Sunday, April 15, 2012

मेरे पथ प्रदर्शक - मेरे जीवन में
------------------------------------------------------------------

                                  मार्ग चलने के प्रारंभ में यदि मार्ग की दिशा का सूक्ष्म सुधार हो जाये तो जीवनकाल में मिलने वाली मंजिल में विशाल परिवर्तन का कारण हो सकता है .
                                 अपने जीवन में अपने बडों ,नाते-रिश्तेदारों से सभी को मार्ग दर्शन मिलता है .मुझे भी मिला लेकिन उन्ही की प्रशंसा करना उचित नहीं है अतः यैसे  रिश्तेदार जो मेरे पथ प्रदर्शक भी बने उनकी चर्चा न करते हुए यैसे सच्चे नायकों और उनके मार्गदर्शन का जिक्र करूँगा जिनसे मेरी कोई नातेदारी नहीं थी लेकिन जिन्होंने मेरे सच्चे हितैषी के रूप में मशवरा दिया .

                                      मै जब हाई स्कूल में था तब मेरे maths के टीचर थे .मै पढ़ने के प्रति बहुत रूचि कभी भी नहीं रख पाया अतः उस समय भी ऐसा ही था  टीचर अपने विद्यार्थियों को पहचान लेते हैं. उन्होंने कई बार यह समझाया कि तुम कक्षा में अग्रणी सहपाठियों से कुशार्गता के मामले में ज्यादा अलग नहीं हो लेकिन पढने में लापरवाही करते हो. उन्होंने कभी मारा पीटा भी  डांटा भी लेकिन मै बहुत परिवर्तन अपने मै न ला पाया . ग्यारह्न्वी कि परीक्षा बोर्ड होती थी उसी के नतीजे पर मैरिट बेसिस पर इंजीनियरिंग मे प्रवेश मिलना तय होता था . लापरवाह होते हुए भी मन मै उस समय इंजीनियरिंग पढने कि साध थी लेकिन अपने पर ही विश्वास न था .ऐसे समय मै उन्होंने एक बार मुझसे कहा " तुम मेहनत करोगे तो maths मै बहुत score कर लोगे और यदि पेपर बिगड़ भी आये तो भी गणित मै विशेष योग्यता तुम्हारी आएगी ही ".उनके कहे शब्दों ने मुझे मानसिक संबल दिया . उनकी बात सच सिद्ध हुई गणित मे किसी प्रकार मुझे विशेष योग्यता मिली और बाद मे किसी तरह इंजीनियरिंग की प्रवेश सूची मे स्थान भी मिल गया .
                                              "मेरा नमन मेरे आदरणीय गुरु को"
                                 जब मे नौकरी में आया तो विभागीय चुनौतियां और लक्ष्य कठिन थे. मेरी बुद्धि जबाब देती लगती थी . जन अपेक्षा विभाग से होती कर्मचारिओं  की वाजिब समस्याएँ थी ,संशाधनों कि सीमित उपलब्धता थी मै निराश हो जाता. हमारे एक वरिष्ठ इंजिनियर साथी मुझ पर नज़र रख रहे थे .उन्होंने मुझे समझाया कि तुम प्रतिदिन के लिए १० काम सोचते हो शाम तक ५-६ ही पूरे हो पाते हैं इसमें  निराश होने या तनाव करने कि जरुरत नहीं है .तुम उसे इस रूप मे सोचो कि यदि तुमने १० काम की प्लानिंग ना की होती तो ५-६ कि जगह १ या २ कार्य ही हो पाते .तुम्हारी प्लानिंग के कारण तुम ५० -६०%  सफलता निकाल रहे हो अन्यथा ये २० % ही रह जाती . वस्तु को देखने  का यह द्रष्टिकोण मेरी बाद की  जिंदगी मे बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ ,
उन्हें हम कनिष्ठ  साथी गुरु कहते/मानते थे .मेरे विभागीय भविष्य की शुरुआत मे मेरे चिंतन की  दिशा में उनके द्वारा दिए सुक्ष्म परिवर्तन के लिए उनका अहसानमंद हूँ .
                                           "मेरा नमन मेरे इन आदरणीय गुरु को भी"

                                  वस्तु के सही स्वरूपों को समझने में मुझे सही मार्ग जहां से मिला उसकी भी चर्चा करूंगा .मेरी माँ ,रिश्तेदारों और परिचितों की धार्मिक रूचि के कारण उनके साथ बचपन से कई बार मैं विद्वानों की धर्मं-चर्चाओं में शामिल होता आया हूँ. मौके विशेष पर आज भी पहुँच पाना सौभाग्य मानता हूँ. बहुत ही अनुकरणीय शिक्षा वहां से प्राप्त होती हैं. विशेषकर संसार में विद्यमान प्रत्येक वस्तु  का सच्चा स्वरुप समझाने के लिए "भेद-विज्ञानं " की शैली विकसित करने में वहां के विद्वानों से ही दिशा मिली. ये विद्वान प्रसिद्ध हैं .उनके अनुकरण करने वालों के अच्छी संख्यां भी है नाम का उल्लेख वगैर "उन सबका वंदन और नमन करता हूँ".

                                 विभागीय नौकरी के दौरान एक छोटे कस्बे में मेरी पद स्थापना हुई .वहां मुझे एक शक्कर मिल मालिक जो ९० के दशक के शुरुआत में करोडपति रहे होंगे का संपर्क मिला. वास्तव में मेरा उनका ना ही अवस्था अनुसार ( वे मुझसे २० वर्ष बड़े थे) और ना ही आर्थिक हैसियत से मेल था लेकिन उस छोटी जगह वे मेरे कार्यालय या घर आ बैठना पसंद करते थे .वे सिर्फ शुगर मिल के मौसम में ही वहां आते थे अन्यथा एक महानगर के निवासी थे.अक्सर संपर्कों से उनसे मेरी आत्मीय निकटता हो गयी थी . एक दिन मैंने उनसे कहा सेठजी इतने बड़े आदमी होकर क्यों इतने दूर की धूल खाते हो. आपक़े धन उपार्जन के कई जरिये हैं . उन्होंने इसके जबाब में कहा ' ये सच है पर एक बात और है की  कुछ अतिरिक्त कमाई तो यहाँ हो ही जाती है पर साथ ही मेरे मिल से जुड़े मजदूरों को और यहाँ के गन्ना उपजाने वाले किसानों जिनका गन्ना में खरीदता हूँ उनका और उनके परिवारों के भरण पोषण में मैं निमित्त बनता  हूँ मुझे संतोष होता है.'
उनके इस द्रष्टिकोण से मुझे लगा की वास्तव में दिखने वाली चीज कई तरह की दिखती प्रतीत हो सकती है पर अगर में सही द्रष्टिकोण से उसे देखने की अपनी द्रष्टि विकसित कर सकूं तो अच्छा होगा.

                               विभागीय लक्ष्य हासिल करने के प्रति मैं उन दिनों इतना महत्वकांक्षी हो  गया था (या जुनूनी ) की कई बार ओवर एक्ट कर जाता था . ड्राईवर के अनुपस्थित होने की दशा में यदि कार्य का महत्त्व होता या कार्य की मात्रा में गिरावट अनुभव करता तो स्वयं ही driving seat पर जा बैठता (मेरे पास heavy vehicle लाएसेंस भी नहीं था) .एक दिन क्रासिंग में उन्होंने मुझे ट्रक चलाते देख लिया ,हाथ दिया मैंने अभिवादन समझ वैसा ही उत्तर देते हुए अपना रास्ता नापना जारी रखा .शाम को वे मेरे घर पहुँच गए पूछा आपके पास ट्रक चलने का लाएसेंस है , मैंने कहा नहीं है .उन्होंने फिर कहा यदि कभी एक्सिडेंट हो गया तो क्या होगा ? मैंने जबाब में कहा नहीं में सावधानी से ट्रक चलाता हूँ .उन्होंने फिर पूछा  सड़क पर एक्सिडेंट क्या तुम्हारी ही गलती से हो सकता है क्या ? दुसरे की गलती के कारण भी यदि एक्सिडेंट हो गया तो तुम्हारे पास लाएसेंस ना होने से तुम जेल पंहुच जाओगे तब छोटे-छोटे तुम्हारे बच्चों का क्या होगा? उनकी सीख को बाद में मैंने निभाने का प्रयत्न किया. वास्तव में अनुभवी और प्रबुद्ध-जनों की बातें गंभीरता से सुने उनका अनुकरण करें तो लाभ ही होगा .

                              "उन आदरणीय पथ प्रदर्शक को मेरा हार्दिक नमन "  करते हुए यह भी लिखूंगा की उनकी उक्त सीख के आलावा यह भी सच था की एक अकुशल ड्राईवर का ट्रक जैसा वाहन चलाना मार्ग से गुजर रहे निर्दोष राहगीरों के जीवन  को भी खतरा पैदा करता है.
                            सेठजी की एक बात और जिक्र कर यह कहूँगा की किसी भी व्यक्ति की सारी बातें आप मान्य करे यह कहीं भी आवश्यक नहीं है अपना स्वविवेक क्या कहता है यह भी सुने. वे स्वयं एक बेटी के पिता ही थे उनका कोई पुत्र नहीं था .मेरी दूसरी बेटी के जन्म के बाद एक दिन उन्होंने कहा की एक पुत्र का होना भी जरुरी है . देश जनसँख्या की समस्या से गुजर रहा था यह तो एक कारण था ही लेकिन मैंने पुत्र के लिए और बंच्चों के जन्म की किसी भी सम्भावना खत्म कर रखी उसका दूसरा कारण ये था की दूसरी बेटी के जन्म होते होते तक मुझे अपने आसपास के अशांत ,असुरक्षित समाज की खराबी द्रष्टिगोचर  होने लगीं. मैंने सोचा ऐसे  असुरक्षित वातावरण में मेरी संतानें हमेशा आशंकित और अपने बचाव के लिए संघर्षशील रहेंगी . अतः अब और संतान का निमित्त में नहीं बनूँगा  जो जीवन के आनंद के स्थान पर जीवन हेतु संघर्षशील रहने को मजबूर हों .
                              हाँ ,एक सुरक्षित समाज के मेरे दर्शन का बीज १७-१८ साल पहले उन दिनों में ही मेरे मन में पड़ गया था जिसका अंकुरण और पौधे के रूप में नियमित विकास अब तक होता रहा जिसे अब मैं परिपक्वता के साथ प्रबुध्दजनों की कसौटी पर परखने हेतु प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा  हूँ .
                             "हमें क्यों नहीं अपने कुछ सुविधाओं ,कुछ आराम ,कुछ भौतिक महावाकांक्षा त्याग कर आगामी संतति के लिए सुरक्षित ,शांत समाज की रचना के लिए योगदान देने के लिए इसका एक पवित्र बीज आज ही ना बो  देना चाहिए?"


 


 

No comments:

Post a Comment