Monday, June 4, 2012

न्यायसंगत

न्यायसंगत        

                                           पृथ्वी पर हजारों प्रजाति के वृक्ष पाए जाते हैं लेकिन आबादी क्षेत्र में मनुष्य ने ऐसे वृक्ष प्रधानता  से लगाये हैं जो छायादार , स्वास्थ्यवर्धक ,फलदायक और सुगंध बिखेरते पुष्पदायक होते  हैं.इन विशेषता से विहीन वृक्ष जंगलों में एवं वीरानों में सीमित रह गए हैं.   ये  वृक्ष हमसे भले हैं .चलने में तो असमर्थ हैं इसलिए एक जगह खड़े रह जाते हैं पर जो उनके आश्रय आता है उसे छाया ,शीतलता  फूल और फल  देते हैं ,हम बेदर्दी से पत्थर या हंसिया भी चलावें तो भी फल दे देते हैं ,कुछ तरह के प्राणियों को अपने पर आशियाना भी बना लेने देते हैं. 
                                             मनुष्य गुणग्राहक है अतः जिसमें अच्छे गुण देखे उसे समीप रखा और अल्प- गुणी  और दुर्गुणी को अपने से दूर किया,मनुष्य इस हेतु प्रशंसा का पात्र है. प्रशंसा सभी को प्रिय होती है .गुण ग्राहकता के कारण अपने लिए अनुकूलताएँ और अपने मित्रों   को अपने आसपास एकत्रित करता है. ऐसे मित्र  मुक्त कंठ प्रशंसा तो करते हैं पर भय या लिहाज के कारण उसके अवगुणों का उल्लेख और आलोचना से बचते हैं .ऐसे में समालोचक न होने  से उसे अपने गुणी होने की भ्रान्ति होती है और एक गुरुर उसके व्यव्हार में दर्शित होने लगता  है जैसे की उससे बड़ा समझदार कोई नहीं है.दूसरों की भावना की  क़द्र और अपेक्षाएं भूलने लगता  है .
                                                      एक ऐसे को दूर से निहार और उसे सुखी मान कुछ ने उसकी नक़ल करना प्रारंभ कर दिया और फिर और ऐसे मानव  बढ़ जाने पर  उसका  एक अलग वर्गीकरण हो गया .ऐसे मानव वर्ग से ये वृक्ष बेहतर हैं .जिन्हें चलने का सामर्थ्य होने पर ये जगह-जगह घूम सिर्फ अपने लिए फल तलाशने में और अपनी शीतल छाया की व्यवस्था को ही भटकते अपना जीवन व्यय कर देते हैं.  चलने फिरने का सामर्थ्य था दिमाग भी था पर अपनी लालसाओं से मुक्त हो पाते तो कुछ अपने उपजाए फल दूसरों को देते. अपने व्यक्तित्व  को बड़ा बना दूसरों पर अपने आशीर्वाद और प्रेरणा की छाया  ,और मेहरबानियाँ  की वर्षा कर सकते थे .उसके   धन्यवाद  के पात्र बनते जिसने मानव रूप कृति पृथ्वी-लोक  को दी थी .
                                                   गलती कोई भी हो हुई हो ,मनुष्य के लिए उसका सुधार लेना कोई कठिन बात नहीं होती है .मनुष्य के अन्दर विद्यमान विवेक रुपी सूर्य का ,स्वार्थ और भोगलिप्सा के बादलों के आड़ में आ जाने से प्रकाश की मात्रा में आई कमी बादलों को परे धकेलने से पुनः जगमग हो जाता है ,स्व-ज्ञान से प्रकाशित आचरण पवित्र हो जाते हैं और ऐसे में कुछ तरह के तर्क ही भूल सुधार में पर्याप्त होते हैं जैसे ...
हम दूसरों में अच्छाई देख उसका अनुमोदन करते हैं (और चाहते हैं उसमें  बनी रहे) ,  एवं बुराई  देख उसकी निंदा करते हैं  (अपेक्षा करते हैं की  वह उसे त्याग दे  ) .लेकिन जब प्रश्न अपना आता है तो वह अच्छाई स्वयं के आचरण में लाने  एवं बुराई अपने आचरण से दूर करने में विफल होते हैं. क्या हमें अपना मानसिक नियंत्रण मजबूत नहीं करना चाहिए ? जिससे  हम अच्छे और बुरे दोनों को जैसा दूसरों में पसंद या नापसंद करते हैं वैसा ही पालन खुद में भी कर सकें. ऐसी प्रेरणा और द्रढ़ता हममें आने से संपर्क में अन्य मानव भी हमसे प्रेरणा ले पाएंगे और धीरे -धीरे  परिणाम अच्छे मिलने लगेंगे क्योंकि हमारी संगत का प्रभाव हम पर सदैव होता आया है हम अच्छे बनेंगे तो हमारी संगत में कुछ और अच्छे बनने लगेंगे जिससे समाज में अच्छों की संख्या बढ़ने से समाज ही खुशहाल बनेगा

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