Wednesday, August 11, 2021

मैं, नीरज चोपड़ा की माँ ….

 मैं, नीरज चोपड़ा की माँ ….  

(मनःस्थिति एक कल्पना) 

4 अगस्त 2021 को नीरज के फाइनल में पहुंचने के समय से ही, मेरे मन में 7 अगस्त के फाइनल होने की प्रतीक्षा चल रही थी। मेरी व्यग्रता समाप्त हुई थी, आज वह दिन आ गया था। प्रातः काल से ही मेरी व्यग्रता, अब घबराहट में परिवर्तित हो गई थी। 

भारत की एक बेटी हमारी अदिति अशोक, से पूरे देश को पिछले कुछ दिनों से मेडल की आशा लगी हुई थी। दुर्भाग्य से आज सुबह, अदिति का प्रयास पदक के बहुत पास आकर थम गया था। आज यह देखना मुझे अत्यंत दुखी कर गया था। इसे देखकर मैं, नीरज के साथ भी ऐसा अशुभ हो जाने को लेकर आशंकित हो गई थी। मैं सोच में पड़ गई थी कि ठीक अदिति की तरह ही तो, नीरज पर पूरे देश की आशा लगी हुई है। मैं भी तो अपने भारतवासियों जितनी ही नीरज से पदक जीतने की अभिलाषा कर रही हूँ। 

चढ़ते सूरज के साथ साथ, मेरे मन में कई प्रश्न उत्पन्न हो रहे थे। मेरे सहित करोड़ों भारतीयों का, मेरे बच्चे नीरज पर अपनी अभिलाषाओं का इतना भार लादना, क्या उचित है? मेरे अल्पायु बेटे नीरज के दिमाग पर, क्या सबकी आशाओं के इतने भार से अहितकारी प्रभाव तो नहीं पड़ रहा होगा? 

मैं सोच रही थी कि नीरज की भी तो महत्वाकांक्षा ओलंपिक से अपने भारत के लिए पदक लाने की है। अगर वह भी, बेटी अदिति की तरह पदक जीतने से चूक गया तो? 

मैं सोचने लगी थी कि मेरी तो छोड़ो, असफल रह जाने पर नीरज के मन पर क्या बीतेगी? वहाँ दूर टोक्यो में, मैं, उसके पापा या घर का कोई भी तो साथ नहीं, जो, अगर नीरज हार जाए तो उसे सम्हाल पाए। मेरा मन किया कि मैं मोबाइल पर, नीरज से बात करुं। फिर सोचते हुए, यह विचार भी मैंने छोड़ दिया कि बात करते हुए, मेरे स्वर में कंपन का अनुभव करके मेरा नीरज, भावुक न हो जाए। इससे कहीं, आज उसके प्रदर्शन पर बुरा प्रभाव न पड़ जाए।      

इन्हीं आशा-निराशा के बीच मैं, गृह कार्य करते जा रही थी। घर में सब नीरज के जीतने और हार जाने की संभावनाओं को लेकर ही विभिन्न अटकलें लगाते हुए बात कर रहे थे। मैं, उनके वार्तालाप में भाग लेने से बच रही थी। मुझे भय लग रहा था कि मैं भावुक होकर, सबके सामने रो ही न पडूँ। 

दोपहर का भोजन भी, मैं किचन में अकेले में करने बैठी थी। मैं, अपने पति के सामने आने तक से बच रही थी। अपने सयुंक्त परिवार में, घर और रसोई के कार्य करने के बाद मुझे, अच्छी भूख लग जाया करती है, मगर आज मुझे भोजन करना रुचिकर नहीं लग रहा था। जैसे तैसे ही कुछ निवाले मैंने, हलक से नीचे उतारे थे। 

परिवार में मैं ही, सुबह सबसे पहले जागती हूँ। दोपहर के भोजन के बाद तक मेरी थकान, मुझे बिस्तर पर फैल कर सो जाने को विवश कर देती है। आज का यह दिन और दिनों से भिन्न था। आज मेरे पर अकेली थकान ही नहीं अपितु अभूतपूर्व तनाव और चिंता भी छाए हुए थे। अपनी मानसिक व्यथा को छुपाए हुए मैं, शयनकक्ष में आई थी। यह देखकर मुझे आश्चर्य हुआ था कि दोपहर में कभी आराम न करने वाले, नीरज के पापा बिस्तर पर आंखें मींचे लेटे हुए थे। मेरी आहट सुनकर उन्होंने आंखें खोलकर मुझे देखा था। वे बोले कुछ नहीं थे। बस मुझे देखकर, उठ खड़े हुए थे। मैं कुछ समझ पाती उसके पूर्व ही उन्होंने, अपनी बाँहे फैलाकर मुझे गले लगा लिया था। 

अब मुझे कल्पना हुई थी कि बेटे से अभिलाषाओं का दवाब, मुझ पर ही नहीं उन्हें भी चिंतातुर किए हुए है। सुबह से ऊपरी तौर पर नियंत्रित रख पाई मैं,  अब कोशिश करने पर भी, अपनी भावनाओं को सामने आने से रोक नहीं पाई थी। मैंने, उनकी पीठ को अपने हाथों के घेरे में ले लिया था। उन्होंने भी यही किया था। तब मैं, उनके कंधे पर सिर रख फूट फूट कर रो पड़ी थी। 

नीरज के पापा भी रो रहे हैं, इसका आभास मुझे तब हुआ जब मैंने, अपने सिर पर उनके नयनों से बहते अश्रुओं की नमी अनुभव की थी। 

मेरे ‘ये’ अत्यंत सशक्त पुरुष हैं। परिवार पर कभी आए मातम के अवसर के अतिरिक्त मैंने, इन्हें कभी विलाप करते नहीं देखा था। इनके ऐसे रो पड़ने ने मुझे मेरी अपनी व्यथाएं भुला दीं। मैं रोते रोते चुप हो गई थी। अपने हाथों से, उनके मुख को दूर करते हुए मैंने इन्हें देखा था। मेरे ‘ये’, आँखें मींचे हुए बिना ध्वनि किए रोए जा रहे थे। अब मैंने, इनका सिर अपने कंधे पर रख लिया था। मैं चाहती थी कि ये रो लें। रो लेने से ही इनका जी हल्का हो पाएगा।

मैं कल्पना करने लगी थी कि जब हमारी यह हालत है तो मेरे बेटे नीरज की, भारत की उससे अपेक्षा के दवाब में हालत कितनी विकट होगी। इन्होने स्वयं को, कुछ मिनटों में संयत कर लिया था। तब हम पलंग पर साथ-साथ लेट गए थे। हममें व्याप्त चुप्पी को मैंने तोड़ा था। मैंने कहा - सुनो जी, नीरज से स्वर्ण पदक की हमारी और देश की अभिलाषा, मेरे बेटे पर ज्यादती है। 

इन्होंने कहा - अभिलाषा करना तो सरल बात है, आज तो सोने से कम की कोई नहीं कर रहा है। 

मैंने कहा - वहाँ तो सभी 31 प्रतियोगी, स्वर्ण अभिलाषा को लेकर आए थे। 23 की आशा तो टूट चुकी है। अब नीरज सहित बचे 12 तो, दुनिया के सर्वश्रेष्ठ भाला फेंकने वाले हैं। मेरा नीरज तो काँसा भी ले आए तो हमें प्रसन्न होना चाहिए। 

इन्होने कहा - सरोज, तुम माँ हो। यह तो अपने बच्चे के लिए तुम्हारी ममता कह रही है। तुम देखो तो पदक तालिका को, हमारे भारत को अब तक सोना, एक भी नहीं है। देशवासियों की तो छोड़ो, हमारे तो प्रधानमंत्री तक मन ही मन चाह रहे होंगे कि नीरज स्वर्ण पदक जीते। अगर नीरज यह नहीं कर पाया तो इस ओलंपिक में भी हमें बिना सोने के रह जाना पड़ेगा। अब हमारे किसी और खिलाड़ी की चुनौती भी तो शेष नहीं बची है। 

मैंने पूछा - जी, मैं किसे निष्ठुर कहूं, समय को या देशवासियों को जो नीरज से सोना माँग रहे हैं?

इन्होंने अब मेरे सिर पर थपकियाँ दीं थीं। फिर मुझे निद्रा आ गई थी। विचित्र बात थी कि यथार्थ में अपनी ओर से, नीरज पर स्वर्ण पदक की रिआयत कर देने पर भी, मेरे स्वप्न में नीरज मुझे स्वर्ण पदक जीतता दिखाई दिया था। शायद आधे घंटे से कम ही, मेरी आँखें लगी रह पाईं थीं। घर के कामों एवं नीरज के फाइनल की चिंता से मैं उठ गई थी। देखा तो, नीरज के पापा पहले ही शयनकक्ष से जा चुके थे। 

रसोई में चायपान की तैयारी, नीरज की ताई और चाची कर रहीं थीं। मैं भी उनका साथ देने लगी थी। और दिनों से अलग, आज हम सब चुप चुप ही थे। सबके मन पर आज की होनी-अनहोनी के विचार चल रहे थे। लगभग एक घंटे तक चलने वाले फाइनल को देखते हुए खाने, पीने के लिए सामग्री उपलब्ध रहे इस हेतु, चाय, लस्सी, छाछ सहित इनके साथ लिए जाने वाली पर्याप्त भोज्य सामग्री हम सबने मिलकर बना ली थी। हम तीनों ही, सब सामग्रियां ट्रे एवं प्लेट्स में लिए, घर के बड़े हाल में पहुँची तब तक घर का हर छोटा बड़ा सदस्य, टीवी के सामने अपना स्थान ग्रहण कर चुका था। हमने वहाँ टेबल पर सभी पेय सहित सामग्रियाँ रख दीं थीं। 

आज कोई हमसे आशा नहीं कर रहा था कि हम ही सब उन्हें परोंसे। हमने टीवी के सामने अपने आसन ग्रहण किए थे। सब बड़े-बच्चे अपने अपने पसंद की सामग्री-पेय स्वयं लेने लगे थे। मेरी दृष्टि टीवी स्क्रीन पर गई तब, बजरंग (पुनिया) काँस्य पदक के लिए कुश्ती लड़ रहे थे। तुरंत ही नीरज के प्रदर्शन को लेकर अपनी चिंता भूल मैं, कुश्ती देखने लगी थी। बजरंग, एकतरफा जीतते दिख रहा था। यह दृश्य मुझे आनंदित कर रहा था। अंततः बजरंग जीत गए थे। हम सब के मनोमस्तिष्क पर प्रसन्नता छा गई थी। 

किसी को किसी बात का कोई विचार नहीं रह गया था। व्यग्रता और उत्साह दोनों के रहते, चाय के बाद तुरन्त लस्सी, या छाछ के बाद तुरन्त ही चाय पीना, ठीक नहीं होता है, आज हम सब मानो यह विवेक खोए हुए थे। 

मैं भी भूली हुई थी कि अभी ही तो मैंने चाय पी है। मैंने लस्सी का बड़ा गिलास उठा लिया था। उसे ओंठो तक पहुंचाया ही था कि टीवी स्क्रीन पर, स्टेडियम में नीरज प्रविष्ट होते दिखाई दिया था। यह देखते ही मेरा मन किया था कि जैसे में उसके बालपने में, उसे गोद में उठाया करती थी वैसे ही, अभी नीरज को अपनी गोद में उठा लूँ। फिर यथार्थ की सोचते हुए मैं निराश हुई थी। यह अब संभव कैसे हो सकता था। 

अभी तो वह दूर टोक्यो में था और यदि मेरा बेटा पास भी होता तो अब तो वह मेरे से लंबा और इतना बलिष्ठ हो गया है कि उल्टा वह ही मुझे गोद में उठा, गोल गोल घुमा देता है। और जब मुझे वापस खड़ा करता है तो मुझे चक्कर आता है। 

एक के पीछे एक कुल 12 खिलाड़ी स्टेडियम में आए थे। जिन्हें देख मुझ पर फिर भय हावी हो गया था। इनमें अधिकतर तो मेरे बेटे से बलिष्ठ एवं बड़े कद के थे। मुझे लग रहा था कि इनमें तो शक्ति, नीरज से अधिक दिखाई पड़ रही है। कैसे मेरा नीरज, इनसे अधिक दूर भाला फेंक पाएगा। मुझे लग रहा था, मेरा देखा स्वप्न झूठा है। मेरी अभिलाषाएं मात्र कल्पना रह जाने वाली हैं, यह यथार्थ नहीं हो पाएगीं। नीरज स्वर्ण तो छोड़ो, कांस्य भी जीत नहीं पाएगा। मेरे मन में नीरज को लेकर करुणा उभरी थी। मैं भूल रही थी कि भले ही वे ओलंपिक नहीं थे, मगर पिछले पाँच वर्षों में नीरज विभिन्न प्रतियोगिताओं से एकाधिक गोल्ड मेडल ही तो लेकर लौटता आया था। जिसे लाकर वह सबमें पहले, मेरे गले में ही डाला करता था। 

मेरे भय-अभय के बीच प्रतियोगिता आरंभ हुई थी। पहले ही प्रयास में नीरज ने 87 मीटर से अधिक दूर भाला फेंक दिया था। मेरे अतिरिक्त सब अपने स्थान पर खड़े हो कूदने लगे थे। लगभग हर कोई कह रहा था, इससे पार कोई और नहीं फेंक पाएगा। सोना पक्का कर लिया नीरज ने तो। मेरा मन इन सबकी वाणी पर विश्वास करने का हो रहा था। मगर मैं समझ पा रही थी कि हर माँ का हृदय, प्रसन्नता की ऐसी घड़ियों में भी कितना काँपता रहता है। 

सब अपने अपने में उठ रही प्रसन्नता में अभिभूत थे। किसी का ध्यान मेरी ओर नहीं था। मैं जड़ हुई अपनी कुर्सी पर चिपकी बैठी थी। मेरी निगाहें टीवी पर निरंतर जमी हुई थी। मैं हर प्रतियोगी के फेंकने की दूरी को देख रही थी। जब तक उनका फेंका भाला हवा में रहता था मेरा हृदय बैठा जाता था यह सोच कर कि उनका फेंका भाला धरती पर नीरज से अधिक दूर तो नहीं जा बैठेगा। पहला चक्र पूरा हुआ था। किसी भी अन्य का फेंका भाला, नीरज की तरह 85 मीटर की वृताकार रेखा के पार नहीं जा पाया था। 

तब दूसरा चक्र आरंभ हुआ था। नीरज के दूसरे प्रयास में भाला पहले से भी अधिक दूर 87.58 दूर जाकर धरती में गड़ गया था। मेरा हृदय बल्लियों उछलने लगा था। सब नाचने लगे थे। तभी बेटियाँ, संगीता, सविता और नैंसी मेरे पास आईं थीं। संगीता ने कहा - मम्मी, अब तो नच लो, अब निज्जू भैया का तो स्वर्ण पदक पक्का हो गया है।

मेरा मन नहीं किया था। स्वर्ण की आशा में नृत्य कर लेने पर यदि स्वर्ण नहीं आया तो कितनी ग्लानि होगी, मुझे। मैंने कहा - संगी, अभी नहीं, मुझे टीवी देखते रहने दे। 

मेरी दृष्टि टीवी स्क्रीन पर गड़ी हुई थी। अब मैदान में 85 और 90 मीटर की रेखाओं के बीच में एक और रेखा दिखने लगी थी। कोई कह रहा था यह, नीरज की 87.58 मीटर की रेखा है। यह जान लेने के बाद फेंके जा रहे हर भाले को मेरी दृष्टि, इसके पहले ही रोक देने को व्यग्र हो रही थी। अब अपने अगले प्रयासों में निज्जू ही इससे ऊपर भाला फेंके, मैं मन ही मन यही प्रार्थना कर रही थी। निज्जू के अगले प्रयास फ़ाउल रहे थे। इस बीच चेक गणराज्य के एक खिलाडी ने 86.44 मीटर फेंक दिया था। इस चेक खिलाड़ी के साथ ही, मुझे जर्मनी के खिलाड़ी के थ्रो से भय लग रहा था। जिसका व्यक्तिगत रिकॉर्ड 90 से अधिक मीटर का था। पाँचवे चक्र में जब निज्जू भाला फेंकने दौड़ पड़ा था, मैं चाह रही थी मेरी दृष्टि उसे सहारा देकर 90 से अधिक दूर तक ले जा पाए ताकि अंतिम चक्र में कोई इस बड़ी चुनौती को पार कर ही न पाए। मगर ऐसा नहीं हुआ था। मैं मन ही मन खीझ रही थी। मैं भयाक्रांत सी हुई बैठी थी। अभी पूरा एक चक्र बाकी था।

आज मेरा भगवान, हमारे साथ था। छटवें चक्र में सब भाला फेंक चुके तब भी कोई मेरे बेटे के प्रदर्शन से खिचंवा दी गई रेखा को पार नहीं कर सका था। भारत को गोल्ड मिल गया था। 

यहाँ सब डांस करने लगे थे। वहाँ अंत में निज्जू की बारी थी। कोई कह रहा था - नीरज पर अब कोई दवाब नहीं है अब इस प्रयास में इसे नया ओलंपिक रिकॉर्ड बना देना चाहिए। इसे सुनकर मैं चिढ़ रही थी। मैं सोच रही थी कि इन्हें दया नहीं आती बिल्कुल ही, मेरा निज्जू कितना थक चुका होगा। निज्जू का अंतिम प्रयास 84 मीटर से कुछ अधिक पर रह गया था। तब भी मुझे संतोष हुआ था। मैं सोच रही थी कि आज तक के हुए ओलंपिक में कुल नौ स्वर्ण पदक थे। मेरे 23 साल के बेटे ने आज दसवां जीत लिया, क्या यह ही कम बड़ी उपलब्धि है। 

अब घर में और घर के बाहर शोर बढ़ गया था। मैं टीवी पर समाचार देखने लगी थी। समाचार चैनल पर सुनील गावस्कर, नीरज की इस सफलता पर प्रसन्नता अतिरेक में नाचते दिखाए जा रहे थे। नीरज के पापा कह रहे थे जिन सुनील गावस्कर के शतकों पर पूरा भारत खुशी से नाचा करता था। आज वे गावस्कर, नीरज के स्वर्ण पदक पर नच रहे हैं। 

इनके कहने से अब मुझे समझ आ रहा था कि नीरज की यह उपलब्धि कितनी बड़ी है। मेरे बेटे के कारनामे से लगता है भारत का हर नागरिक, मुझसे भी अधिक आनंद में डूब गया था। अब मुझे एक ही बात की प्रतीक्षा रह गई थी कि निज्जू वापस जल्दी लौट कर आ जाए। 

तभी कोई भीतर कहते आया था कि समाचार चैनल के रिपोर्टर्स, इस अवसर पर मेरा इंटरव्यू लेना चाहते हैं। यह सुनकर मैं घबड़ा गई थी। मैंने कहा - 

ना बाबा, मुझे नहीं आता ऐसा बोलना जो देश में सुने जाने योग्य हो। 

नीरज के पापा ने कहा - ये रिपोर्टर्स हमारी ना को आज मानने वाले नहीं हैं। 

मैंने कहा - 

मगर मैं क्या कहूँगी, ना जाने वे क्या पूछेंगे। मुझे उनके उत्तर सूझ भी सकेंगे? देश में देखने वाले लोग क्या सोचेंगे, मैं दिखने योग्य, सुनने योग्य कुछ न कर पाऊंगी।   

इन्होंने समझाते हुए मुझसे कहा - जो सूझ पाए वह, कम से कम शब्दों में कह देना। बनावटी कुछ नहीं, सब सच कह देना। नीरज ने अपने कारनामे से सरोज, तुम्हारी विशेष पहचान बना दी है। अब इसमें, ना तो तुम्हें अपने पर कोई आडंबर ओढ़ने की आवश्यकता है और ना ही कोई बड़े शब्द कहने की जरूरत। समाचार चैनल वाले और देश, इस अवसर पर नीरज की माँ कौन है, आज क्या कुछ कहतीं हैं, इतना ही देख-सुनकर अभिभूत हो जाएंगे। आज ख़ुशी के दिन रिपोर्टर्स को नहीं कहना उचित नहीं है। 

मैंने हार जाते से हुए कहा - घर में आप हैं, इतने सब और हैं। उनका इंटरव्यू करा दो, ये मेरे से ही क्यों बात करना चाहते हैं। 

नीरज के पापा ने समझाया - ये तो गली, गाँव में लोगों से पूछ रहे हैं। हमारे घर से भी एक एक से बात करेंगें। तुम तो नीरज की मम्मी हो तुमसे कुछ सुने बिना उनके प्रसारण अधूरे रहने वाले हैं। तुम समझो ना, हमारे नीरज की हर छोटी बड़ी जानकारी आज देश जानना चाहता है। वे दिखलाना चाहते हैं कैसे कोई बालक, ‘नीरज चोपड़ा’ बनता है। 

मैंने प्रतिरोध करना त्यागा था। मैं इंटरव्यू देने रिपोर्टर्स के सामने आ गई थी। 

नीरज के बचपन से संबंधित सब जानकारी अपनी सामान्य बोलचाल से भी अधिक हिंदी के प्रयोग करते हुए मैंने, उन्हें बता दी थी। 

वे पूछ रहे थे - आप नीरज के गोल्ड मेडल जीतने पर कैसा अनुभव रही हैं?

मैं सोचने लगी, क्या भाषा में कोई शब्द है जिससे में अपनी अभी की अनुभूतियाँ व्यक्त कर पाऊं। मुझे लग रहा था मैं, भाषा में इतनी पारंगत नहीं कि अपनी अनुभूतियों को सही शब्द दे पाऊं। अंततः इतना कह दिया - जी, बहुत ख़ुशी हो रही है। 

अब रिपोर्टर पूछ रही थी - आप, बेटे नीरज के लौटने पर उसे क्या बनाकर खिलाएंगी? क्या पसंद करते हैं, नीरज खाने में?

एक ही पल में इस पर मेरे मन में कई विचार आए थे, दुनिया भर में एक से एक भोज्य व्यंजन चल रहे हैं अगर में शुद्ध देशी चूरमा, जो नीरज को पसंद है इसका उल्लेख करुं तो लोग हँसेंगे तो नहीं! फिर मुझे नीरज के पापा की कही बात स्मरण आ गई कि बिना लागलपेट के जो सच है वही कह देना। मैंने निर्भीक होकर कह दिया - जी, बेटे को चूरमा बहुत प्रिय है। 

नीरज ने तो आज भारत के लिए एक नया इतिहास रचा था। मेरी कही यह बात एक रहस्य के उद्घाटन होने की तरह, रिपोर्टर ने बहुत पसंद की थी। 

अब रिपोर्टर ने प्रश्न किया था - गोल्डन बॉय नीरज की माँ होने पर आप कैसा अनुभव कर रही हैं?

मेरे मन में विचार आया कि उसे हरियाणा का वीर बेटा कहूँ। फिर इस विचार में संकीर्णता का अनुभव करते हुए मैंने प्रत्यक्ष में कहा - जी, नीरज तो देश का बेटा है। उसे लेकर आप सहित सब जैसा गौरव अनुभव कर रहे हैं। ऐसा ही गौरव मैं, उसकी माँ भी कर रही हूँ। 

एक रिपोर्टर के द्वारा इंटरव्यू पूरा किया गया तो, दूसरे आ गए। अब तो मेरा संकोच चला गया था। बाद के इंटरव्यू में तो नीरज की माँ की पहचान के साथ, कैमरों के सामने आना मुझे आनंदित करने लगा था। ऐसा लग रहा था देश के सारे के सारे चैनल के रिपोर्टर्स हमारे घर पर थे। वे घर का जो सदस्य उन्हें मिल जाता उससे पूछने और टीवी पर दिखाने लग जा रहे थे। 

अपनी अपनी चैनल के व्यावसायिक हित की उनकी चिंता, इस गौरवशाली क्षणों में भी छुपाए नहीं छुप रही थी। उनमें होड़ लगी हुई थी कि वे हममें से किसी से भी पता करके, नीरज के बारे में कोई अनोखी और अब तक अज्ञात बात दर्शकों के सामने रख दें। 

रात बाद में, मैं टीवी पर अपने इंटरव्यू देख रही थी। उन्हें देख मुझे प्रसन्नता हो रही थी। मैं ग्रामीण परिवेश की सीधी सादी महिला हूँ। इससे गर्व प्रदान करने वाले इन क्षणों में भी, मेरी भाव भंगिमाओं में देखे जाने में अखरने वाला गर्व अतिरेक कहीं नहीं था। कहीं पर भी मेरे मुख पर अभिमान या दंभ नहीं झलक रहा था। 

बाद में अपने शयनकक्ष में नीरज के पापा और मैं फिर गले लग कर रो रहे थे। कोई देखता तो उसे दोपहर और अब के इस दृश्य में अंतर नहीं दिखता। यह सिर्फ हम जानते थे कि हमारा दोपहर में रोना, अत्यंत मानसिक दवाब के कारण था और अब हमारे नेत्र, आनंद अतिरेक में भीग रहे थे। 

अगले दिन हमने टोक्यो से दी गई नीरज की प्रतिक्रिया को सुना देखा था। नीरज अपना पदक, मिल्खा सिंह जी, पीटी उषा जी आदि के नामों के उल्लेख सहित उनके देखे सपनों को समर्पित कर रहा था। मैं सोच रही थी कि 60 वर्ष पहले किये गए मिल्खा सिंह जी के कारनामे का स्मरण, नीरज को आज आ रहा है। क्या मेरे नीरज का अभी का कारनामा ऐसे ही वर्षों तक भारत स्मरण रखेगा? इस विचार से मैं गौरवान्वित अनुभव कर रही थी कि नीरज सहित हमने उस विलक्षण पल को अपने जीवन में जिया है जिसकी स्मृति दशकों तक हमारे पुनः भव्य हो रहे भारत में ताजी रह पाने वाली है। 

फिर टोक्यो ओलंपिक का समापन हुआ था। आज 9 अगस्त को नीरज सहित भारतीय दल लौट आया था। हम सब गाँव से लेकर राजधानी दिल्ली तक, देश में मन रही खुशियों के साक्षी हो रहे थे। 

अंततः कई मंचों और स्थलों पर सम्मानित होने के बाद मेरा निज्जू घर आया था। उसने गोल्ड मेडल मेरे गले में पहनाया था। इसके पहनते ही मुझे, आज तक धारण किए सभी आभूषण इसके सामने फीके लग रहे थे। मैंने पूछा - निज्जू, मैंने, तुम्हें चूरमा पसंद है अपने इंटरव्यू में इसका उल्लेख किया है। तुम्हें, मेरे इस देहातीपने पर चिढ़ तो नहीं हो रही है?

नीरज ने मेरे गले से लग कर उत्तर दिया - मम्मी, यह कहने में अगर देहातीपना भी है तो बुरा क्या है। तुमने अपने सच्ची बात से चूरमा को इतनी चर्चा प्रदान कर दी है कि मुझे डर है कि कोई अंतराष्ट्रीय कंपनी, चूरमा को पेटेंट करवा कर चॉकलेट आदि भोज्य पदार्थ की तरह बंद डिब्बों और आकर्षक पैकेजिंग में बेचना न आरंभ कर दे। 

नीरज की बात पर घर के सब सदस्य खिलखिला कर हँसने लगे थे। तब मैं लजा रही थी। 

पिछले महीनों से ओलंपिक में नीरज के प्रदर्शन को लेकर, फिर ओलम्पिक होने के कारण मेरे मन में रहती आई चिंताओं एवं तनावों से, अब जाकर मुझे मुक्ति मिल पाई थी। गाँव और बाहर से, बधाइयाँ देने के लिए मिलने आने वालों का जो ताँता लगा था, अब वह कम पड़ने लगा था। जीवन पुनः शांत-सहज चलने लगा तो एक दोपहर बिस्तर पर अकेले लेटे हुए मैं मन में उमड़ते विचारों में खोई हुई थी। मुझे विचार आया कि इन मीडिया वालों ने मेरे बहुत इंटरव्यू लिए लेकिन उनके द्वारा मुझसे जो प्रश्न किए जाने थे वे किए ही नहीं। मैं सोच रही थी कि यदि वे मुझसे पूछते -

नीरज जैसे बेटे की माँ की हैसियत से आप भारतीयों को क्या संदेश देना चाहेंगी?

तो मैं एक दार्शनिक की तरह विचार करते हुए कहती कि -

देखो मेरे भारतवासियों, छोरियों को गर्भ में ही नहीं मार डाला करो। उन्हें भी जन्म लेकर आदर सहित जीवन जीने दो। अन्यथा मेरे नीरज जैसे योग्य और समर्थ बेटे, विदेशी छोरियों से ब्याह करने लग जाएंगे। 

रिपोर्टर फिर पूछती - आप, और भी कोई संदेश देना चाहेंगी? 

इस प्रश्न का उत्तर, मैं अपना ज्ञान बघारते हुए देती और कहती - 

ओलम्पिक में हर राउंड का परिणाम डिस्प्ले करने में, मेरे निज्जू को लीडर दिखाया जा रहा था। वहाँ लीडर का अर्थ था, नीरज के इस सेट लक्ष्य के पार पाने का प्रयास अन्य प्रतिद्वंदियों को करना है। ऐसे ही मेरा बेटा, एक बहुत भला लड़का है। वह कोई नशा नहीं करता, कोई ड्रग्स नहीं लेता है। साथ ही वह लड़कियों और युवतियों से शालीनता से पेश आता है। ऐसे मेरे लीडर बेटे के सेट आदर्श को, देश के सभी बेटे पार करने की कोशिश करें। मैं चाहती हूँ कि भारत के हर बेटे नीरज से भी अच्छे बेटे होकर दिखलाएं ...  

(रचना मेरी मनगढ़ंत है। इसे प्रभावी बनाने के विचार से इसमें मैंने, चर्चित और विख्यात वास्तविक व्यक्तियों के नाम का उल्लेख किया है। किन्हीं सुप्रसिद्ध ऐसे व्यक्ति को इसमें अपने नाम का लिखा जाना पसंद नहीं आए तो उनसे मैं क्षमाप्रार्थी हूँ) 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

11-08-2021    

No comments:

Post a Comment