याद है मुझे, तब मैं शायद कक्षा ग्यारह में पढ़ती थी। समाचार चैनलों, समाचार पत्रों एवं नेताओं के नारेबाजी से उस समय, मुझे समझ आया था कि देश के विकास एवं गुणवत्ता पूर्ण निर्माण एवं दोषरहित सेवाओं के मार्ग में, भ्रष्टाचार बड़ा अड़ंगा बना हुआ है। मैंने स्कूल के वार्षिक साँस्कृतिक कार्यक्रम में तब, इस विषय पर आधारित, नाटिका का मंचन, प्रमुख भूमिका लेकर किया था। जिसमें आव्हान- भ्रष्टाचार न करते हुए, देश और समाज निर्माण के लिए उत्कृष्ट सेवायें देना था। मुझे स्मरण है, मैंने उसमें दो संवाद, अपने ओजस्वी स्वर में कहे थे - 1. "बहनों, मेरे देश को बनाने, कोई अमेरिकी, रुसी या पाकिस्तानी नहीं आएगा। मेरे देश को बनाने, मेरे देशवासियों को ही स्वयं योगदान करने होंगे। " तथा 2. "बहनों, मुझे दुःख होता है, देखकर कि, हम कोमल हृदया नारी भी व्यावसायिक होते ही भ्रष्टाचार में संलिप्तता से नहीं बच पाती हैं। "
मेरे इन संवादों पर दर्शकों में, मैंने खासी तालियाँ बटोरी थी। शायद ऐसे आदर्श विचार आयुजनित होते हैं। जब हमारी आयु छोटी होती है, हमारे चिंतन में छल-कपट का अपमिश्रण थोड़ा ही होता है, क्यूँकि हम निष्कपट हृदय के साथ जन्मते हैं। जीवन के साथ शनैः शनैः हममें कलुषितता मिश्रण होता जाता है। स्कूल उपरांत मैंने बिट्स पिलानी में प्रवेश लिया था। कॉलेज में पढ़ते हुए मुझे यह अनुभव हुआ था कि मेरे पापा भी थोड़े भ्रष्टाचार में संलिप्त रहे थे। उन्होंने कभी कहा था कि वेतन से, सिर्फ ठीक ठीक गुजर हो सकती है। बिना कमीशन लिए, भोग-उपभोग के सुविधा साधन नहीं जुटाये जा सकते हैं। बी. टेक. (सी एस) की उपाधि पूरी होते होते, मेरा, 'प्रौद्योगिकी की टॉप रैंक 1 बहुराष्ट्रीय कंपनी' में कैंपस सिलेक्शन हो गया था। आरंभिक वर्षों में मैंने टेक्नीकल सेक्शन में सेवायें दीं थीं। इस बीच मेरा विवाह भी हो गया था। तीन वर्ष बाद, मुझे प्रोजेक्ट मैनेजर की प्रोन्नति देते हुए एक लगभग सौ करोड़ के कॉन्ट्रेक्ट के कार्य का दायित्व दिया गया था। मेरी एवं मेरे पति की आय इतनी थी कि किसी अनैतिक तरीके से उपार्जित आय की आवश्यकता नहीं थी। नई जिम्मेदारी में मगर मुझे, हमारी कंपनी को यह कॉन्ट्रेक्ट अवार्ड करने वाले लोगों में कमीशन पहुँचाने का कार्य करना था। मै दुविधा में थी, कैसे यह दुष्कर कार्य को पूरा करूँ। अभय (मेरे पति) ने इस पर मुझे समझाया था- यह भ्रष्टाचार, आप अपने लिए नहीं कर रहीं हैं। पशोपेश में ही इस काम पर निकली थी। दो अथॉरिटी को/तक मैंने निर्धारित राशि प्रदान कर दी थी। तब, बारी संबंधित विभाग के मुख्य अभियंता को देने की आई थी। मैं बैग लेकर, उनके कार्यालय में पहुँची थी। वे मेरे पापा के उम्र के व्यक्ति थे, सादे से वस्त्रों में साधारण दिखाई पड़ने वाले उनके मुख पर अनूठी आभा दर्शित थी। परिचय और थोड़ी औपचारिक बातों के बाद, मैंने सकुचाते हुए साथ लाया बैग, आगे किया, कहा था- सर, हमारी ओर से यह भेंट लीजिये। उन्होंने गर्दन हिला नकारते हुए बोला था- मुझे, 'यह नहीं कुछ और चाहिए है', आप दे सकेंगी? मैं आशंकित हुई, मालूम नहीं, ये क्या माँग रखें, फिर भी प्रकट में बोली, सर बताइये, क्या देना होगा?, हमें! उन्होंने तब कहा था- आप मुझे यह सुनिश्चित कीजिये कि इस कॉन्ट्रेक्ट के अधीन लगने वाले उपकरण, सॉफ्टवेयर एवं सर्विसेज उच्चतम गुणवत्ता की रहें। यह सुन मैं चकित थी, मुझे चोरी करते पकड़ा जाने जैसा ग्लानिबोध हुआ था। मैंने शर्मीले स्वर में कहा था, सर आप इस हेतु आश्वस्त रहें। उन्होंने, धन्यवाद कहा था। फिर मैंने विदा ली थी। उस शाम, मेरी खेद खिन्नता, अभय ने यह कह कर दूर की थी। आप, उन महोदय के एक्सपेक्टेशन (अपेक्षा) अनुरूप कार्य निष्पादन करवा दीजिये। मुझे, स्कूल समय का मंचन याद आया था। मैंने स्वयं को दृढ़ प्रतिज्ञ कर लिया था। दो वर्ष, इस काम में समर्पित रहकर उत्कृष्ट काम करवाया था। हमारी कंपनी को इस कॉन्ट्रेक्ट से अनुमानित चालीस करोड़ की तुलना में अठारह करोड़ का ही लाभ मिला था। जिससे, मेरी आशा अनुरूप मुझे, प्रमोशन नहीं मिल सका था। तब भी, मुझे अनोखी संतुष्टि थी कि- "कथनी और करनी में, मैं समानता रखने में सफल हुई थी।" अपने किये के गर्व बोध सहित आज, मैं उन महोदय से मिलने पहुँची थी ताकि उनकी शाबाशी पा सकूँ। लेकिन मुझे निराशा हुई, वे सर, रिटायर हो चुके थे। वापसी समय, मैं, कैब में सशंकित बैठी हूँ कि- "उनके द्वारा रिक्त पद पर अब आगे, शायद, कोई उनसा ही, राष्ट्र निर्माता इंजीनियर आ सकेगा .. "
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