Tuesday, June 19, 2012

आधुनिकता के नाम के उकसावे लाते हैं- अपसंस्कृति

आधुनिकता के नाम के उकसावे लाते  हैं -अपसंस्कृति


                                     एक  प्रसंग अभी उल्लेखित किया देखा जिसमे बताया गया है कि स्त्री-जात बचपन में पिता,युवावस्था में पति और वृध्दावस्था में पुत्र के संरक्षण में जीवन गुजारते कब सुखी होती है? इस पर एक पंक्ति की मेरी टीप थी , " नारी चरित्रवान होने पर तीनों के संरक्षण में सुखी है अन्यथा दुखी ".
                         प्राचीन समाज में जब मानव विकसित हो एक घर और परिवार में रहने लगा तो परिस्थितियां प्रारंभ में ऐसी होती थी की नारी (और एक हद तक पुरुष भी  ) चरित्रवान रहते अपनी जीवन यात्रा पूरी कर लेते थे . और साधारण प्रकार की सतर्कता से चरित्र रक्षा हो जाती थी .शिक्षा ,संस्कारों और धर्म सभाओं और शास्त्रों से अपनी वैचारिकता और दर्शन में पारंगतता प्राप्त कर नारी चरित्रवान होने के महत्त्व को समझते हुए चरित्र रक्षा के यत्न करती थी ,उपरोक्त तरह की नारियों के लिए  चरित्रवान शब्द मेरी टीप में प्रयुक्त किया गया है.नारी अनुकूल परिस्थिति में भी बिना ज्यादा सोच समझ कर चरित्रवान रहती थी ऐसी नारी भी घर परिवार और समाज में श्रध्दा योग्य थी .चरित्रवान दोनों ही प्रकार की नारियां थी पर एक पंक्ति की टीप से असहमति न हो इस हेतु सूक्ष्म भेद उल्लेखनीय है .उस नारी (या पुरुष भी) जिसने ज्ञान और दर्शन का यह स्तर प्राप्त कर पाया था ,"चरित्रवान रहना जीवन की सार्थकता है " वे इस सूत्र में मनुष्य जीवन के स्वरुप को समझ गए थे उनकी योग्यता ऐसी हो जाती थी कि वे प्रतिकूल और वेदना कि परिस्थिति को अपने ज्ञान से महत्वहीन और हल्का समझ लेने में समर्थ हो अपने को ज्यादा दुखी नहीं मानते थे ,जबकि ऐसी योग्यता न होने पर इनमें  क्लेश  कर दुखी होते थे .योग्य उपरोक्त तरह कि नारी पुरुष के किसी भी (पुत्र,पति या पिता)  रूप में संरक्षण में सुखी होती बल्कि बिना पुरुष संरक्षण भी सुखी थीं.और तो और वे पुरुष को संरक्षण दे पाने में समर्थ होती .जो नारी अनुकूल परिस्थिति में  चरित्रवान थी वह भी जिस पुरुष   (पुत्र,पति या पिता) संरक्षण  होती उन्हें इतनी मानसिक अनुकूलता उपलब्ध कराती कि आश्रित ऐसी नारी के कारण कभी मानसिक दबाव नहीं होने से पुरुष  अपने जीवन दायित्वों को सुगमता से निभा पाता था . यहाँ भी (संरक्षण में ) तुलनात्मक रूप से नारी कम ही दुखी होती .
                                 अपवाद में जब नारी अपने चरित्र रक्षा में असमर्थ होती ,वहां संरक्षक पुरुष ,सामाजिक उलाहनों और तिरस्कार से विचलित हो स्वयं एवं आश्रित नारी को सुखी न रख पाता था. मानवों में अन्य प्राणियों  की क्रियाएं कुछ तरह की विकृति पैदा करती रही हैं ( जानवर एक से अधिक विपरीत लिंगी से सम्बन्ध रखते हैं, अपने से कमजोर पर गुर्राते हैं ,अपने से कमजोर को मार डालते हैं) ,ये विकृतियाँ पुरुष और नारी के चारित्रिक पतन के कारण होते थे . एक का चरित्रहीन होना कई को चपेट में लेता रहा है.ऐसे दुर्भाग्यशाली स्वयं और दूसरों के सुख में खतरा पैदा करते आये हैं .
                            नारी पूर्व में ग्रहों की चारदीवारियों में ज्यादा जीवन व्यतीत करती थी तब कुछ तरह के खतरों से बची हुयी थी .आधुनिक जीवनशैली में उसे बाहर कदम बढ़ाने पड़े हैं ,इससे कुछ तरह की समर्थता तो निश्चित ही उनकी बढ़ी है . पर पुरुषों के बहलाने एवं उनके द्वारा ललचाये जाने के लिए बाहर अकेली नारी को पाने के अवसर आसान हो गए हैं.आधुनिकता के नाम उकसा कर चालाकी से परिस्थिति पैदा कर तरह तरह से नारी शोषण के प्रकरण बढ़ गए हैं .शोषित ऐसी नारी में से कुछ इस मनोविज्ञान के चलते " एक आँख गवां देने वाला चाहता है की अन्य सभी भी एक आँख गवां दे " पुरुष के अन्य नारी के शोषण के मंसूबों  में साधन बन अन्य नारी के शोषण में इस्तेमाल की जाती हैं.
                           ठीक यही मनोविज्ञान ने वैश्विक परिद्रश्य बदल दिया है.अपने को जो संयत न रख पाए ,अपनी कुत्सितता के वशीभूत जिन्होंने सदाचार की सीमाएं लाँघ लीं उन्हें जब अलग थलग पड़ने का ख़तरा नज़र आया तो उन्होंने अपसंस्कृति पर आधुनिकता का भ्रामक लेप लगा प्रस्तुत किया . हमें सही आधुनिकता क्या है यह समझना आवश्यक है ताकि अपना बचाव कर सकें और भटक गए को सही राह बता सकें या कम से कम और भटकाव कम कर सकें .
                             मनुष्य जहाँ सुख नहीं वहां सुख की तलाश कर दुखी हो ,अपना अनमोल मनुष्य जीवन व्यर्थ न गवाए ,ऐसा परिद्रश्य निर्मित करना सभी मानव का जन्म सिध्द कर्त्तव्य है.

 

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