Friday, August 10, 2012

सुविधा लालसा

सुविधा लालसा


                                     मनुष्य तरह तरह की परिस्थिति में जीवन व्यतीत कर रहा है . एक सुविधा पूर्ण स्थिति में रहते वह  अपनी इस स्थिति से एक लगाव रखता है . यह लगाव उसे ऐसा कोई खतरा उठाने से रोकता है जिससे उसके सुविधाओं में कमी की आशंका होती है. इस मनोदशा में वह अपनी स्थिति को सुरक्षित रखने के लिए उचित - अनुचित तर्क देते अपनी कुछ खराबियों का भी बचाव करने का प्रयास करता रहता है .इसे सामान्य मनोविज्ञान कहा जा सकता है.
                                         समाज में ऐसा वर्ग जो धनाभाव , व्यवहारिक ज्ञान और विज्ञान की कम जानकारी से जीवन में मूलभूत सुविधा के लिए संघर्षरत होता है , सुविधामय जीवन व्यतीत करते वर्ग के तर्कों से असहमत होता है. इनकी कहीं संख्या दूसरे वर्ग से अधिक भी होती है तब भी इस असहमति के शब्द और स्वर दबे रहते हैं , जहाँ कम हैं वहां तो स्वाभाविक यह होता ही है.
                                           यद्यपि वंचित इस वर्ग से यदा कदा कुछ सशक्त स्वर भी सुनाई देते हैं . इस वर्ग के लिए न्याय के प्रयत्नों ने कुछ व्यक्तियों के कर्म और जीवन को महानता भी दी है.पर ऐसे उदहारण  बिरले और दूसरे ज्यादा मिलते हैं , जब संघर्षों के बीच सुविधाविहीन से सुविधाजनक वर्ग में उन्नति के साथ मनुष्य सुविधापूर्ण अपनी स्थिति के बचाव में व्यस्त होकर अपनी पिछली स्थिति जैसे वर्ग के लिए न्यायपूर्ण स्थिति तक पहुँचाने के लिए संघर्ष से विमुख हो जाता है.  मनुष्य में सुविधा लालसा की वर्णित भावना ही आज की स्थिति तक उन्नत भौतिक जीवन स्तर तक इस समाज को पहुँचाने में सफल हुयी है . ऐसे में सुविधा लालसा को अनुचित बताना अनुचित होगा .दूसरे शब्दों में इसे ही सारे मानवीय आविष्कारों और खोजों का मूल कारण बताना समुचित होगा . " आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है ."
                                        लेकिन सुविधा लालसा का उचित स्तर के बारे में सोचा जाना भी उपयुक्त होगा . क्योंकि सुविधाओं में जरा सी कमी या त्याग अब हमें पसंद नहीं होता. और हमारे प्रयास निरंतर इन्हें बढाने के होते हैं.   अतएव हासिल भौतिक उन्नति और सुविधाओं की मात्रा और उपलब्धता सारे मनुष्य समाज में बेहद ही असमान है . यह असमानता 100 और 10 तक भी सीमित हो  तो भी चिंता की बात नहीं थी . समाज इतनी विषमता को सहज झेल जाता . पर विषमता तब चिंताजनक है जब काफी तो 1000 के स्तर पर उपभोग करते हों और उनसे बहुत बहुत अधिक 1 को भी वंचित हो जाते हों .  ये असमानता मनुष्य समाज में अशांति उत्पन्न करती है . और सामाजिक वातावरण सुखमय नहीं रह जाता है. मनुष्य के चरित्र , स्वास्थ्य और मानसिक स्थिति इससे बुरी तरह प्रभावित होती है. जो परस्पर वैमनस्य   मनुष्य ह्रदय में छिपी अवस्था में होता है अशांति की  बड़ी वजह होता है. प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष संघर्ष और ईर्ष्या भी उत्पन्न होती है . स्वार्थ प्रेरित तत्व नस्ल ,राष्ट्र , भाषा और धर्म भेद का भ्रम फैलाकर मूल समस्या कारकों से जन सामान्य का ध्यान बटाने को सक्रीय रहते हैं. प्रत्यक्ष और छिपे तरीकों से फिर इन्ही भेद को लक्ष्य कर कुछ हमले एक दूसरे पर बोले जाते हैं . बड़ी जन-हानि जब हो जाती है तब सदमे में कुछ समय का संघर्ष विराम हो जाता है फिर नए साधनों और योजनाओं के सहारे वर्चस्व हेतु संघर्ष  पुनः आरम्भ होता है .

                                शांति और सुखमय समाज के समर्थक प्रबुध्द जन जब तब हिंसा और संघर्ष की आलोचना करते हैं और उनसे बचाव के उपाय करते हैं . संसार अब कई महाद्वीप और राष्ट्रों में विभक्त है और हर राष्ट्र में शांति कायम रखने के संविधान , नियम , व्यवस्था और न्याय पालिकाएं हैं . जहाँ व्यवस्था और आर्थिक सम्पन्नता पर्याप्त है वहां सतही सामाजिक शांति दिखती है . लेकिन पिछड़ गए राष्ट्र और आर्थिक विपन्नता के कारण अधिकांश राष्ट्र  सतही सामाजिक शांति भी कायम नहीं रख पाते हैं .वंचित  मनुष्य ह्रदय में असंतोष आंतरिक अशांति का कारण हर समाज में बन रहा है.
                                           हर जगह तुलनात्मक ज्यादा सहज और सुविधा की स्थिति में जी रहा वर्ग अपनी प्रिय इस स्थिति में से कुछ भी त्याग को तैयार नहीं है . शिक्षा और संस्कारों की दुहाई देते हुए वंचित वर्ग को ही दोषी बताने के तर्क और शब्दजालों से स्वयं और दूसरों को संतुष्ट करने की चेष्टा निरंतर प्रक्रिया हो गयी है. सुविधा वाली स्थिति से जब कोई जीवन के दौरान किन्ही कारणों से गिर सुविधा विहीन हो जाता है तो  उसके स्वर  और तर्क बदल जाते हैं . मनुष्य जीवन इतना सिध्दांत हीन तो नहीं होना चाहिए . हम जैसे ही सुविधा साधन  संपन्न हो जाते हैं वैसे ही सम्पूर्ण समाज के हितैषी और तत्सम्बंध के उपदेश अभिनीत करते हैं . लेकिन   वंचित वर्ग में शिक्षा और उन्नति के अवसर मिल जाने से उन्नत हो गए व्यक्ति भी पूर्व स्थिति के साथियों को इसी अभिनय से संतुष्ट रखने की कोशिश आरम्भ कर देते हैं और उनके स्तर को ऊँचा उठाने में आवश्यक रूचि नहीं लेने से समाज की भलाई नहीं करते हैं .
                                            "सम्पूर्ण परिद्रश्य वैयक्तिक भोगवाद की कहानी कहता है".हमारी  इस प्रवत्ति को जब कोई रेखांकित करता है तो अहम् आहत होता है और अनर्गल तर्कों और शब्दजाल से हम उस पर प्रहार आरम्भ करते हैं . प्रत्यक्ष संज्ञान ले रहे अन्य अपनी अपनी सुविधाओं और धारणाओं के अनुसार दो वर्ग में विभाजित होते हैं . कुछ उदासीनता में अपनी सुविधा पाते हैं . 
                                                हम अभिनय ना करें समाज भलाई के लिए वास्तव में अग्रसर हों , फिर भले मीलों न बढ़ सकें चार कदम ही सकरात्मक दिशा में चलना ही सफलता हो सकती है , जब इस दिशा में ये चार कदम वर्तमान कुछ और आगामी संतति को समुचित प्रेरणा दे सकने में सहायक हो जायेंगे. अगर मनुष्य जीवन के इस कर्तव्य को हम ना समझ सकें हो तो इसे समझें और फिर इससे विमुख न हों. 
                                          मनुष्य जीवन और ऐसी समझ हर कोई नहीं प्राप्त कर सकता . अपना आत्मबल संचित रखें समाज हमारे से किये अपने अहसानों के बदले में अपने लिए इस  अपेक्षा के साथ  हमारे सम्मुख उपस्थित  है .  अपने से अच्छाई के लिए अपेक्षाकर्ता को निराश करना अन्याय है . अपेक्षा समर्थ से होती है , अपेक्षा कर कोई हमें समर्थता का बोध करा रहा है क्या कम है ?

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