Monday, August 19, 2013

एक दुस्वप्न

एक दुस्वप्न 
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अस्तित्व वह कर्म या वह वस्तु ही बचा पाती है जो सच्चा होता है .सारे प्रभाव और शक्ति लगा देने के बावजूद भी छद्म आचरण , छद्म नायक और सारी छद्म वस्तुयें अल्पकालिक सिध्द होती हैं . अपना अस्तित्व खो देती हैं .
आत्मावलोकन करें .. बच्चे और नासमझ ना रह जाने के बाद भी इस सत्य की समझ हम क्यों नहीं कर पाते .

क्यों स्वयं भटकते हैं .. अपने अनुजों को साथियों को आगामी पीढ़ियों के भटकाव में सहयोग देते  या कारण बनते हैं .

निश्चित ही जीवन अस्तिव है तो कुछ अपेक्षायें और आवश्यकतायें तो सभी की होती हैं . किन्तु इस तर्क पर अपेक्षायें और आवश्यकतायें की सीमा अनंत करते स्व-लालसाएं इतनी बढ़ाते हैं .

फिर जीवन पथ पर अग्रसर करने का मस्तष्कीय नियंत्रण खो कर लालसाओं से नियंत्रित होते अपनी जीवन रुपी गाड़ी को खाई में पातलोन्मुख उतार देते हैं . फिर आदर्श के आसमान से दूरी बड़ा कर उसे लालायित हो देखते रह जाते हैं . अपना अनमोल मनुष्य जीवन निरर्थक कर लेते हैं . अपने मानवता , समाज और आगामी सन्तति प्रति दायित्व निभाने में असफल होते हैं .

सबकुछ यहीं छोड़ दयनीय से विदा होते हैं . दायित्व पूरे करते कुछ सिध्दांत जीवन में पालन कर लेते तो बाद के जीवन के ह्रदय में एक नायक की मधुर छवि रूप में अस्तित्व में रह सकते थे .

किन्तु हेड्चाल और नासमझी से कर्म और आचरण में वह दोष ले आते हैं जिससे जिन्हें अपना समझा होता था वे भी हमारे योगदान (भ्रम ) ,जीवन और अस्तित्व को एक दुस्वप्न भांति भूलना श्रेयस्कर समझते हैं . और हम मौत के बाद अल्पकाल भी ही भुला दिए जाते हैं . छोड़ा वैभव भी कोई सहयताकारी सिध्द नहीं हो पाता .

--राजेश जैन
20-08-2013

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