Wednesday, August 21, 2019

सुख में तेरे साथ चलेंगे ...

सुख में तेरे साथ चलेंगे ... 

यह उलाहना सर्वथा अनुचित है कि सब मात्र सुख के साथी होते हैं। वस्तुतः खून के रिश्तों (स्वयं जुड़े होते हैं) के अतिरिक्त प्रायः हर कोई (लेखक स्वयं भी) किसी से जब जुड़ता या किसी को अपने से जोड़ता है तो प्रमुख अपेक्षा उससे अपने लिए सुख सुविधा या अनुकूलतायें सुनिश्चित करने की होतीं हैं। यह कहना भी अनुचित होगा कि विपरीतताओं या हमारे दुःख में कोई काम नहीं आता है। हमारा हितैषी या मित्र हमें कठिन घड़ी में निश्चित ही साथ देता है लेकिन उतना जितना उसका सामर्थ्य होता है या जितना उसके लिए बहुत असुविधाजनक नहीं होता है।
हम जब ज़माने पर यह उलाहना रखते हैं कि "दुःख में सब मुहँ मोड़ेंगें" तो वास्तव में यह, हमारे मन में स्वार्थ प्रेरित निज अपेक्षाओं की अधिकता से उत्पन्न होता है। जब मन में ऐसे उलाहने आने लगें तो कठघरे में हम स्वयं को खड़ा करें और अपने पर आरोप लगायें कि - किसी की कठिन घड़ी में हम, कब-कब कितना-कितना किस-किस के काम आये हैं?
इसका उत्तर ईमानदारी से जो हमारा होगा बस उतने मौके, उतनी मात्रा और उतने लोगों से ही अपनी कठिन घड़ी में साथ की अपेक्षा आगामी जीवन मेंहम  रखें तो न तो निराशा होगी और न ही ऐसे उलाहने हमारे मन में रह जायेंगे। यह लेखक मानता है कि इस विवेक विचार के कर लेने के बाद कोई भी पहले से ज्यादा परोपकार करने को प्रेरित होगा। जो स्वयं के साथ ही समाज का सुखद होना सुनिश्चित करता है। 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 
22-08-2019

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