Sunday, May 23, 2021

मैं ...

 

मैं ...

जब मुझे समझ आने लगी थी तब से ही मुझमें उत्कंठा वह लड़का, वह युवा (या आज वह बूढ़ा) बनने की होती रही थी, जिसकी लोग प्रशंसा करते हैं। जिसकी प्रतिभा और उपलब्धि को लोग प्रशंसनीय बताते हैं। जिनकी संगत करने को लोग लालायित रहते थे। मैं लड़का था इसलिए किशोर या युवा वय में ऐसा भी चाहता था कि जिस लड़की को लोग अच्छा कहते हैं, वह लड़की मुझे भी पसंद करे। 

यह मुझमें बोध आना आरंभ होने के बहुत बाद में मैंने समझा था कि उत्कंठा होना अलग बात होती है और लक्ष्य प्राप्त करने के अच्छे पुरुषार्थ कर पाना, दो अलग अलग बात होती हैं। 

महान हो जाने की उत्कंठा तो कदाचित ऐसे व्यक्ति में भी होती है जो सबसे अधिक वंचित या पिछड़ा समझा जाता है। अतः उत्कंठा होना एक साधारण सी बात होती है जो सब में पाई जाती है। जबकि अच्छे पुरुषार्थ करना और उसमें निरंतरता बनाए  रखना जो किसी व्यक्ति को महान बनाती है, वह बिरले ही मानव में होती है। वह अपनी उत्कंठा अनुरूप, पुरुषार्थ कर पाता है और महान हो जाता है। 

यहाँ मैं, वैसे महान लोगों की बात नहीं कर रहा हूँ, जो प्रचारित तो महान रूप में हैं या हुए हैं। मगर जिनके पुरुषार्थ महान नहीं हैं। ये कुछ निपट स्वार्थी लोग हो सकते हैं, जो दूसरों की प्रगति में अड़ंगा डाल कर खुद आगे हो जाते हैं। या अति विलासी लोग हैं जो तत्कालीन प्रचार तंत्र को अपने धन या अन्य तरह से प्रभावित कर, महान कहे जाने लगते हैं। अन्य किसी की दृष्टि में ऐसे (छद्म) महान लोगों को, मैंने कभी भी महान नहीं समझा था। 

इसे मैं अपनी सही समझ मानूँ या नहीं यह, इस सामान्य (Generic) कहानी के पाठक को तय करना है कि मेरी समझ सही है या गलत? जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मुझे अपनी ऐसी समझ पर संतोष रहा है। मेरी इसी समझ के कारण मैंने कभी किसी की नकल नहीं की है। 

अतः नकल नहीं करने से, मैंने हिंदी सिनेमा का महानायक होना नहीं चाहा है। मैंने, किसी स्पोर्ट्स का भगवान होना नहीं चाहा है। ऐसे ही मैंने किसी प्रदेश या देश का मंत्री, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री होने की अभिलाषा नहीं रखी है। इससे पाठक, मेरे ऐसे लिखने को ‘अंगूर खट्टे हैं’, कहने वाला भी प्रतिपादित करते हुए मुझ पर हँस सकते हैं। तब उनके मुझ पर ऐसे हँस लेने पर ना तो कोई शिकायत होगी और ना ही अपने में कोई हीनता अनुभव होगी। उनका साथ देते हुए मैं भी स्वयं पर हंस कर उनके मनोरंजन किए जाने से आनंद विभोर होऊंगा।  

मैं नकल प्रवृत्ति को अपने से दूर रख पाने में सफल रहता था। यदि कभी धनवान लोगों के जैसे धनी होने या स्मार्ट कहे जाने वाले लोगों के जैसे स्मार्ट होने की अभिलाषा, मुझमें किसी पल में जागृत भी होती और इससे मन कहीं या कभी कमजोर भी होता तो मैं दृढ़ता से इस कमजोरी को अपने मनो मस्तिष्क पर हावी होने से रोक दिया करता था। 

अब मैं यह प्रसन्नता से कह सकता हूँ कि आज मैं, जो भी हूँ जैसा भी हूँ, वह किसी की नकल नहीं करने के कारण मेरे मौलिक स्वरूप (Originality), अस्तित्व (Existence) और व्यक्तित्व (Personality) के अनुरूप (मैचिंग) ही है।

मैं, वापस विषय पर अर्थात अपनी उत्कंठा और अपने किए पुरुषार्थ पर आता हूँ। और यह उल्लेख करता हूँ कि जब तक मैं पढ़ता रहा तब तक मेरी उत्कंठा रही थी कि मैं, अव्वल आने वाले सहपाठी जैसा अव्वल आऊं। यद्यपि यह कभी नहीं हो पाया था। मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं, कभी उतने पुरुषार्थ नहीं कर सका जो अव्वल आने वाला कोई विद्यार्थी करता था। यहां इसे मैं अपनी प्रतिभा में कमी मानना स्वीकार नहीं करूँगा। बल्कि ऐसा लिखूंगा कि मैंने अपनी प्रतिभा व्यर्थ की थी। ईश्वर जितना सामर्थ्य दूसरों को देता है उतना देने में ईश्वर ने, मेरे साथ कोई पक्षपात नहीं किया था। 

समय चलता रहा था मेरा शिक्षा काल बीत गया था। इसमें मेरी उपलब्धि औसत रही थी। हालांकि इतनी योग्यता मेरी हो गई थी कि अपनी आजीविका के लिए मुझे किसी अनैतिक व्यवसाय या भ्रष्टाचार करने की सोचना नहीं पड़ता था। 

यह भी जुदा बात थी कि शायद आजीविका कठिन हो रही होती तो भी मैं, ऐसा करने की नहीं सोचता। यहाँ कोई पाठक सोच सकता है कि अनैतिक काम करने या भ्रष्टाचार करने में भी साहस जरूरत होती है, ऐसा (दुस्) साहस मुझमें था ही नहीं। 

अब मैं सर्विस में आ गया था। मैंने अपने आसपास में मुझसे अधिक हमारे क्षेत्र एवं विषय के जानकार देखे थे। तब मेरी उत्कंठा, उनके समान जानकार (Knowledgeable) होने की होती थी। यहाँ भी मेरे पुरुषार्थ कम ही रह जाते थे। निश्चित ही पूरे जीवन में कुछ तरह के पुरुषार्थ मेरे हमेशा ही कम रहे थे। 

फिर अपने 35 से अधिक वर्षों की सार्वजनिक क्षेत्र की सेवा में मैंने, एक और निराला सच जाना था कि जो व्यक्ति पढ़ने में मुझसे अच्छे परिणाम प्राप्त कर सके थे या जो संबंधित क्षेत्र के मुझसे अच्छे जानकार रहे थे, उनमें से बहुतों से अधिक मैंने अपने विभाग को अपने योगदान दिये थे। यहाँ मेरे पुरुषार्थ, देश और समाज निर्माण के लिए जितने अपेक्षित होते हैं उतने हो सके थे। 

तब यह विचित्र सत्य मैंने पहचाना कि यह आवश्यक नहीं होता कि कोई हमसे अधिक जानकार या हमसे अधिक मेधावी व्यक्ति ही, श्रेष्ठ रीति नीति क्रियान्वयन या श्रेष्ठ (आउटपुट) परिणाम देता है। अपनी लगन और समर्पण के द्वारा कोई कम श्रेष्ठ व्यक्ति भी श्रेष्ठ योगदान दे सकता है। 

सार यह निकलता है कि अलग अलग समय में हर किसी का जीवन, कभी किसी (या बहुतों) से पिछड़ते और कभी उस (/उन) से बढ़त लेकर चलता जाता है। 

अब अगर मैं आज प्रातः काल के अपने भ्रमण में इस तरह चलता हूँ कि मेरा सीना बाहर और पेट अंदर होता है और तब मैं अपनी पूरी ऊँचाई 5’11” जितना ऊँचा दिखाई पड़ता हूँ तो मुझे यह प्रतीत होता है कि कम से काम आज मैंने अपने समवयस्क बहुत लोगों से बढ़त ले ली हुई है। 

मैं जानता हूँ कि ऐसा होने पर भी मुझमें, इस पर गर्व करने की उत्कंठा नहीं होनी चाहिए। यह प्राणी जीवन है। इसका स्वरूप क्षणभंगुर होता है। जीवन में किस पल यह बढ़त या पिछड़ने का क्रम खत्म हो जाए और प्राणी पंचतत्व में विलीन हो जाए इसकी किसी को भी और कभी भी कोई आश्वस्ति नहीं रह सकती है। 

हमारे द्वारा जीवन पुरुषार्थ करते हुए जिया जाना चाहिए। मानव में असफलता का रंज और सफलता पर गर्व होना स्वाभाविक तो होता है मगर इन दोनों ही परस्पर विपरीत (भाव) स्थितियों से कम से कम समय में उबर जाना श्रेयस्कर होता है। 

हमें जल और वायु जैसे बनना चाहिए जो कितनी भी दूषित हो जाएं, लंबे प्रवाह में जो स्वतः ही अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं। 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

23-05-2021


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