Monday, June 18, 2012

प्रभावित हुआ है समाज ,सयुंक्त परिवार टूटने से

 प्रभावित हुआ है समाज ,सयुंक्त परिवार टूटने से

                                             मनुष्य ने पाषाण काल से सभ्यता का क्रम बनाया हुआ था ,हजारों वर्ष हुए जब मनुष्य अपना घर बना अपने परिवार और बच्चों के साथ समाज/नगर में रहने लगा .पिछली सदी के पूर्व तक इन घरों में उसकी कई-कई पीढियां जिसमे दादा-दादी ,ताऊ-ताई,चाचा-चाची परदादा-परदादी और भी सब मिलकर ५० -६० से ज्यादा सदस्य जीवन यापन कर लेते थे  .ज्यादातर परिवार  कृषक या व्यवसायी होते थे .पिछली शताब्दी से बल्कि ५०-६० वर्षों से सरकारी तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों में नौकरी कर आजीविका चलाने की प्रवत्ति बढ़ गयी. ऐसे में घर के सदस्यों को बाहर रहकर जीवन यापन करने की मजबूरी पेश आई और एकल परिवार जिसमें पति-पत्नी और उनके बच्चे होते अस्तित्व में आने लगे.इन परिवारों में स्वतंत्रता और उपभोग आधिक्यता की गंध पा ऐसे सयुंक्त परिवार भी टूटने लगे जहाँ नौकरी के कारण प्रथक रहने की कोई बाध्यता नहीं थी.सयुंक्त परिवार में पहले रसोई अलग होने लगी,फिर घरों के बीच दीवारें उठने लगीं और जब इन में भी कलह शांत न हुयीं तो दूर जा बसने का सिलसिला चला .
                                   एक ही कुटुंब के सदस्य वैमनस्यता के स्तर पर पहुंचे जहाँ अपना ही भाई या करीबी जानी दुश्मन सा लगने लगा .दूसरों की प्रगति तो शायद भली लगती लेकिन   अपना जब ज्यादा सुखी ,उन्नत या विख्यात लगता तो इर्ष्या तन मन जलाती .हालत ये हो गए कि तीन पीढ़ी तक साथ रह लेने वाले परिवार गिनती के दिखने लगे .हजारों वर्ष की पारिवारिक बुनियाद पिछली सदी में ढहनी आरम्भ हुयी और लगता है अगले ५० -६० वर्षों में सयुंक्त परिवार इतिहास की वस्तु रह जाएगी.
                               थोड़ी स्वतंत्रता और उपभोग आधिक्यता के लोभ में हमने क्या गवायाँ यह देखें .अपने और बड़ों का स्नेह ,अपनत्व देखरेख और अनुभव जनित मार्गदर्शन से हम वंचित हुए.बच्चे दादा-दादी ,ताऊ-ताई,चाचा-चाची परदादा-परदादी और अपने चचेरे बड़े भाई बहनों की अपेक्षा नौकरों के सानिध्य में पलने लगे. घरों के पीढ़ियों के संस्कार छूटे और पालने वाले नौकरों के (जिन्हें सुसंस्कार हम दे सकते थे ) उनसे ग्रहण कर बच्चों के संस्कारों का मिश्रण हो गया .सयुंक्त  परिवारों में कई सदस्य होते उनमे अच्छाई और बुराइयों को सहने की आदत होती जब साथ ये नहीं रहे तो सहनशीलता एवं सहनशक्ति  हमारी कम हो गयी .एकल परिवार में बच्चा बेहद जिद्दी होने लगा .सयुंक्त परिवार में पलते हुए बच्चे को आदत होती कि जो खेलने,पहनने खाने पीने और पढने या मनोरंजन की साम्रगियाँ घर में आती उन्हें मिल जुल कर ख़ुशी ख़ुशी उपयोग करते और आवश्यक होने पर एक दुसरे की ख़ुशी के लिए त्याग भी करते ,इस तरह दूसरों के लिए त्याग की हमारी आदत भी जाती रही .त्याग कर क्या ख़ुशी मिल सकती है ऐसी अनुभूति न बची . घर में सदस्यों की बहुत संख्या रहते कुछ के बाहर जाने से सुरक्षा की कोई चिंता न होती .एकल परिवार में कुछ या सभी बाहर जाते तो घर और रहने वाले सदस्य सुरक्षा को ले चिंतित रहने लगे अर्थात मानसिक प्रष्ठभूमि में सुरक्षा का अहसास सयुंक्त परिवार के साथ जाता रहा. जीवन में अनचाहे कई विपत्तियाँ आती हैं सयुंक्त परिवार में इन विपत्तियों को एकजुट ताकत से तुलनात्मक सरलता से निबट लिया जाता लेकिन ऐसे मौकों पर एकल परिवार नानी याद करते नज़र आने लगे .विपत्तियाँ गहन अवसाद को साथ लाने लगी .
                                           पिछली सदी से हुए इस पारिवारिक संरचना में परिवर्तन का प्रभाव समाज में द्रष्टिगोचर हुआ .अब समाज में परस्पर सहयोग,त्याग ,अपनापन लुप्त हो रहा है. ईर्ष्या और अपनी मनमानी (जिद) की प्रवत्ति बढ़ने लगी है.एकमत और एकजुट प्रयासों से अच्छे कर्म और लक्ष्य को प्राप्त करने की इक्छाशक्ति नहीं रही है. हर सामाजिक समस्या को बहाने से दूसरों पर  दोषारोपित कर खुद के त्याग और सहनशील आचरण से बच जाने की प्रवत्ति दर्शित होती है.अगर सयुंक्त परिवार चला पाना मुश्किल हुआ था तो फर्क न पढता पर हमने उसके साथ उसकी अच्छाइयों को भी छोड़ दिया .हम किसी न किसी बहाने बहुत सी अच्छी परम्पराओं को भी बदल रहे  हैं जो अंततः हमारी खुशहाली की कीमत ले लेती है .हमें नए अच्छे आयामों को स्थान देने के साथ सावधानी से ही पुरानी परम्पराओं को बदलना होगा अन्यथा हम स्वस्थ विरासत नहीं छोड़ेंगे अपनी संततियों के लिए.

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