरीत करवट ले ली थी। फिर जब तक मुझे नींद नहीं आई तब तक मैं, सुखबीर पर मानसिक दबाव बनाने की, अपनी तरकीबों को स्वयं ही सही ठहराती रही थी।
अगले तीन दिनों मैंने हमारे बीच यह तनातनी बनी रहने दी थी। सुखबीर के घर पर रहते मैं, सिद्धांत को अपने साथ रखती ताकि सुखबीर, मुझसे व्यर्थ बातों का अवसर नहीं पा सके।
चौथे दिन सुखबीर मेरी रुखाई की उकताहट में धैर्य नहीं रख पाया। दोपहर का भोजन करते समय जब सिद्धांत भी हमारे साथ था, वह चुप नहीं रह पाया था। उसने मुझसे कहा -
तुम क्या समझती हो जिसकी कहानी तुमने मुझे पढ़ने दी है वह लेखक कोई महान समाज सेवा कर रहा होगा? लिखना या कुछ बक देना सरल काम है उसमें ना तो कोई श्रम लगता है और ना ही कोई परेशानी झेलनी पड़ती है। बहुत सरल होता है जो मन में आए लिख दो, जो दिल में आए बोल दो।
मैं मन ही मन खुश हो रही थी। मुझे लग रहा था कि मेरे निर्मित मानसिक दबाव में उसकी यह खीझ, मेरे प्रयास की सफलता दर्शा रही है। प्रकट रूप से उत्तर में मैंने कहा -
चलो मान लेती हूँ कि लेखक जो लिख रहा है वैसा वह कर नहीं रहा है। अगर ऐसा है भी तो, उसकी कथनी और करनी में अंतर, लेखक की अपनी समस्या है, हमारी नहीं। फिर भी आप, मुझे एक बात बताओ कि लेखक की कहानी में कौन सी बात सही नहीं है जिसे हमारा मान लेना ठीक नहीं?
सुखबीर कुछ उत्तर नहीं दे पाया था। फिर भोजन पश्चात वह शॉप पर चला गया था। उस रात सुखबीर देर से घर आया था। सुखबीर के आ जाने पर तब चल रहीं मेरी चिंताएं मिटी थीं मगर उत्सुकता बनी रही थी। मैंने पूछा -
आप इतनी देर से कभी नहीं लौटते, आज क्या हो गया जो 10 बजा दिए? सिद्धांत भी सो गया, आपका इन्तजार करते करते।
सुखबीर ने हँसकर कहा -
कोई नहीं सो जाने दो सिद्धांत को, वह थक गया होगा। अब तुम खुश हो लो कि तुमने मेरे में सिद्धांत जगा दिया है। पिछले दिनों से जिन इंजेक्शन और दवाओं की कालाबाजारी चल रही है और जिससे मुझे अधिक कमाई मिल रही थी, उसका बचा स्टॉक आज मैं डीलर को, कुछ घाटे में लौटा आया हूँ। मुझे घर आने में देर उसी के हिसाब किताब में हो गई है।
इस बात से मैं खुश हुई थी। तब सुखबीर ने फ्रेश होकर खाना खाया था। उस रात बिस्तर पर हम दोनों विपरीत करवट नहीं सोए थे। हममें अब संबंध फिर सामान्य और सुखद हो गए थे।
इस बात के छह दिन बाद, दिन में असमय ढाई बजे डोर बेल बजने पर, मैंने दरवाजा खोला तो सामने चार पुलिस वाले खड़े थे। मैंने कहा -
मेरे पति अभी शॉप पर हैं। घर में मैं अकेली हूँ।
तब उनमें जो इंस्पेक्टर था वह बोला -
यह बात हम जानते हैं। दरअसल आपके घर और दुकान का सर्च वारंट जारी हुआ है। आपकी दुकान की जांच दूसरी टीम कर रही है। घर की जांच करने हम आए हैं।
मैंने उनके द्वारा दिखाया वारंट देखा था। फिर उन्हें बिना किसी प्रतिरोध के, जांच करने दी थी। पूरे समय मेरा बेटा सिद्धांत सहमा खड़ा रहा था। उन्होंने जांच के नाम पर पूरा घर उलट पुलट दिया था। लगभग एक घंटे में वे चले गए थे।
मुझ पर घर वापस व्यवस्थित करने का बड़ा काम आ गया था। जिसे परेशान होकर करते हुए भी मैं खुश थी। हमारे घर से आपत्ति जनक कुछ भी बरामद नहीं किया गया था। जैसा सुखबीर ने मुझे बताया था उससे, शॉप से भी जांच दल को कुछ आपत्तिजनक मिलेगा इसका भय मुझे नहीं था।
उस रात भी सुखबीर देर से घर लौटा था। वह थका हुआ मगर खुश था। उसने आते ही मुझसे कहा -
तुम्हारी वे बातें मुझे उस समय बहुत बुरी लग रहीं थीं मगर उन्हीं के कारण आज मैं, जेल जाने से बच पाया हूँ। किसी ने शिकायत की थी कि मेरे पास नकली इंजेक्शन एवं दवाओं का स्टॉक है। जिसके कारण पुलिस ने हम पर दबिश दी थी। धन्य है तू, तेरे कारण छह दिन पहले ही, मैं वह सब स्टॉक डीलर का लौटा आया था। अब आज, वह डीलर तो हिरासत में चला गया मगर मैं आज़ाद हूँ।
मन ही मन विचार करते हुए मैंने कहा -
यह अच्छी बात है किंतु आपने अनजाने में ही सही, कुछ दिन पूर्व तक, नकली दवाएं बेचीं हैं। मरीजों को इससे परेशानी झेलनी पड़ी होंगी। उसका तो प्रायश्चित हमें करना ही चाहिए।
मेरी बात सुनकर सुखबीर कुछ सोचने लगा था। फिर उसने कहा -
हाँ, यह तुम ठीक कहती हो। मैं प्रायश्चित करूंगा। अब से, जब तक कोरोना खतरा खत्म नहीं होता मैं, अलग अलग कंपनी की दवाओं पर मुझे मिलते मार्जिन के अनुसार उन पर प्रिंटेड अधिकतम दर से, 20% या 10% कम दर पर, ग्राहकों को औषधियां बेचूँगा।
मैं खुश हुई थी। मुझे महसूस हो रहा था कि कोरोना के विरुद्ध लड़ाई में अब हम सरकार के साथ भागीदारी करने जा रहे हैं।
उस रात सुखबीर ने स्नान किया था और फिर भोजन किया था। बाद में बिस्तर पर, हम जब सोने पहुँचे तो सुखबीर ने मुझे प्रणय आलिंगन में लेते हुए कहा -
आज मुझे समझ आया है कि अपने बेटे का नाम सिद्धांत रख देने मात्र से उसका अच्छा नागरिक बनना सुनिश्चित नहीं हो जाता है। अपितु इसके लिए हमें उसके सामने सिद्धांत पालन करते हुए स्वयं जी कर दिखाना होगा। उसी से उसमें सही संस्कार पड़ेंगे और वह अच्छा नागरिक बन सकेगा।
मैंने सुखबीर के सीने में सिर गढ़ाते हुए ‘हूँ’, बस कहा था। तब सुखबीर ने ही आगे कहा -
तुम तो सिद्धांत प्रिय जीवन पहले से जीती आ रही हो। अब तुम्हारी प्रेरणा से मैं भी वैसा ही अच्छा जीने का तरीका अपनाउंगा। अगर तुम जैसी जीवन संगिनी सभी को मिले तो हमारा यह भारत, अपनी प्राचीन भव्यता पुनः प्राप्त कर सकता है।
अपनी प्रशंसा से तब मैं चिर निद्रा में सो जाना चाहती थी। मुझे डर लग रहा था कि जागने के बाद यह मेरी मधुर अनुभूति किसी कटु यथार्थ में गुम ना हो जाए …
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
18-05-2021
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