Tuesday, April 29, 2014

उपेक्षा का दर्द

उपेक्षा का दर्द
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उम्र बढ़ने के साथ परिवार और बच्चों के सुख में अपना सुख अनुभूत करना भारतीय जीवन शैली रही है.
परतंत्रता में अपने ऊपर शासन करने वाले बाहरी लोगों को हमने , बढ़ती उम्र तक अपने भोग-उपभोगों में लिप्त देखा.
चूंकि दूर के ढोल सुहावने होते हैं , हममें से कुछ ने उस शैली में जीवन सुहावना माना. और इस तरह भारतीय जीवन शैली से विपरीत शैली ने हमारे समाज में घुसपैठ की.  धीरे धीरे इस शैली पर जीने वाले बढ़ते गये। आज इसकी ही बहुतायत है.

फलस्वरूप परिवार बीच सम्बन्ध प्रगाढ़ता घट गई.  माँ-पिता अपने भोग-उपभोग में तल्लीन , बच्चे अलग अपने सुखों में परिवार दायित्वों से बेखबर.

समस्या तब होती है जब वृध्दावस्था में माँ -पिता पराश्रित हो जाते हैं.किन्तु इस बीच माँ-पिता की देख देख बच्चे स्वयं के भोग-उपभोग प्रधानता की आदत के गुलाम हो चुकते हैं.  उपेक्षा का दर्द दुनिया से विदा होते माँ -पिता के सीने में बसता है जो किसी अभाव या रोग की तकलीफ से ज्यादा कष्टदायी होता है. ....

इस परिदृश्य में अपनी संस्कृति में विश्वास और उसका आश्रय ही एकमात्र विकल्प (समाधान ) है.  जो हमारे परिवार ,समाज में सुख सुनिश्चित करता है.

अपने से ज्यादा परिवार और बच्चों के सुखों का महत्त्व देता हमारा जीवन , परिवार के अन्य सदस्यों में यही संस्कार की बुनियाद रखता है. और अनायास प्रतिफल में हमारे सुखों के प्रबंध हमारे परिजन करते हैं.

यह भारतीय संस्कृति है , यही मानवता भी है और यही सच्चा मानव जीवन चक्र है. जो समाज हित करता है

--राजेश जैन
30-4-2014

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