Sunday, May 3, 2020

थप्पड़ - एक समीक्षा ..

थप्पड़ - एक समीक्षा ..

ऐसा नहीं है कि लड़कियाँ, पुरुष से नहीं पिटती हैं। उनके पापा भी, पुरुष ही होते हैं । जो उनके बचपने में उन्हें पीटते हैं।
ऐसा करते हुए पेरेंट्स अनुशासन और सँस्कार के लिए एक भय का वातावरण निर्मित कर, अपने बच्चों का अच्छा भविष्य को सुनिश्चित किया करते हैं। यह व्यवहार, वे (पापा) सिर्फ बेटियों के साथ ही नहीं अपितु बेटों के साथ भी करते हैं।
किसी पिता (या माँ) के द्वारा यह तब किया जाता है, जब (कम समझ के कारण) बच्चे, बातें समझाये जाने पर, सुनकर समझ नहीं पाते हैं।
ज्यूँ ज्यूँ उम्र बढ़ती है, बच्चे किशोरावस्था में प्रवेश करते हैं। उनमें स्वाभिमान एक प्रमुख आवश्यकता हो जाती है। साथ ही, उनकी समझ बढ़ने से, अब उन्हें कह कर अच्छा, भला/ बुरा समझाया जा सकता है। तब वह पापा (पुरुष) भी, अपने पाल्य को पीटना छोड़ देता है।
बेटी/बेटे को पीटना, पेरेंट्स को, स्वयं के लिए भी दुःखदायी ही होता है। वे अपनी संतान की ख़ुशी चाहते हैं। उनके स्वाभिमान के रक्षक होते हैं।
ऐसे ही पाली गई, कोई बेटी जब ससुराल आती है तो वह बड़ी हो चुकी होती है।
किसी पत्नी का स्वाभिमान, मतभेद एवं किसी कारण से पति के क्रोधित होने पर आहत नहीं होता है। उसे मालूम होता है कि क्रोध, एक अस्थाई प्रवृत्ति है, समय के साथ स्वतः ठंडा हो जाएगा।
पति द्वारा अपनी उपेक्षा भी उसे, पीड़ादाई तो होती है, लेकिन उससे, उसके स्वाभिमान को ठेस नहीं लगती है।
वस्तुतः परस्पर उपेक्षा का होना पति और पत्नी दोनों को ही, अपने आपसी आचरण/व्यवहार की समीक्षा को प्रवृत्त करता है। कभी-जभी की ऐसी बातें, किसी दाँपत्य बंधन में अस्वाभाविक भी नहीं होती हैं।
इनसे भिन्न, पति के द्वारा गाली गलौज और थप्पड़ मारना, निश्चित ही क्रोध और अधैर्य की ऐसी अतिरेकता है जो पत्नी के स्वाभिमान को आहत करती है।
कोई पिता अपनी बेटी को ससुराल में ऐसा सब भुगतने के लिए नहीं भेजता है। उसने बड़ी हो जाने पर, स्वयं अपनी बेटी को पीटना छोड़ दिया होता है।

बैंड बाजों के साथ विदा कराकर ले जाये जाते समय, जन्म से मिला अपना घर छोड़ कर, कोई भी बेटी, अपने सुखद, सुरक्षित एवं स्वाभिमानपूर्ण जीवन की ललक लिए, ससुराल के, नए घर, नए परिवेश में प्रवेश करती है।
अगर वह आर्थिक आश्रिता है, तब भी, किसी दाँपत्य में उसकी भूमिका, पति से कोई कम नहीं होती है। न्यायिक विचार में, उसकी भूमिका पति से बीसी ही होती है।
कोई भी पति, अपनी जो पहचान बना पाता है, जो सफलता अर्जित करता है, उसकी बुनियाद में, पत्नी का वह त्याग होता है, जिसमें उसका एक अलग अस्तित्व के होने पर भी, वह अपने दाँपत्य हितार्थ, त्याग करते हुए अपनी पहचान को, पति में विलोपित कर देती है।
ऐसे में, पति यदि गाली गलौज या मारपीट पर उतरता है, तो यह द्योतक होता है पति की बौध्दिक कमी का और अधैर्य का, जिससे वह, अपनी बात कह-सुन कर समझा /समझ नहीं पाता है। 
आशा की कोई किरण हमेशा विद्यमान होती है। ऐसे ही लेखक समझता है कि 20% से ज्यादा युगल ऐसे होते हैं जिनके वैवाहिक जीवन में ग्रह हिंसा का अस्तित्व नहीं होता है। प्रेरणा ग्रहण किये जाने के लिए अभी भी ये युगल उदाहरण तो हैं ही।
पति का पत्नी पर थप्पड़, निःसंदेह अक्षम्य है। और थप्पड़ मूवी में उठे प्रश्न विचारणीय है। पुरुष के लिए चिंतन-मनन योग्य हैं और गृह हिंसा त्याग करने के लिए यथोचित प्रेरणास्पद हैं।
बावजूद इसके, थप्पड़ मूवी में तापसी पन्नू जैसा कदम उठाना, अर्थात एक थप्पड़ पर विवाह विच्छेद कर लेना विशेष कर थोड़े कम पढ़े लिखे / पिछड़े समाज वर्ग के लिए जल्दबाजी कहलाएगी।
उसमें गलती पर माफ़ी एवं आगे ऐसी गलती न किये जाने की शर्त सहित विच्छेद टालना फ़िलहाल श्रेयस्कर होगा। समाज में इस बदलाव के लिए थोड़ा धैर्य अपेक्षित होगा। अन्यथा हमारा परिवार/समाज बिखर जाएगा।

अंत में आशय यह बताना है कि "थप्पड़" का कारण, जैसा नायक मूवी में कई कारणों में से एक नशे में होने का भी बताता है। उस पर भी गौर किये जाने की जरूरत है।
क्यों करे कोई नशा? जब यह, किसी के स्वाभिमान के कुचलने में कारक हो जाता है।
मूवी में जो किरदार अदा कर रहे हैं यही लोग, अपने यथार्थ जीवन में, अधिकाँश नशेड़ी हैं।
और तो और, सिने जगत के ये कलाकार ही, रात्रि ड्रिंक पार्टी के जरिये हमारे समाज में, जो खराबी नहीं थी, वह ला रहे हैं।
हमारे समाज में नारी ड्रिंक्स नहीं लेती थीं लेकिन अब, मेट्रो सिटीज में यह आधुनिकता जैसा अपनाया जाने लगा है।
स्पष्ट है पर्दे पर और पर्दे के पीछे इन्हीं नायक/नायिकाओं के, ये चरित्र दोहराव के उदाहरण हैं।
हमें थप्पड़ से कुछ अच्छे संदेश अवश्य ग्रहण करने चाहिए। साथ ही यह भी समझना चाहिए कि सिनेमा की कहानी (व्यवसायिक लक्ष्य से बनी) और यथार्थ जीवन में अंतर होता है।
समाज की, "पुरुष सत्ता प्रधानता" कोई कुत्ते की पूँछ नहीं है। धैर्य के साथ समाज के इस टेढ़ेपन का उपचार संभव है।
अपनी संघर्ष क्षमता से नारी, जिस तरह परिवर्तन लाने में सफल हो रही है, उससे निकट भविष्य में उसे, समानता प्राप्त हो जायेगी। और वैवाहिक जीवन के आपसी मुद्दे 'थप्पड़' (हिंसा) से नहीं बल्कि चर्चाओं से सुलझा लिए जाने वाले हो जायेंगे। 

-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
03.05.2020

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