Sunday, May 31, 2020

अनुपमा ..

अनुपमा ..

तीन दिन अनुपमा की ओर से कुछ सुनने नहीं मिला। सरोज सशंकित रही, तब चौथे दिन पड़ोस की एक भौजाई ने बताया कि अनुपमा को उसके पापा ने स्कूल छुड़ा दिया है।
सरोज ने पूछा- ऐसा क्यों?
तो उसने बताया कि- अनुपमा के साथ एक लड़के ने, पाँच छह दिन पहले छेड़खानी कर दी थी, इसलिए।
इस पर सरोज ने कुछ नहीं कहा मगर उसका मन अशांत हो गया। मन तर्क करने लगा, अपराध लड़का करे, सजा, निर्दोष लड़की को मिले? फिर सोचने लगी, नई बात क्या है? यही तो समाज की रीति नीति है।
सरोज को गलती सी लगी कि अनुपमा को उसने ही तो, रविन्द्र की हरकत अपने पापा-मम्मी से बताने कहा था।
फिर अपनी इस बात को आप ही, सही ठहराने लगी कि- नहीं! पापा-मम्मी को अँधेरे में रखने देना, उचित भी तो नहीं होता। 
वह उपाय सोचने लगी कि कैसे, निर्दोष अनुपमा की सहायता करे? कैसे, एक अच्छी बेटी की पढ़ाई, अधूरे में खत्म नहीं हो जाने दे?
फिर सरोज ने जगन को राजी किया और उसी दिन संध्या के समय, जगन एवं सरोज, अनुपमा के घर जा पहुँचे।
पहले जगन, अनुपमा के पापा से औपचारिक बातें करता रहा, तब अनुपमा की मम्मी, पहले और फिर अनुपमा सामने आईं।
सरोज को यही अवसर चाहिए था। उसने, अनभिज्ञ बनते हुए पूछा- अनुपमा, तुम्हारी पढ़ाई, कैसी चल रही है?
उत्तर में अनुपमा नहीं, कुछ उत्तेजित स्वर में, उसके पापा बोले- हमने, अनुपमा का स्कूल जाना, बंद करवा दिया है।
प्रत्युत्तर में सरोज ने पूछ लिया - क्यों, भला?
तब अनुपमा की मम्मी ने रविन्द्र की जबरदस्ती का, अनुपमा का बताया पूरा किस्सा दोहराया।
इस पर सरोज ने कहा- मगर भाभी यह तो ठीक नहीं है। ऐसे पढ़ाई बंद होने से, अनुपमा की आशाओं का क्या होगा? खराबी किसी लड़के की है, ऐसे हम अपनी, निर्दोष बेटी पर पाबंदियाँ क्यों लगायें?
अनुपमा के पापा कहने लगे - तुम, मुंबई रहके आई हो इसलिए ऐसा कह सकती हो। यहाँ गाँव में बेटी का पापा, बेचारा होता है। अभी गाँव की छोटी सोच होने से, यहाँ, अनुपमा के बारे में इधर उधर की बात होने लगेगी। पढ़ाई के प्रयास से लाभ कुछ होगा नहीं, उसके चक्कर में उसको ब्याहने, कोई ना तैयार होगा। 
सरोज को इस बात पर गुस्सा तो आया, मगर उसने स्वर संयत रखते हुए कहा- मगर भैया जी, हम, लगभग सभी तो बेटी के माँ-बाप होते हैं।      
समस्या के सामने ऐसे समर्पण से तो हमारी बेटियों के, अच्छी उपलब्धियों के अवसर, हम ही खत्म कर देंगे। कृपया आप अनुपमा को स्कूल जाने दीजिये। अपनी तसल्ली के लिए कभी आने जाने में, कुछ दिन खुद भी साथ जाइये।
सरोज की बात पर अनुपमा के पापा-मम्मी, अनमयस्क तो दिखे मगर राजी हुए कि कल से, अनुपमा को स्कूल भेजेंगे।
जगन और सरोज लौट रहे थे तब, अनुपमा के मुख पर कृतज्ञ होने का भाव झलक रहा था।
घर के रास्ते में, जगन सरोज की प्रशंसा करते हुए कह रहा था- वाह, सरोज तुम बड़ी ही तर्कसंगत बातें रखती हो। जिसे समझने में आसानी होती है।
ऐसा नहीं है कि सारी समझदारी सरोज के जिम्मे थी। गाँव बहुत बड़ा नहीं था। ऐसे में रविन्द्र को, अनुपमा स्कूल जाते हुए नहीं दिख रही थी। फिर उसके कानों तक बात पहुँची कि किसी लड़के की छेड़छाड़ के कारण, अनुपमा के घर वालों ने अनुपमा की पढ़ाई छुड़ा दी है।
ऐसा होते/सुनते हुए, रविन्द्र को बहुत ग्लानि बोध हुआ। रविंद्र की स्वयं की एक बड़ी और एक छोटी बहन थी।
उसकी कल्पना में एक ऐसा दृश्य उभर आया जिसमें, उसकी दोनों बहनों के साथ, गाँव के कुछ लड़कों ने छेड़छाड़ की है। जिसके कारण हुई बदनामी में, उनके पिता न जल्दबाजी में, वर की योग्यता बिना देखे, दोनों का एक ही मंडप में विवाह कर दिया है। जबकि छोटी बहन तो अभी पूर्ण वयस्क तक नहीं हुई है।
कल्पना पटल पर उभरे इस दृश्य ने, रविन्द्र के शरीर में सिहरन उत्पन्न कर दी। उसे प्रतीत हुआ कि अनुपमा पर उसने कोई छोटा अपराध नहीं किया है, अपितु उसके जीवन सपनों की हत्या कर दी है। वह हत्यारा है। कल्पित ऐसे दृश्य ने उसका, अमन-चैन छीन लिया।
तब साहस जुटा कर, एक रात्रि वह, अनुपमा के घर गया। और जैसे ही, अनुपमा के पिता सामने आये, वे कुछ देखते समझते, उसके पूर्व ही, वह उनके चरणों को छूने झुक गया।
फिर विनतीपूर्वक स्वर में बोला कि, काका, मुझसे बड़ी भूल हुई है। अनुपमा का, कोई दोष नहीं है। आप, उस पर कृपया कोई बंदिशें नहीं लगायें। मेरी भी, घर में दो बहनें हैं। मैंने पहले क्या किया है, भूलकर अनुपमा को अबसे, अपनी छोटी बहन जैसा ही समझूँगा। आप उसे स्कूल, जाने दीजिये। मैं खुद, अब इस बात की फ़िक्र रखूँगा कि कोई उसके साथ, गलत तरह से पेश नहीं आये।
अनुपमा के पिता, सीधे-सादे, भोले से व्यक्ति थे। उन्होंने बिना कोई व्यर्थ बात किये कहा- रविंद्र, मैंने तुम्हें क्षमा किया। आगे तुम कोई गलत काम नहीं करना। तुम नहीं जानते कि लड़की का पिता, इस समाज में कितना दीन हीन सा रहता है। उसे हर समय, बेटी की कोई बदनामी न हो, यह चिंता, सताये रखती है। 
तब रविन्द्र, दीनता पूर्वक कहने लगा - काका, मैं पहले ही बहुत लज्जित हूँ। ऐसा कह कर मुझे और लज्जित न कीजिये।
फिर वह लौट गया था।
अनुपमा का, पुनः स्कूल जाना शुरू हुए, दस दिन बीते होंगे। तब एक छुट्टी वाले दिन, दोपहर में वह सरोज के पास आई।
उसने यह वृतांत सुनाया, तब सरोज खुश होते हुए बोली - बहुत अच्छी बात है, अनुपमा। वास्तव में अनाज सभी खाते हैं, विवेक सभी को होता है, बस उसे जागृत नहीं रख पाते हैं। ऐसी हालत में ही कोई, अपने आनंद-ख़ुशी के लिए, दूसरों की ख़ुशी की हत्या करता है। यह बहुत अच्छा हुआ कि बिना किसी दबाव में, रविन्द्र ने अपनी खराबियों को समझा और उसका खेद किया है। मगर बेटी तुम, रविन्द्र को बहुत भाई सा, मानने की भूल न करना, भाई और 'भाई जैसा' होने में अंतर होता है। 
तब अनुपमा हँसते हुए बोली- हाँ, मेरी प्यारी चाची, मैं यह ध्यान रखूँगी।  ये सब आपके आभा मंडल का प्रभाव है कि हमारे गाँव में विवेक के प्रयोग करने का, फैशन आ गया है।
फिर दोनों ही साथ, खिल खिला कर हँसने लगीं ..       

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
31-05-2020
                

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