Saturday, August 10, 2019

समाज के मनोरोग और उनकी विचित्रतायें

समाज के मनोरोग और उनकी विचित्रतायें 

ऐसी हमारी मनोव्याधियाँ जो हमारे अस्वस्थ समाज के लिए जिम्मेदार हैं, और जिसमें जीवन यापन करने को बाध्य हम अपनी ज़िंदगी से ही गिला शिकवा रखते हैं ,का संक्षिप्त उल्लेख मय उसमें निहित विचित्रता के साथ इस आलेख में इस प्रकार है -
1.  कौम/मजहब आधारित श्रेष्ठता बोध - हम अपने अपने मज़हब / कौम के सिद्धांत को श्रेष्ठ मानते हुए उसका वर्चस्व देखना चाहते हैं. ऐसे परिदृश्य की साकारता के लिए हम अपनी हैसियत से अलग औलादें पैदा कर खुद अपने और औलादों की ज़िंदगी पर अभाव लादते हैं। इसका दोषारोपण देश पर डालकर भारत को खराबियों का देश कहते हैं।
2. नारी पर पर्दा प्रथा लादने की मनोव्याधि - इसकी विचित्रता पर हम हँसे या रो लें समझ नहीं आता है। जो नारियों पर जितनी ज्यादा गंदी दृष्टि रखता, उतना ही अपने घर की स्त्रीजात पर पर्दा थोपता है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हम फेसबुक पर ही देख सकते हैं। अपने परिवार की नारी की एक फोटो अपने एल्बम में न लगाने वाला मर्द के फेसबुक एल्बम में नारी की कामुक तस्वीरें बहुतायात में देखने मिलेगीं। ऐसे व्याधिग्रस्त लोग नारी को विभिन्न चालों में फुसलाकर उनका दैहिक शोषण फिर उनसे दगा कर उन्हें अभिशप्त  जीवन जीने को मजबूर करते हैं।
3. अपने आर्थिक लाभ की अधिकता के लिए भ्रष्ट तरीके - इसमें दुःखदाई विचित्रता यह है कि आर्थिक लाभ के लालच में हम भ्रष्ट होकर परस्पर स्तरीय सेवा सुलभ नहीं करते हैं। यथा- दूध में मिलावट करने वाला, खुद ख़राब वनस्पति, ख़राब अनाज (प्लास्टिक चावल आदि), नकली औषधि, ख़राब खाद्य तेल आदि खरीदता है और दूसरों को कैंसर तरह की कठिन साध्य बीमारी देकर अपने लिए यही लेता है।
4. आर्थिक असमानता जनित मनोरोग - इसमें आर्थिक रूप से विपन्न व्यक्ति, आर्थिक संपन्न व्यक्ति के प्रति मन में जलन और द्वेष रखता है और विचित्रता यह होती है कि स्वयं वह सम्पन्नता हासिल करना चाहता है और अगर इसमें सफल हो गया तो चाहता है कि उसकी इस हैसियत से कोई जले नहीं।
5.  लिंगभेद आधारित मनोरोग में - हम अपने परिवार की नारी पर हमेशा एक मानसिक दबाव बनाये रखते हैं, जिससे कुंठाग्रस्त होकर वह भीतर नाखुश बनी रहती है। जबकि किसी नाख़ुश की संगति हमें ही चरम जीवन आनंद से वंचित करती है। यह तथ्य हम अनुभव नहीं करते हैं।
6.  जाति आधारित परस्पर व्देष - हमारा अग्रणी और दलित वर्ण, इतिहास हो चुके प्रसंग को मन में रखते हुए अपने अपने उत्थान में देशहित देखता है। विचित्रता यह भी है कि दलित रहे हम उत्थान कर लेने के बाद भी इस वैमनस्य को मन में रखते हुए अगड़ों के भीतर सम्मानजनक स्थान चाहते हैं। और  तो और ऐसा सम्मानजनक स्थान अर्जित कर लेने के बाद खुद हम अपने  वैभव के लिए फेवर हासिल करते हुए, जरूरतमंद हमारे ही जैसे दलित/पिछड़े को ऐसे फेवर से शिक्षा, वैभव हासिल कर लेने देने से वंचित करते हैं। 

और भी मनोव्याधियाँ हैं जो समाज के लिए , इसलिए हमारी अपनी ही संतान के लिए और हमारे खुद के लिए हानिकारक हैं , का उल्लेख लेखक इस आलेख में नहीं कर सका है. लेखक , जिस पर विचार करने का अनुरोध करता है। साथ ही मन में स्थान पाए इन तत्वों को एक स्वस्थ रेंज में नियंत्रित करने की प्रार्थना करता है। 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 
10.08.2019

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