Tuesday, March 25, 2014

"जियो और जीने दो , जियो और जीने को सहारा दो"

"जियो और जीने दो ,
जियो और जीने को सहारा दो"
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"आशंकाओं के साये में , सिर पर मंडराते खतरों के तले
बाहर असुरक्षित भयभीत पर न रह सकता घर में डले 
निकले गृह से परिजन जब लेकर जीवन प्रयोजन भले
स्वयं परिवार तथा मित्र उसकी सुरक्षा की कामना करे "

प्रत्येक मनुष्य भले दूसरे के लिए साधारण या महत्त्वहीन हो , किन्तु अपने आप में इस तरह निराला है , जिसे दोबारा जिलाया नहीं जा सकता. एक बार किसी का जीवन समाप्त हुआ तो सारे संसार की मनुष्यीय शक्ति और दौलत उस अनूठे जीवन को पुनः जीवंत नहीं कर सकती. चूँकि किसी जैसे तो अनेकों पैदा हो सकते हैं अतः किसी का जाना अनेकों के लिए साधारण सी बात होती है ,  किन्तु वह विशेष एक बार चला गया तब फिर से अस्तित्व ले ही नहीं सकता. स्वयं हम प्रत्येक ऐसे निराले और महत्वपूर्ण हैं . ऐसे में चारों ओर छाये खतरों के बादल विचार को बाध्य करते हैं -

क्यों मनुष्य ने भस्मासुर से विध्वंसक आविष्कृत कर अपने सिर स्वयं रख लिए हैं?
क्यों अपनी श्रेष्टता और प्रभाव सिध्द करने का विचार सिर पर सवार कर लिया है ?
क्यों अन्याय और दुष्टता युक्त महत्वाकांक्षाओं को ह्रदय में स्थान दिया है ?

क्यों जीवन आनंद से बिताने के जगह पागल बन व्यर्थ करने की जिद ठानी है?
और ऐसा हुआ तो व्यर्थ स्वयं का जीवन तो किया लेकिन क्यों किसी अन्य को इस हेतु उकसाया है?

क्यों इतना मूर्ख बन कोई पागलों के (दुष्टों के) झाँसे में आया है ?

धिक्कार हमें , विश्व में कोई जगह ऐसी ना बच पा रही है जहाँ मानव जीवन निशंकित हो. उस पर अपनी पीठ हम थपथपा रहे हैं, मानते हैं आज मानव उन्नत है।

पहले विध्वंसकों का अस्तित्व नहीं था पर्याप्त था यह सिध्दांत "जियो और जीने दो "
नए परिवेश में जहाँ एक दूसरे से जीवन भय की आशंका बनती है, हमें इस सिद्धांत को विस्तार देना होगा .
"जियो और जीने दो" के साथ "जियो और जीने को सहारा दो" कहना होगा .
ऐसा स्वयं करना और दूसरों को इस हेतु बाध्य करना होगा , कल से नहीं अभी से ही

"जियो और जीने दो ,
जियो और जीने को सहारा दो"

--राजेश जैन
26-03-2014


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