Monday, August 13, 2012

ज्यादा ज्ञान-पर अशांति ज्यादा

ज्यादा ज्ञान-पर अशांति ज्यादा 


                                                पहले शिक्षा प्राप्त करने के अवसर कम मनुष्यों को ही मिल पाते थे . तब विज्ञान और गणित  इतना उन्नत नहीं हुआ था . संसार का भूगोल की कम जानकारी थी . पढने के लिए नीति ,युध्द विद्या और व्यवहारिक और धर्म के प्रमुख विषय होते थे . इसलिए मनुष्य में  चरित्र , सामाजिक मर्यादाओं और न्यायिक सिध्दांतों का पालन ज्यादा देखने में आता था . ऐसे उदाहरण भी थे जब खुद को दोषी अनुभव होने पर व्यक्ति स्वयं को दण्डित भी कर लेता था.  यह नैतिक साहस समाज को सच्ची प्रेरणा भी देता था . इससे परस्पर विश्वास और सामाजिक वातावरण सुखमय भी होता था.
                      गणित और विज्ञान धीरे धीरे निरंतर उन्नत होता गया . और आज दुनिया भर में यात्रा , वार्तालाप और प्रचार-प्रसार के तीव्र साधन उपलब्ध हुए हैं . अब संसार तो सिमट ही गया है . एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक 2-3 दिनों में पंहुचा जा सकता है ( यद्यपि आर्थिक समर्थता शर्त है ) . हर पल एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक सन्देश और फोटो इत्यादि का आदान प्रदान हो सकता है (नेट ,sms इत्यादि से ) . समाचार पलक झपकते मिलने लगे हैं . गंभीर रोगों से भी प्राण बचाये जा सकते हैं . मनुष्य प्रथ्वी तो क्या अन्तरिक्ष और अन्य ग्रहों के बारे भी अपना ज्ञान बढ़ा रहा है. ज्ञान तो अनंत है और कभी पूरा प्राप्त कर पाना लगभग असंभव ही होगा .
                                इस तरह विज्ञान और गणित के ज्ञान से जीवन सुविधा जनक हुआ है .दिनों में जो काम नहीं होते थे स्वचालित मशीनों से तीव्रता से होने लगे . गुणवत्ता बेहतर होती गई उत्पाद आकर्षक और सुन्दर होते चले गए  और तो और रसोई में तक बिजली आधारित स्वचालित उपकरण पहुँच गए . और दिन भर सिर्फ भोज्य तैयार में लगे रहने के स्थान पर अब दो चार घंटों में विभिन्न व्यंजनों को बना लेना आसान हो गया.  ज्यादा ऐसे उदाहरण लक्षित विषय की चर्चा के लिए अनावश्यक है .
                              ज्यादा पढ़ा लिखा ,ज्यादा विषयों का ज्ञान अर्जित कर क्या मनुष्य पहले से ज्यादा सुखी और कार्य बोझ से हल्का हो सका है ? ऐसा लगता है कि इन सब सुविधा साधन और ज्ञान से कुछ ही ज्यादा तसल्ली   और जीवन सुख प्राप्त करने में सफल हो पा रहे हैं  .जबकि अधिकांश इन सब को जुटाने के फेर में ज्यादा व्यस्त और अशांत (मानसिक दबावों से ) हो रहे हैं. इस दिनचर्या में जीवन के 80-100 वर्ष का समय ऐसे निकलता है जैसे बंद मुठ्ठी से रेत .और एक बड़ी उम्र में पहुचने पर कोई ऐसा सोच स्वयं आश्चर्य अनुभव करता है कि इतना बड़ा सा लगने वाला एक अरसा कैसे बीत गया पता न चला . जिन जीवन स्वप्न के लिए उसके प्रयत्न और कर्म चल रहे थे . वह स्वप्न तो साकार होने भी न पाए थे और अब कम जीवन शेष दिखाई पढता है .
                            बच्चा अबोध ही होता है ढाई -तीन वर्ष का स्कूल भेजा जाने लगा है. एक ठीक सी समझी जाने वाली शिक्षा हासिल करते 22-23 वर्ष का हो जाता है . शिक्षा धनार्जन और अपनी सामाजिक प्रतिष्टा और पहचान बढ़ाने के उद्देश्य से प्राप्त की होती है . अतः शिक्षा पूरी करते करते अपने लिए उचित व्यवसाय और नौकरियों कि संभावनाएं तलाश करने में व्यस्त होता है . तय हो जाने पर अपने क्षेत्र में ज्यादा उन्नति का विचार हावी होता है . इस बीच विवाह ,परिवार , एक आशियाना   और बच्चे  क्रम बध्द आते जाते हैं . इनके बीच समन्वय बनाने में भी व्यस्तता और मानसिक दबाव ही बढती है . सब कुछ करते हुए भी जीवन्तता अनुभव नहीं कर पाता है और उम्र होने लगती है पचास -साठ .  तीन वर्ष कि अबोध उम्र से पहले शिक्षा और फिर व्यवसाय में तरक्की की द्रष्टि से निरंतर व्यस्तता और मानसिक दबाव और असंतुलित शैली तथा खानपान अब कई रोगों के साथ उस पर आ पड़ते  हैं . और अब व्यस्तता उनसे बचाव के लिए उपाय ,चिंता और अस्पतालों के चक्करों में हो जाती है . जीवन बचाए रखने में सफल रहे भी और 70-75 वर्ष के हुए तो परिवार के युवाओं से अपने साथ वार्तालाप की कमी अनुभव करते हैं .वस्तुतः 2-3 पीढ़ी बाद के मनुष्य को पहले की पीढ़ी से ज्यादा व्यस्त जीवन शैली और महत्वाकांक्षा मिली होती है . युवाओं की इस बाध्यता को न समझ पाता है .     विपरीत समय में हमारे   बच्चे हमारी सेवा करेंगे ऐसी आशा उनके जन्म और उनके लालन -पालन के समय से ह्रदय में बनी होती है उस अपेक्षित  सेवा भाव में उनके तरफ से कमी अनुभव कर अब समय उपेक्षा से दुखी होने का होता है . अन्य शारीरिक प्रतिकूलताएं तो साथ होती ही हैं.
                                   जीवन मोह टूटता है कई अपनी मौत ही स्वयं चाहने लगते हैं . और मौत भी यहाँ धोखेबाज सा व्यवहार करती है . जो जीना चाहते हैं उन्हें चटपट जाती है . और जो मरना चाहते हैं उन्हें वर्षों (स्वयं पर भी ) आश्रितों  पर अभिशाप बन टंगाये रखती है .  यद्यपि इस बात की चिंता निरथर्क होती है.  इससे कोई मदद नहीं मिलती है .लेकिन जीवन में कर सकने योग्य नियंत्रण अपने पर लागू न कर सकना , और फिर जीवन पर से इस तरह नियंत्रण खो स्वयं और समाज को क्षति पहुचना कोई बुद्धिमानी नहीं है. सबकी क्षमता अलग अलग होती हैं . अपनी क्षमताओं  को न पहचान दूसरे क्या कर रहे ( विशेष कर समर्थ ) उससे होड़ करना अनुचित  है . इस प्रयास में हमें सिध्दांतों से समझौता करना होता है . कभी हम बुराई का सहारा ले प्रतिस्पर्धा में विजेता होने के यत्न करते हैं . इन प्रयत्नों में सफल हुए या नहीं यह तो गौड़ होता है .पर हम बुराई में पड़ना  आरम्भ कर चुके होते हैं . एक  बार सिध्दांतों से समझौता फिर अनेक अवसरों पर हमारी हिचक मिटाता है.   यह स्थिति कतई पश्चाताप न देती यदि हम आम मनुष्य जीवन से अलग कुछ जीवन सार्थक कर पाते. 
                           बहुत ही उच्च कोटि का पौष्टिक , महंगा , स्वादिष्ट भोज्य का निरंतर जीवन भर सेवन हमें सौ सवा सौ वर्ष पूर्ण स्वस्थ अवस्था में जिलाये रख पाता . हमारा  रूप और यौवन और शारीरिक शक्ति जीवन भर कायम रहती . हमारे सुन्दर और महंगे परिधान हमें जीवन अंत के समय कफ़न से अलग कुछ दिलाते . और विलासिता पूर्ण हमारे भवन और महल प्रथ्वी पर बना लेने से स्वर्ग में हमारे लिए कोई अच्छा कमरा आवंटित करा पाते तो मै मुक्त कंठ इस दिशा में किये जाने वाले प्रयासों की प्रशंसा करता .लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता है . तो फिर यह चिंतन उचित ही है .ये सभी बातें जीवन में न्यायपूर्ण साधनों से मिले तो सब अच्छी हैं . उपभोग भी करें . पर ऐसी आसक्ति इनके प्रति तब निंदनीय है जब हम दूसरों को धोखा दे , उनके अधिकारों का हनन करते और बुरे तरीकों से अपने लिए प्राप्त करते हैं . जो अंततः स्वयं खो भी देते हैं.
                            हमें भौतिक आडम्बरों को अपने पर इतना हावी नहीं होने देना चाहिए. इनसे बच सके तो सामाजिक न्याय हम अनायास ही करने लगते हैं . संवेदना और दया भाव हम में सृजित होते जाते हैं . न्याय प्रियता हमारा स्वभाव हो जाता है. बेकार  अहम्  हम में पनपता नहीं , अहम् न हो तो हममे   बडबोलापन नहीं होता , दूसरा हमसे बिना कारण अपमानित भी नहीं होता है और सभी के मन में आपसी बैर के स्थान पर एक अपनापन की मधुरता ही होती है .ऐसे हमारे जीवन से दूसरे सच्ची प्रेरणा प्राप्त करते हैं और जब वे भी ऐसा ही बनना आरम्भ करते हैं तो समाज में अशांति और खराबियां स्वतः कम होती चली जाती हैं . 
                                         ऐसा अगर हम कर रहे हैं तो साधुवाद के पात्र हैं . नहीं करते हैं तो भूल जितनी जल्दी सुधारेगें उतना अपने पर ही न्याय कर सकेंगे . परलोक सुधारने को तो हम व्यग्र हैं पर जिस लोक में हमें 80-100 वर्ष और हमारी संततियों को सदा ही (अपने अपने क्रम ) जीना है . उसके लिए हमारा ऐसा करना अपेक्षित है .
                        हमें एक उचित संतुलन अपने ज्ञान अर्जित किये जाने वाले विषयों में लाना है . हम चाहे जिस क्षेत्र का जितना अच्छा ज्ञान अर्जित करे लेकिन उसके साथ मानवीय मूल्यों और नीतिगत व्यवहारिक ज्ञान और उस अनुरूप  आचरण नितांत और नितांत हमारे उत्तरदायित्व हैं . अगर किसी भी जगह हम किसी के दायित्व निर्वहन न करते देख उसे निंदनीय मानते हैं तो हमारे अपने  उत्तरदायित्व के साथ भी न्याय न कर पाना भी निंदनीय ही होगा . 

हम मानदंडों का  दोहरापन  मिटायें . जो दूसरे के आचरण में अनुचित है वह अपने आचरण में भी साफ़ करें.

                    यह कहानी अनंत बार लिखी गयी है आज मेरे शब्दों में पुनः आपके सामने है . क्योंकि यह मनुष्य जाति के प्रथम अस्तित्व से उसके शेष रहते तक हमेशा प्रासंगिक रहने वाली है .

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