Saturday, April 4, 2020

कायरोना ...

कायरोना ...

मैंने, बचपन से ही, बाप को, जब मर्जी हो, अम्मा पर गुस्से में बरसते एवं उनकी पिटाई करते देखा था।
धारणा तभी से बन गई थी मेरी, कि पति नामक जीव को, पत्नी पर अत्याचार का वरदान है।
अम्मा को हर तीज, त्यौहार पर, पति की दीर्घ आयु के लिए व्रत, उपवास करते देखा था।
मुझे यह भी स्पष्ट हो गया था कि भले ही अधमरे होते तक पिटते रहे, मगर मरी नहीं है तो पत्नी को सुहागन ही बनी रहना है।
जैसे आज तर्क चलते हैं कि आर्थिक निर्भरता एवं कम शिक्षित होने के कारण, नारी की यह दशा होती है, मेरी अम्मा के प्रकरण में, ऐसा भी नहीं था।
मेरी अम्मा, मेरे बाप से ज्यादा पढ़ी थी। बाप चौथी और अम्मा इंटर, पास थी। बाप रिक्शा चलाकर कमाता तो, माँ, घरों में बर्तन झाड़ू पोंछा कर कमाई करती थी।
सच था कि बाप ज्यादा कमा लेता था।  मगर उसके निजी खर्चे भी ज्यादा थे। दारु, बीड़ी, तंबाकू तो थे ही, रंगीनियत भी उनका प्रिय शगल था।
साफ़ है, आर्थिक निर्भरता नहीं थी, अम्मा की बाप, पर। यह होने पर भी, छह बच्चे पैदा करना, उनके लिए खाना बनाना, उनकी देखरेख करना के साथ ही बाप नशे में घर लौटे तो पिटते हुए भी उसके पैर दबाना, उसके कर्तव्य थे।
क्यूँ न हों, आखिर परमेश्वर तो पति ही होता है ना! 
अपनी कुशाग्रता के कारण, पढाई के लिए, घर में मौजूद सर्वथा विपरीत परिस्थितियों में भी, मैंने अम्मा के बढ़ावे के कारण कक्षा बारह तक की पढ़ाई की थी, वह भी अपनी कक्षा में शीर्षक्रम के सहपाठियों में गिने जाते हुए।
तब, ग्रामीण परिवेश में जैसा होता है, अठारह वर्ष की होते ही, मेरे बाप को मेरे ब्याह की फिक्र हुई थी। मेरी योग्यता को देखते हुए, उसने मेरे लिए योग्य वर ढूँढ लिया जो मेरे बराबर ही पढ़ा लिखा था। था तो पास के ही गाँव का मगर, मजदूरी हैदराबाद में करता था।
मुझसे छह वर्ष बड़ा था। सुना था, कमाई की बचत में से खरीद ली गई, उसकी एक खोली थी।     
बाप, अम्मा को खुद की बढ़ाई जैसे बता रहे थे- 'ख़ुशी' (मेरा नाम) बड़े शहर की ज़िंदगी देखेगी!
अभी से, चार साल पहले ब्याह हुआ। शुरूआती दिनों में ही मेरी किसी ऑफिस में सहायिका की नौकरी की जिद पर, पति ने हँसिया दिखाकर धमका दिया था, काट दूँगा, मेरी आज्ञा के खिलाफ कोई काम किया तो! 
पति नामक जीव का, यह रूप बचपन से ही देखभाला था, अचरज नहीं हुआ था। उससे भयभीत, उसकी दासी बन रहने लगी थी।
तीन साल में ही दो संतान जन्म चुकी थी, तब मेरे परमेश्वर ने मुझे एक घर में रसोई एवं गृह सेविका के काम की अनुमति दे दी थी।
जीवन यूँ ही चल रहा था, परमेश्वर जब सानिध्य चाहता, बहुत प्रेम से पेश आता और जब दारु पी, किसी बाहरी बात से दुःखी हो पहुँचता, कोई बहाना ले मेरी पिटाई कर देता।     
सब बचपन से मन में बैठी मेरी धारणा अनुरूप ही चल रहा था, ज़िंदगी से कोई शिकायत नहीं थी।
अभी जनवरी में ही पता चला, तीसरी संतान गर्भ में आ चुकी है। फरवरी से 'मिली मेम के' घर में भैय्या जी और उनकी बातों से सुनने मिलने लगा, कोई कोरोना वायरस, महामारी बन आया है दुनिया पर!
मार्च आया तो सब तरफ चर्चा होने लगी, कोरोना भारत में भी फैलने लगा है। भैय्या जी एवं मिली मेम तो, चिंतित दिखने लगे, लेकिन हमारी बस्ती में लोग डर की हँसी उड़ा रहते थे।
फिर मालूम हुआ 22 मार्च को कामधाम / मार्किट सब बंद रहने हैं। हमें घर में ही रहना है। दो दिन बाद ही बताया गया कि 21 दिनों सब बंद रहेगा।
काम नहीं होगा तो कमाई कैसे होगी? विचार कर परमेश्वर एवं आसपास के लोग,लुगाई सब, चिंता करने लगे।
26 तारीख को परमेश्वर काम पर नहीं गए थे। मुझे भी काम पर नहीं जाने कह रहे थे। मैंने बताया था, कुछ रूपये जमा कर रखें हैं। जाकर आती हूँ, मिली मेम, से रूपये, ले आऊँगी। परमेश्वर खुश हुआ था, अनुमति दे दी थी।
मिली मेम ने हाथ धुलाये थे, मुहँ में बाँधने को मास्क दिया था। मैंने काम करना आरंभ किया था। भैय्या जी एवं मेम टीवी पर न्यूज़ सुन रहे थे। तब में पोंछा लगा रही थी। टीवी पर कोई कहते सुनाई दिया था - मजदूर और गरीबों की सरकार को कोई परवाह नहीं है। सब बंद कर उन्हें भूखा मरने छोड़ा जा रहा है। 
मजदूर और गरीब के बारे में बात आने से, मैं पोंछा लगाते हुए साथ, टीवी को देखते-सुनते जा रही थी।
लेकिन तभी, भैय्या जी ने, गुस्से में टीवी बंद कर दिया था। अभी गुस्से में दिख रहे भैय्या जी वैसे खुशमिजाज और अच्छे व्यक्ति हैं। भैय्या जी लेकिन तब मेम से कह रहे थे -
मूर्ख बनाते हैं ये सब, हर वक़्त ही, सिर्फ वोट की ही युक्ति सूझती है। कभी गरीबी के कारकों पर, जन-चेतना के ठोस प्रयास ही नहीं किये हैं। गरीबी बनाये रखने में ही, अपना हित देखा है।
मेम ने पूछा- कैसे आती, जन जागृति ? मैं, काम के साथ, दोनों कान, उनकी बातों पर रखे हुई थी।
भैय्या जी ने कहना शुरू किया था -
गरीब को, बताया जाता कि अब,पहले जैसी परिस्थितियाँ नहीं रहीं, जिसमें 10 औलाद में तीन बच पाना भी संतोष की बात होती थी।
गरीब को यह विश्वास दिलाया जाना चाहिए था कि चिकित्सा विज्ञान उन्नत हुआ है। जन्मे हर बच्चे को बचा लिया जा सकेगा।
यह करते हुए, चिकित्सा सुविधा / तंत्र देश में सुलभ करते, जिससे गरीब इस बात की तसल्ली करता।
बताया जाता कि जो, ज्यादा बच्चे पाल सकते हैं। वे अमीर लोग, एक-दो पर सीमित हो गए हैं।
जबकि गरीब जिसके पास अभाव हैं, छह बच्चे करता है। इस तरह अपने पर और बच्चों पर ज्यादा अभाव लाद लेता है।
मजदूर को यह चेतना दी जाती कि नशे और जुयें पर उनकी कमाई का बड़ा हिस्सा खर्च होता है। अगर यही (परिवार छोटा रहे तो) दो बच्चों पर, खर्च हो तो उनकी बेहतर शिक्षा सुनिश्चित हो सकती है।
 जिससे आगे के जीवन में उनकी संभावना बेहतर होती हैं और गरीब परिवार में जन्मा बच्चा आगे गरीब नहीं रह जाता है।
चुनाव के वक़्त कभी यह कभी वह खैरात बाँटी, लेकिन ठोस कार्यक्रम के जरिये उनको, अपनी एवं बच्चों की ज़िंदगी प्लान करने को प्रोत्साहित नहीं किया गया है। 
ये काम तो किये नहीं हैं, और गरीब/मजदूर से झूठी संवेदना दिखाते हैं। 
सत्ता पक्ष कोई अच्छी नीति भी लाये तो विरोध के स्वर मुखर कर देते हैं। पीछे कामना सिर्फ अपनी सत्ता की संभावना पुष्ट करने की होती है। 
धिक्कार है ऐसी राजनीति पर !
फिर आगे उनमें क्या बात हुई पता नहीं, मेरा उस कमरे में काम खत्म हुआ था। शाम को मेम से, मैंने अपने जोड़े पैसे लिए थे।
 ट्रेन/बस बंद कर दीं गईं थीं। अगले दिन 27 मार्च 2020 को हमारे बस्ती में भगदड़ का माहौल था। लोग अपने, बीबी, बच्चों सहित पैदल ही सुदूर अपने गाँव पहुँचने निकल रहे थे।
मेरे परमेश्वर ने भी यही किया था।
एक बच्चा उसकी गोद में, एक मेरी गोद में और एक मेरे गर्भ में लिए मुझे, चलना पड़ा था।
सामान्य व्यक्ति का भी, कुछ ही दिनों में कुछ सौ किमी चलना मुश्किल था। मुझ साढ़े चार माह की गर्भवती का, एक और बच्चे को लादे चलना तो अत्यंत ही मुश्किल था, मगर मुझे चलना था। मेरे परमेश्वर का आदेश था।
मुझे उसके हाथ में हँसिया होने का दृश्य, ऐसी हर कठिनाई के वक़्त याद आ जाता था। फिर मैं झींकते, मरते उसके आदेश पालन में जुट जाती थी।फिर छह दिन, कभी रेलपांतों पर और कभी सड़क पर चलते, जहाँ भी समाज सेवकों से खाना मिल जाता, उससे उदर पूर्ति करते हुए, ऐसे हम गाँव पहुँचे थे।
मेरे संतोष की बात यही थी कि तमाम परेशानी झेलकर भी, मैं जिंदा पहुँचने में सफल रही थी।
मेम/भैय्या जी के यहाँ, काम करते हुए, मुझे जिम्मेदार होने की प्रेरणा मिली थी।
मैंने, आस पड़ोस की औरतों को खुद ही हमसे दूर रहने की बात कही थी। हम कई जगह, भीड़ की आपाधापी में से होते हुए, आये थे। मुझे, टीवी से पता चला था ऐसे में हमारी संक्रमित होने की संभावना होती हैं।
औरतों ने, घर में अपने अपने मर्दों से, मेरी बात बताई थी। सब, हमसे खतरा जान कर, हमसे दूर रहने लगे थे।
हम ऐसे बिना बैनर लगाए, क्वारंटीन हो गए थे। 
फिर कोरोना खतरा खत्म हुआ था।
परमेश्वर को इस बीच, दारु, बीड़ी आदि नहीं मिले थे। बल्कि घर बैठे बैठे मेरी हालत और मेरी समझ बूझ को उसने अनुभव किया था। उसके व्यवहार में पहली बार मेरे प्रति कुछ सम्मान अनुभव हुआ था। 
हमने, इस औलाद के होने तक, वापिस हैदराबाद नहीं जाने का, तय किया था।
वह खेत के काम करने निकल जाता और मैं घर के कामों से निवृत्त हो आसपास की महिलाओं की मंडली इकट्ठी करती।
बड़े शहर से लौटी होने के कारण, उनको मेरी जानकारियों से, समझना अच्छा लगता था।
मेम के घर काम करते हुए, उनके सानिध्य में, मैंने जो सीखा था, उसके प्रयोग से, उनमें चेतना बड़ाई थी।
वे ज्यादा सफाई से रहने लगीं थीं। अपने बच्चों के लालन पालन में ज्यादा अच्छी हुईं थीं। नवयुवतियों ने कम बच्चे की शपथ ली थी।
फिर मेरी तीसरी संतान, बेटी का जन्म हुआ, हमने उसका नाम कायरोना रखा था...
-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
05.04.2020
              

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