Tuesday, April 14, 2020

तुम निरूपित कर लेना ...

तुम निरूपित कर लेना ...

बचपन से ही मैं, अपने लिए जीता व करता आया था, तब भी मैं, बेटा बहुत अच्छा था। 
अपने लिए हर बात में ज्यादा हिस्सा ले लिया करता था, तो भी मैं, भाई बहुत अच्छा था। 
सभी रिश्तों में प्यार, स्नेह मुझे बहुत मिलता था, लेकिन विनम्रता से पेश आने एवं अपनी वाक पटुता के बल से, मैं, अन्य सभी की तुलना में, रिश्तेदार बहुत अच्छा था। 
धन अर्जन, अच्छा कर लेता, जिसे स्वयं के शौक खाने, पीने वस्त्रों अपने बँगले, कार और स्वयं को प्रोन्नत करने पर व्यय करता, लेकिन थोड़ा परिचितों और रिश्तेदारों को भेंट-उपहार पर व्यय करता, इससे मैं, मददगार बहुत अच्छा था। 
पत्नी और बच्चों पर अपना दबदबा बहुत रखता, उनसे भी मेरे हित बहुत सधते, मगर, थोड़ी उनकी फ़िक्र और भविष्य की योजना, मैं, तय कर देता, इससे दुनिया में उन्हें, मुझसा पति या पापा दूसरा कोई न लगता था।       
ऑफिस में, मैं, साहब होकर काम करता, मातहत से सब वह कार्य संपन्न कराता, जिनके बलबूते उपलब्धियाँ मिलती, वह मेरी कहलातीं, मगर थोड़ा सा मित्रवत व्यवहार और उनकी नियतकालिक चरित्रावली में, टिप्पणियाँ अच्छी अंकित कर देता, इससे मैं, बॉस बहुत अच्छा कहलाता।
   
ये, वे सब थे, जो मुझे अपना मानते या परिचित, मित्र या मातहत होकर अपनापन दिया करते थे। 
इसके समानान्तर जीवन में, एक और समूह होता था, यह मुझे मेरे पासपड़ोस में मिलता, विद्यालय आदि में मिलता, जहाँ मैं पढ़ता, कार्यालय, शहर में मिलता, जहाँ मैं सर्विस करता था। 
इनमें कुछ पराये अपने से होते, कुछ अपने भी पराये सा व्यवहार करते। अपने हितों की रक्षा करते हुए, थोड़ा विचार, व्यवहार, परोपकार, मैं, उनमें भी करता था। 
मगर यहाँ, मुझे उनकी प्रशंसायें तो दिखावटी सी मिलती और पीठ पीछे की निंदायें/आलोचनायें बहुत मिलतीं थीं।     
यथा-
मुझे, अच्छे परिणाम मिलते तो सुनने मिलता, योग्यता तो नहीं लगती, लगता है, भाग्य, इसका साथ दे रहा है। 
दान आदि करता तो सुनने मिलता देखो, दानवीर दिखने को, ये, मरा जा रहा है।
मितव्ययी हो बचत करता और उसे सुविधा, साजो-सामान एवं घर, अच्छा करने इत्यादि में, लगाता तो कहीं सुनाई पड़ जाता कि, ये,ऊपर की अच्छी कमा लेता है।   
अनुशासित रह, स्वास्थ्य वर्धक दिनचर्या और खानपान रख, एवं नियमित व्यायाम से, अपने शरीर सौष्ठव से अपनी उम्र से, अच्छी लगती फिटनेस, सुनिश्चित करता तो, इसमें, परिहास यह सुनने मिलता कि देखो, इसके रसिक तबीयत को, इस उम्र में रंगीला रतन बना फिरता है। 
यूँ, अपने और पराये के दो वर्ग और कतार रुपी, समानांतर पाँतों पर मेरी जीवन रुपी गाड़ी चलती आई थी। 
इस तरह, एक दीर्घ कही जाने वाली जीवन यात्रा के अंतिम पड़ाव पर, अब मैं नब्बे बसंत देख चुका था। 
मेरे ईश्वर ने यहाँ भी मुझे अनुग्रहित किया था। 
हृदयाघात से, मर जाने वाली अनुभूति, के बिना, उन्होंने, मेरे प्राण नहीं लिए थे। अपितु उन्होंने, पिछले एक वर्ष से मुझे बिस्तर से, लगा रखा था। 
जिसमें, मैंने, अपनों की देखरेख बीच, घर में ही, अच्छा एकांत और शांति पाई हुई थी। 
जहाँ, यह संभव हो सका था कि, निरपेक्ष रूप से, मैं, अपने पूर्व जीवन को, समालोचक दृष्टि से स्वयं, देख पाया था। 
अब, यह मेरे इस जीवन का, अंतिम पल है, जब, मेरे मन में, यह विचार आया है कि 
तुम, जैसा तुम्हें अच्छा लगे, मेरे जीवन को, निरूपित कर लेना, मगर, मैं संतुष्ट हूँ कि मैं सार्थक जीवन जी पाया हूँ। 
फिर मैंने पूर्ण धीर भाव से, अंतिम श्वाँस ली थी .. 



-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
14.04.2020

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