Tuesday, August 31, 2021

मैं व्यथित हूँ (4)….

 मैं व्यथित हूँ (4)…. 

मेरे पड़ोस के इस मुस्लिम परिवार से निकट होने के प्रयोग में, मेरा स्वार्थ क्या था उसे यहाँ स्पष्ट करना आवश्यक है। दरअसल मैं 50 वर्ष का हुआ, तब मेरे विचारों एवं कर्मों में एक नई भावना जुड़ने लगी थी। इस मुकाम पर मेरे बच्चे समझदार हो चुके थे। इससे मेरे सीधे उत्तरदायित्व मुझे पूर्ण होते प्रतीत होने लगे थे। तब स्वयं अपने उत्थान को लेकर मेरी महत्वकांक्षाएं घटने लगीं थीं। इस उल्लेख का अर्थ कि मैं महत्वाकांक्षी कम होने लगा था, लेना त्रुटिपूर्ण होगा। 

वास्तव में मैं, पहले से अधिक महत्वाकांक्षी होते जा रहा था। तब मैं अपने जीवन के बाद की सोचने लगा था। मुझे लगता था, किसी दिन जब मैं नहीं रहूँगा, तब भी मेरे बच्चे और फिर आगामी पीढ़ियाँ, भारतमाता की ही गोद में पल्लवित हुआ करेंगी। मैं सोचता था, इन आगामी पीढ़ियों का सुखद जीवन तभी सुनिश्चित हो सकता है जब हमारा समाज वातावरण (परिवेश) हिंसा की आशंकाओं से मुक्त रहे, समाज में बेटी-बेटों दोनों को समान अवसर सुलभ रहें तथा समाज सौहार्द की परंपरा व्यापक हो। 

किसी दिन मुझे यह भी विचार आया था कि हम अपनी चाहरदीवारियों को मजबूत करलें और अपने वैभव में वृद्धि कर लें तब भी जीवन से हमें मिल सकने वाला अधिकतम सुख, हम नहीं उठा पाते हैं अगर हमारे घर की चाहरदीवारियों के बाहर हिंसा, वैमनस्य का चलन हो एवं वंचित लोग, बहुसंख्यक हों। 

अब मेरा ध्येय अपने परिवार एवं बच्चों के हितों से भी आगे, समाज हितों के लिए जीवन समर्पित करने का होने लगा था। तब समाज हित के लिए मेरे पास प्रदान करने के लिए कुछ है भी या नहीं, यह यक्ष प्रश्न, समक्ष उपस्थित हुआ था। निश्चित ही धन इतना नहीं था कि उसके माध्यम से मैं वंचितों की सहायता करता। तब एक ही बात बची कि ‘जीवन दर्शन’ की अपनी समझ मैं, अपनी लेखनी के माध्यम से स्पष्ट करूं और मैं, इससे ही समाज में चलते विचारों को सही दिशा देने के यत्न करूँ। 

मैं यह सोचता हूँ मानसिक सुख, धन कम होने पर भी मिलता है यदि हमारी वैचारिक दिशा सही हो। मैं यह भी मानता हूँ कि किसी की वैचारिकता सही करने में साहित्य बड़ा निमित्त होता है।    

यह तथ्य भी मेरे अनुभव में था कि हमारे इस समाज में मुस्लिम समुदाय भी गुजर बसर करता है। जिसमें आधुनिक शिक्षा और नई अच्छी और वैश्विक मानव समाज परंपरा की ग्राह्यता नहीं है। मेरे में महत्वकांक्षा का स्वरूप तो बढ़ता जा रहा था। इसे मूर्त रूप देने की भावना थी मगर इसकी कर्म परिणिती का अभाव दिखाई देता था। 

ऐसे में सन 2017 में शमीम भाई के परिवार से मेरी निकटता के अवसर आए थे। अल्पसंख्यक कहलाते हुए भी हमारे समाज में, इस्लाम अनुयायियों की बड़ी संख्या है यह सर्वविदित तथ्य है। भारत में आगामी सुखद समाज की मेरी कल्पनाओं में, मुस्लिम बच्चों को भी सर्वहितकारी दृष्टि मिलना आवश्यक लगता था। मैंने शमीम भाई के बच्चों में यह दृष्टि आए इस बारे में सोचना और कोशिश करना शुरू किया था। 

एक दिन जब नफीसा की छोटी बहन (मुन्नी) स्कूल बस के इंतजार में खड़ी थी। तब प्रातः कालीन भ्रमण को निकलते हुए, मैंने उससे जानकारी ली थी। वह कान्वेंट (मदरसे में नहीं) में कक्षा 9 में पढ़ रही थी। कान्वेंट में इसका पढ़ना, इस परिवार का कट्टरपंथ से मुक्त होकर प्रगतिशीलता का जिज्ञासु होना दर्शाता था। 

उन दिनों मैं अर्ली रिटायरमेंट के बारे में सोच रहा था। इसे लेकर मेरे दिमाग में यह प्रश्न भी रहता था कि - मैं सेवानिवृत्त होने के बाद, क्या किया करूंगा?

इस मुस्लिम परिवार से घनिष्टता के प्रयोग एवं सेवानिवृत्ति के बाद की दिनचर्या इन दो बातों को दृष्टिगत रखते हुए, ऐसी ही एक सुबह मुन्नी से मैंने, मेरे द्वारा उसे मैथ्स में गाइडेंस की इच्छा बताई थी। उसने इसकी जानकारी अपने घर में दी थी। फिर उनकी अनुमति से वह, मेरे अवकाश वाले दिनों में, मुझसे गणित पढ़ने आने लगी थी। उसे पढ़ाने के पहले, मुझे पढ़ना भी होता था। अपने उद्देश्य को ध्यान में रख सरल विकल्प, ‘अवकाश में आराम और मनोरंजन’ की जगह तब मैं, इस पर समय दे रहा था। 

अब शमीम भाई से भी, मेरी राह चलते कभी कभी कुछ बातें हो जाती थीं। इन बातों में मुझे ज्ञात हुआ कि वे डायबिटिक हैं। मेरा विश्वास ऐलोपैथी दवाएं अधिक लेने की अपेक्षा स्वास्थ्यबर्द्धक दिनचर्या और खानपान पर अधिक है। अपनी इस धारणा के अधीन मैंने, उन्हें नियमित प्रातःकालीन भ्रमण करने को कहा था। 

तब शमीम भाई कभी कभी प्रातःकालीन भ्रमण पर आते जाते, दिखाई पड़ने लगे थे। यह दुर्भाग्य था कि वे नियमित भ्रमण नहीं कर पाते थे। मुझे समझ आ रहा था कि बच्चों के लालन पालन एवं उनके लिए जिम्मेदारी के निर्वहन में उन्हें वक़्त, अपने व्यवसाय पर अधिक देना होता था। मुन्नी को पढ़ाने और इन्हीं कुछ बातों से, मेरी बहुत तो नहीं मगर कुछ घनिष्टता उनसे हो गई थी। 

तब हमारी सोसाइटी में एक स्ट्रे डॉग (आवारा कुत्ता) कहीं से भटकता हुआ आया था। उसे जिन घरों से खाना मिलता वह, उनके गेट पर दिन रात बैठा रहता था। वह इन घरों के अतिरिक्त अन्य निवासरत लोगों एवं आने जाने वालों पर खतरा हो गया था। 10-12 लोगों को उसने काटा भी था। शिकायत पर नगर निगम कर्मियों ने उसे 2 बार पकड़ कर शहर से दूर छोड़ भी दिया था। मगर दोनों ही बार कुछ ही दिनों में वह वापस आ गया था। लोगों पर उसके गुर्राने और काटने का सिलसिला जारी रहा था। अतः जब फिर शिकायत की गई तो इस बार कुछ लोगों के आपत्ति करने के बावजूद भी, निगमकर्मियों ने पहले उसे बुरी तरह मारा था। फिर उसे दूर मैदान में फेंक दिया था। 

शमीम भाई के घर से भी उसे खाने पीने को मिलता था। वह उनके गेट पर भी बैठा करता था। इससे उन्हें ‘भूरा’ (कुत्ते) से प्रेम हो गया था। शमीम भाई, उसी दिन लगभग मर रहे भूरा को, उठा ले आए थे। उन्होंने अपने गेट पर बोरा बिछा कर, (बेसुध) उसे वहाँ लिटा दिया था। उनकी देखरेख एवं प्रेम ने मर रहे, भूरा में नई जान डाल दी थी। भूरा के घाव, सात दिनों में बहुत भर गए थे। उसमें उसकी आक्रामक प्रवृत्ति पुनः पनपने लगी थी। हालांकि बाद में भूरा, खुफिया तौर पर उठवा लिया गया था और वह फिर वापस नहीं लौटा था। 

इस पूरे घटनाक्रम में, मैं शमीम भाई के व्यवहार से चकित था। मैंने उनसे नहीं कहा लेकिन खुद सोचता था कि शमीम भाई के मूक प्राणियों को लेकर, दो बिलकुल ही विपरीत भाव एवं कर्म थे। एक बकरे को तो वे हलाल कर सकते थे मगर मर रहे एक कुत्ते को पुनः जिला देने वाला प्यार भी वे दे सकते थे। 

अपने स्वभाव अनुसार मैं उन्हें इज्जत देते हुए ‘सर’ कहता था। वे मुझसे कम पढ़े लिखे थे और वस्त्रों की दुकान करते थे। सर, का संबोधन शायद उनके लिए नया था। मुझे पता नहीं उनमें कोई (इस्लाम अनुयायी होने से, तथाकथित काफिर (मुझ) से श्रेष्ठ होने का) अहं भाव था या वे, मुझे अपनी तुलना में कुछ अधिक मानते थे। उनका संकोच बना हुआ था इससे, हममें संबंध सिर्फ राह चलते के रहे थे। परस्पर एक दूसरे के घर आना जाना नहीं होता था। 

फिर एक दिन पढ़ने के समय मुन्नी, अपनी अप्पी के विवाह का कार्ड लेकर आई थी। उनके संकोच क्या थे मुझे पता नहीं, मगर इस विवाह का आमंत्रण मुझे शमीम भाई के द्वारा अपेक्षित था, जो बच्ची के माध्यम से मिला था।  

मेरा प्रयोग जारी था। मैंने अपनी तरफ से जाकर, अप्पी के विवाह का शगुन (भेंट) प्रदान किया था। और उनके द्वारा ना ना करने पर भी विवाह के लिए जाते हुए देर रात, उनके परिवार और रिश्तेदारों में से कुछ को अपनी कार से स्टेशन छोड़ा था। 

फिर वह समय आया जब शमीम भाई का पड़ोस, हमें छोड़ना था। अगले किराए के घर की तलाश में शमीम भाई ने बहुत सहायता की थी। वे चाहते थे कि कहीं करीब ही हमें ठीकठाक घर मिल जाए। उनकी भावना के विपरीत 8 किमी दूर हमें घर मिल पाया था। अतः हममें आए दिन हो सकने वाली बातों के अवसर खत्म हो गए थे। 

इसके एक वर्ष बाद, मैंने ऐच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की थी। जब हमारा, जबलपुर छूट रहा था तब उनसे मुलाकात में उन्होंने, मेरी कार के बारे में पूछा था। अपनी पुरानी कार, हैदराबाद लाना उपयुक्त नहीं था। अतः कार मैंने पहले ही अपनी विभागीय टीम में एक मित्र को देना तय कर लिया था। यह मैंने शमीम भाई को बताया था। तब मैंने उनकी उदासी देखी थी। उन्होंने कहा - आपकी कार, हम रख सकते थे।

यह उनसे रही अंतिम मुलाकात में हुई बात थी। अभी एक वर्ष ही बीता और वे 26 अगस्त को नहीं रहे। उनका इतनी जल्दी चले जाना मुझे अत्यंत दुखी कर गया, मेरे बोझिल एवं व्यथित हृदय में उनके पीछे यह विचार रह गया कि -

काश! मेरी वह कार, मैं उन्हें ही दे आया होता .... 

800 किमी दूर, उनके न रहने का दुखद समाचार मुझे बताया गया था। मुझे इससे प्रतीत होता है कि मेरा प्रयोग कदाचित सफल रहा था। फिर भी नफीसा के भविष्य को लेकर मेरे हृदय में संशय और व्यथा है। शमीम भाई से किसी दिन, मैंने कहा था कि -

आप, नफीसा को मूक बधिरों के लिए समाचार वाचक बनाने की क्यों नहीं सोचते!    

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

31-08-2021

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