Wednesday, April 27, 2016

सजने सँवरने की आवश्यकता और मनोविज्ञान


सजने सँवरने की आवश्यकता और मनोविज्ञान  . .
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ऐसा कोई नहीं होता , जो अपने को गंदा ,घिना या फटेहाल दिखाना चाहता है। कोई क्या पहने , यह समाज और काल के चलन और वस्त्र उपलब्धता सिखाती है। ऐसे में, पूर्व पीढ़ियों ने जैसा पहना , वैसा ही अब पहना जाये , इसकी जबरदस्ती की जानी अनुचित होती है। विशेषकर पुरुष तो , मन चाहा पहने और , नारी पर क्या पहनो क्या नहीं पहनो थोपा जाए ,यह अनुचित जबरदस्ती है। कोई क्या पहने , यह व्यक्तिगत विषय है या अधिकतम पारिवारिक समझ-बूझ का विषय है। धर्मिक स्थानों ,स्कूल ,वैवाहिक कार्यक्रमों में और कार्यस्थल आदि में तय ड्रेस कोड हैं। इतना पालन कर लेना पर्याप्त होता है।
दूसरा प्रश्न , सँवरने का है , विशेषकर नारी जब सँवरती है , उसका यह अभिप्राय निकालना कि वह हर किसी को सेक्स निमंत्रण देने के लिए ऐसा करती है , यह सरासर गलत धारणा है।
सर्वसुखी समाज , सभ्यता का द्योतक होता है , कोई अपने जीवन के लिए किन बातों में खुश होता है , उसे करने की स्वतंत्रता उसे होनी चाहिए , उस समय तो निश्चित ही होनी चाहिए , जब ऐसी ख़ुशी कोई किसी पर हिंसा नहीं करके या किसी को कोई क्षति नहीं पहुँचा कर हासिल करता है। 
नारी जब घर की चाहरदिवारियों में रहती थी , तबसे , अब जबकि वह वर्किंग है , स्कूटी चलाती और बाहर के कामकाज करती है , इसमें उसके परम्परागत पहनावों से आज का पहनावा और श्रृंगार अलग होगा ही।
इस संबंध में सभी को सुलझी मानसिकता का परिचय देना अपेक्षित होता है।
--राजेश जैन
28-04-2016
https://www.facebook.com/narichetnasamman/

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