Friday, June 22, 2012

जल्दबाजी में नापसंदगी

जल्दबाजी में नापसंदगी

                                         किसी ने बुराई  हमारी न की हो ,जिसे हम ठीक जानते भी न  हों ,पर किसी की दिख रही भाव-भंगिमा से हम उसे सख्त नापसंद करते हैं .चूँकि हम ठीक तरह उसे जानते नहीं और किसी वजह से प्रारम्भिक तौर पर उसका व्यक्तित्व प्रभावित नहीं कर पाता है पर कभी कभी हमारी उसके प्रति नापसंदगी अस्थायी होती है .ऐसे कई में से कुछ से  अधिक संपर्क के अवसर जीवन में हमारे सामने होते हैं तब  उनमे से कुछ के प्रति हमारी सोच बदल जाती है .वे वैसे बुरे नहीं होते हैं जैसा आरम्भ में उन्हें हमने समझ लिया होता है इनमे कुछ का तो हो सकता है हम बेहद सम्मान भी करने लगते हैं.
                                            मानवीय स्वभाव तो हमेशा ऐसा रहा है देख ने से ही कोई पसंद या नापसंद सा हो जाता है . पर जो किसी को सख्त नापसंद हो वह किसी अन्य को प्रियतम लगता है . फिर आज की व्यस्त जीवन शैली में जहाँ ऐसे अनजानों के प्रति चिंतन का समय ही नहीं है . नापसंद है तो बस है .यहाँ तक आपत्तिजनक कुछ नहीं है हर किसी का नितांत व्यक्तिगत कुछ होता ही है पर गलत और जल्दबाजी की धारणा के वशीभूत ऐसे किसी से हमारा बुरा व्यवहार अच्छी बात नहीं है.हमारे बुरे व्यवहार या बुरे शब्द कहने की इक्छा को हम टाल सकें तो श्रेयस्कर होगा ऐसे अवसर पर उसकी अनदेखी करना बेहतर विकल्प होगा .बेवजह विवाद में पड़ना या अपना समय नष्ट करना और अजनबी को मानसिक पीड़ा पहुँचाना अनुचित होगा और अगर ऐसा कर दिया दिया जाने के बाद उसकी सज्जनता का साक्षात्कार हमें हुए तो व्यर्थ पश्चाताप कारण बन सकता है.  
                                         वास्तव में सामाजिक,पारिवारिक और धार्मिक परिवेश की विभिन्नता से अलग अलग तरह के संस्कार हम सभी के होते हैं .हरेक को मिले शिक्षा के अवसर भी अलग होते हैं .ऐसे में अच्छी प्रतिभा के बाद भी कोई हमसे आर्थिक,सामाजिक या उपाधि की हीन हैसियत में हो सकता है ऐसा मनुष्य हमारी सहानुभूति का पात्र होना चाहिए .अवसर मिलने पर कभी कभी वह हमारी तुलना में कहीं अधिक और महान सिध्द हो सकता है.ऐसा भी होता है कि कहीं  लिपिक कि नौकरी के जिसे लाले पड़े हों वह कालांतर में महान खिलाडी बन प्रसिध्दी और धन उपलब्धि कि बुलंदियों पर पहुँच जाये . जिसे हम मिलना पसंद ना करते रहें हों उससे हाथ मिलाने का अवसर भी कभी पा लें तो जीवन सार्थक हो गया सा लगे .
                                   हमें समाज में स्वस्थ परम्पराएँ लानी हैं किसी को हाशिये में डाल देने के पूर्व सही परख के लिए समान अवसर दें .किसी नतीजे पर पहुँचने के पहले देखें कि कहीं अवसर पा कोई अपनी कमियों को सुधारने में समर्थ हो जाये .हो सकता है वह हमसे अधिक उपलब्धियां पाने लगे हमें ह्रदय कि विशालता से इसे भी स्वीकार करना चाहिए ,क्योंकि हम जीवन या विश्व  में उस उत्कर्ष पर आज भी नहीं हैं जहाँ से थोडा स्थानच्युत होना हमारी स्थिति को बहुत प्रभावित कर देता हो .
                             हम समाज में अनेक से विभिन्न मानदंडों पर बहुत पीछे और हीन हैं (बहुत से, आगे और बेहतर तो निश्चित ही हैं) ऐसे में ज्यादा पात्र कुछ औरों से पिछड़ भी गए तो कोई ज्यादा अन्तर कुछ पड़ता नहीं है ,लेकिन इस सकारात्मक और सामजिक न्याय की भावना आज बिगड़े सामजिक परिद्रश्य को सुधारने कि द्रष्टि से नितांत आवश्यक है.सभी कर्तव्य जिन्हें हम निभाते हैं उनके अतिरिक्त हमारे सामाजिक कर्तव्यों के प्रति हमारी गंभीर जागरूकता आज प्रासंगिक है .हमें बहानेबाजी  छोड़ कुछ समय और परिश्रम इस पवित्र उद्देश्य के लिए आज ही शुरू करना चाहिए.

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