Thursday, July 19, 2012

हमारी सामाजिक उपयोगिता

हमारी सामाजिक उपयोगिता                          

                                     हमारा परिवार होता है छोटे बच्चों को छोड़ें तो शेष सभी की एक दूसरे के लिए उपयोगिता होती है.जितना ज्यादा परिवार के लिए कोई उपयोगी होता है उसके प्रति महत्त्व और स्नेह बाकी परिजन ज्यादा अनुभव करते हैं. इससे साबित होता है कि परिवार तक में अपने कर्म और आचरण से हम महत्त्व और सम्मान पाते हैं. हमारी उपयोगिता इनसे होती है. समाज में (जिसके) हम सदस्य होते हैं .हमारे ऐसे कर्म और आचरण अपेक्षित होते हैं . यही सामाजिक द्रष्टि से किसी को उपयोगी बनाते हैं. इनके (कर्म और आचरण) स्तर में उच्चता से हमें समाज में स्नेह और सम्मान मिलता है. इन्ही से हम समाज राष्ट्र और विश्व का भला कर अपने सामाजिक ऋण को उतार सकते हैं. 

                         अपने सामाजिक कर्तव्य यदि हम अपूर्ण छोड़ें तो समाज प्रभावित होता है. स्वार्थपरकता की बढती प्रवत्ति सामाजिक कर्तव्य निभाने में असहायक है. जिससे सामाजिक वातावरण बिगड़ता जा रहा है. इसे अनुभव करने के बाद भी इसे सुधारने को तत्पर नहीं हो पा रहे हैं. सामाजिक अशांति से हम निराश भी हैं पर अपनी बारी हम चूक रहे हैं . हमारी इस चूक से दूसरों को भी ऐसी ही गलती करने का यद्यपि अधिकार नहीं मिलता है पर यह अवश्य है कि उसके कर्तव्य पलायन पर उसकी भर्त्सना का नैतिक अधिकार  हमें नहीं रह जाता है.  और ऐसे में ना हम जागरूक और ना ही अन्य को प्रेरणा का हमें अधिकार तब हमारा समाज कैसे खुशहाल और सुरक्षित  (हमारी अपेक्षा अनुसार ) रह सकेगा .

                      हालांकि बचपन से मै किसी की शारीरिक या उसकी  प्रष्टभूमि की कमी को लक्ष्य कर नहीं हँसता था . पर अन्य बातों में मै किसी की हंसी उडाता था .मुझसे कमजोर पड़ता और मुझ पर वापस प्रहार ना करता तो मुझे ख़ुशी होती . अवसर कभी ऐसे आये जब मेरे इन प्रयासों में कभी बीसा कोई मिलता और मेरा ही उपहास बना देता तो मै मायूस रह जाता .मैंने तब यह अनुभव किया कि  मुझे दूसरे पर हास्य पैदा करना तो अच्छा लगता पर दूसरे के द्वारा उड़ाया जाता अपना उपहास पीड़ा पंहुचा देता था . धीरे धीरे मेरा विवेक जाग्रत हुआ मैंने यह प्रवत्ति त्यागी और हास्य के ऐसे तरीके विकसित किये जिससे किसी को लक्ष्य किये वगैर हल्का हास्य पैदा हो जाता .

               अधबीच इस तरह लेख का आशय यह है की किसी की निंदा या हास्य से बचना भी एक तरह से हमारा सामाजिक कर्तव्य है. क्योंकि किसी का बार बार लक्ष्य करना उसके मन में हमारे प्रति एक बैर उत्पन्न करता है.फिर वह प्रत्यक्ष ना सही पर अप्रत्यक्ष हमारा हितैषी नहीं रह पाता है. किसी या अनेक के मन में हमारे प्रति इस तरह का वैमनस्य सामाजिक खुशहाली को प्रभावित करता है. यद्यपि किसी की कमी हो तो कहना बाध्यता हो सकती है पर सतर्कता से इस अंदाज में कहना चाहिए जिससे उसे स्पष्ट आभासित हो कि उसमे उसकी भलाई है और इसी द्रष्टि से उससे कहा या सिखाया जा रहा है. 

                    एक प्रवत्ति यह भी अक्सर देखने में आती है जब कोई कुछ ख़राब या बुरा करता है और उसे कहा जाये तो प्रति उत्तर में वह कह सकता है कि तुम भी ऐसा करते हो या ऐसा तो सभी कर रहे हैं,वस्तुतः कोई या कई कुछ खराबी करते हैं तो अन्य भी ऐसा करने का अधिकार नहीं पा जाते हैं . बल्कि खराबी कर रहों  को शिक्षित और ऐसी प्रेरणा दी जानी चाहिए जिससे वे खराबी करना छोड़ दें. इस तरह के सकारात्मक सोच और प्रयास सभी के सामाजिक कर्तव्य हैं. 

                    जोर जबरदस्ती से दूसरों को सुधारना संघर्ष या अशांति की आशंका उत्पन्न कर सकता है और ऐसी जबरन लाया गया सुधार अस्थाई ही होता है क्योंकि दबाव के हटते ही फिर पहली बुराई उत्पन्न होने की सम्भावना बन जाती है. ज्यादा प्रभावी उपाय अपने को स्वयं सुधार कर दूसरों को प्रेरित करना है. इस विधि किसी में आया सुधार स्थाई होता है. 

                           हमारे मन में प्रश्न आ सकता है की हम यही सब सोच विचार और उपाय करते रहे तो जीवन में आनंद और मनोरंजन के लिए कब समय निकाल पाएंगे? मुझे लगता है कि  यदि सामाजिक कर्तव्य उचित तरह से हम निभा सकेंगे तो जितना ज्यादा आसपास के वातावरण में सुधार आएगा उससे हमें आत्मिक आनंद और संतोष मिलेगा जो खुशहाली का जीवन भी सुनिश्चित करेगा. सामाजिक हमारे दायित्व इतने ही नहीं हैं ये तो कुछ उदहारण हैं .सभी स्वयं सोचें जहाँ उचित लगे अपनी क्षमता से करते जाएँ .शुरूआती प्रयास की अपर्याप्तता से विचलित हुए बिना नियमित और लम्बी अवधि इसमें जुटे रहने पर प्रयासों का प्रतिफल मिलता दिखेगा .हमें विश्वास रखना होगा यह मानवीय समाज है ,जानवरों का नहीं जिनमे सोच समझ की पर्याप्त क्षमता नहीं होती.

हमें शंका लगे तो कुछ वर्षों करके देखें निश्चित ही हमारा  शंका निवारण हो जायेगा .

No comments:

Post a Comment