Friday, April 20, 2012

आधुनिक समाज एक परिकल्पना एवं मानसिक सम्रद्धता


 आधुनिक समाज एक परिकल्पना एवं मानसिक सम्रद्धता


   जीवन में मेरा अनुभव है कि कई बार मनुष्य किसी दूसरे उद्देश्य या कारण से किसी ऐसे साधन पर जाता है जहाँ उसकी मनोकामना पूरी हो या नहीं पर अनायास ही ऐसा मार्ग उसे मिल जाता है जो जीवन में उसके और संपर्क में आये अन्य जनों के लिए बहुत हितकारी हो जाता है. उदाहरण से इसे समझते हैं कि कभी कोई प्रतिष्ठा बढाने या पुण्य जुटाने जिससे उसकी आर्थिक हैसियत में वृध्दि हो अपने आस्था के धर्मालयों में जाने लगता है.ऐच्छिक ये उद्देश्य उसके वहां जाने पर पूरा हो पाता है ये अलग बात है पर कभी कभी वहां के ग्रन्थ ,शास्त्र और पवित्र किताबों से ज्ञान जिसकी गूँज ऐसे स्थानों पर अक्सर होती है उसकी वैचारिक प्रेरणा बन जाते हैं.उसके आचरण ऐसे हो जाते हैं जिससे वह स्वयं और संपर्क में आये अन्य लोग मानसिक नियंत्रण कि कला सीख लाभान्वित होते हैं. यहाँ धर्मालयों का जिक्र सिर्फ उदाहरण स्वरुप है आपका जाना या ना जाना आवश्यक है या नहीं यह आपका विवेक द्वारा तय किया जाए.क्योंकि जीवन की सही दिशा, सही मार्ग और सही मंजिल आप अन्य साधनों जैसे अच्छी विचारधाराओं , विद्यालयों ,उपलब्ध अच्छे साहित्यों से,सच्चे नायकों के संपर्क और उनके अनुकरण से और इन सबके साथ अपने अंतर्-विवेक कहीं से भी ग्रहण या हासिल कर सकते हैं.
                              हम यदि यह कर सकें कि दूसरों से तुलना करते हुए अपने को ना देखें तो बहुत अच्छा होगा.जैसे मैं उससे कम या अधिक ज्ञानवान ,धनवान या रूपवान हूँ. अथवा मैं उससे कम या अधिक प्रसिध्द ,लोकप्रिय या शक्तिशाली हूँ. अथवा उससे कम या ज्यादा उम्र का हूँ. और वह स्त्री (पुरूष) और मैं पुरूष (स्त्री) हूँ. ये तुलनाएं आपको अनावश्यक अहम् या हीन बोधता का शिकार बना सकतीं हैं.हमें यह सोचना चाहिए कि उक्त कई बातें (सिर्फ लिंग भेद को छोड़ दें) तो जीवन में कभी स्थायी नहीं होती.आज जो आपके इस बारे में दूसरे कि अपेक्षा से अनुमान हैं वह जीवन के अन्य समय में काफी कुछ बदल सकते हैं.कभी कभी तो बिलकुल ही उलट भी सकते हैं. अतः इन अस्थायी बातों में हम हीनता या बड़प्पन बोध करें यह उचित नहीं है.अगर तुलना ही हम करना चाहते हैं तो अपनी स्वयं से करें . ये इस प्रकार हो सकती है के आज के कुछ वर्ष पहले मैं जो था उसकी तुलना में आज मैंने क्या अच्छा हासिल कर लिया है.आज कि तुलना में मैं भविष्य में क्या और कितना अच्छा कर सकता हूँ/ बन सकता हूँ.तुलनात्मकता की यह शैली आपको कभी विवादित नहीं होने देगी.
                            
                                  उम्र बढ़ने के साथ जीवन में अवस्था परिवर्तित होती जाती है .बचपन से युवा होते परिवर्तन फिलहाल चर्चा का विषय नहीं है , लेकिन युवावस्था से प्रोढ़ता की ओर जब हम बढ़ने लगते हैं तो शक्ति धीरे धीरे कम होने लगती है.रूप जो कभी निर्दोष रहा हो उसमे धीरे धीरे दोष दिखने शुरू हो जाते हैं. औषधियों और श्रृंगार विधियों से हम ज़माने को फिर भी वैसा ही (पूर्व के निर्दोष रूप में) अपने को दिखाने का प्रयत्न करते हैं,काफी हद तक सफल भी होते हैं.लेकिन उपायों के अभाव की सच्चाई हमें अनुभव में रहती है.वैसे सदगुण तो जीवन में प्राम्भ से ही किसी की मानसिक सम्रद्ध्ता की परिचायक होती है.लेकिन प्रोढ़ता की ओर अग्रसर होने पर हम ज़माने को अपने रूप,सौंदर्य और शारीरिक गठन या शक्ति से प्रभावित करने की कोशिशों के अपेक्षा अपने ऐसे आचरण या कार्य जिससे अपने परिवार और समाज का हित होता है पेश करें तो हमारी उस मानसिक सम्रद्ध्ता का असर ज्यादा प्रभावी और सच्चा होगा .यह समय की मांग भी है क्योंकि समाज जिसमे हम और हमारे बच्चे जीवनयापन कर रहे हैं अत्यंत अशांत और असुरक्षित होता जा रहा है. हमारी प्रुबुद्धता और प्रेरणा यदि उसकी दिशा बदल सके तो आगे के मनुष्य सन्ततियां हमें धन्यवाद ज्ञापित करेंगी और आज के समाज में हम बेरूप ,अशक्त होते जाने पर भी ज्यादा स्वीकार्य और सम्मानित हो सकते हैं. जिस समाज में हम ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं उसका हमारे पर अहसान का सही बदला चुकाने का सही तरीका भी यही होगा.

                                                              मेरा आज का लेखन मेरे भाषा ज्ञान की सीमाओं के कारण मात्रभाषा हिंदी में ही प्रकाशित है.कोई बहुभाषाविद यदि सामाजिक आवश्यकताओं में इस चिंतन -दर्शन से सहमति पाता है तो इसका अनुवाद कर अन्य भाषाओं में प्रकाशित करे तो मुझे ख़ुशी होगी.चूकिं लेखन का उद्देश्य ही सामाजिक ,जनहित और आगामी समाज रचना को नई दिशा देना है और इस हेतु इसका प्रचार और प्रबुद्ध मानवों के इस तरह की सोच,इस दिशा में कार्यों को उत्प्रेरित करना है.ऐसे किसी भी प्रयास पर में विवाद नहीं करूंगा (क्योंकि मेरा स्वाभाव बिना विवादित रह अच्छे कार्यों कों अंजाम देने का है ).अनुवादक से अनुरोध यह अवश्य होगा के मूल रूप बदलने पर भी प्रस्तुति का मूल उद्देश्य अप्रभावित रहे .अर्थात किसी व्यक्ति ,धर्म,या राष्ट्र विशेष पर कोई टिप्पणी ना हो.लेखन-दर्शन के मूल में यह भावना भी है कि मानव समाज में से प्रत्येक अपने स्थापित आदर्शों,धर्म और प्रेरणा पर पूर्व अनुसार ही कायम रहे .बस एक शैली और विकसित करे कि किसी भी परिस्थिति में अपने कार्यों के करने के पहले अपने विवेक के न्यायालय में जाने की आदत डाल कर स्व-विवेक जो उचित कहे वह करे और करने के पहले यह भी परख ले कि इससे किसी को हानि तो नहीं होती है यदि हानि होती प्रतीत हो तो पुनः विवेक विचार करे.

                                  
                                    आपके सहयोग से अगले दो तीन सदियों में ऐसे समाज की परि-कल्पना तथा उसको मूर्त रूप होते देखना मेरी आशावादी सोच है .जिसमे आज के तरह का अशांत ,असुरक्षित,अविश्वास का वातावरण समाज में ना हो और अपने संतति को सुरक्षित समाज और वातावरण हम और आगामी मानवजन दे सकें.हमें इस विश्वास के साथ कि आने वाले समय में कुछ ,फिर कुछ और और बाद में बहुसंख्यक प्रबुद्धजन इस दर्शन से जुड़ेंगे,इस का बीज आज ही बो देना है वृक्ष बाद में लहलहाएंगे ही .

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