Saturday, September 11, 2021

सीजन 2 - मेरे पापा (10)…

 

सीजन 2 - मेरे पापा (10)…

गर्भ में आते ही, हमारे शिशु को लेकर हमने सपना देखना आरंभ कर दिया था। रात्रि सुशांत मुझसे कह रहे थे - रमणीक, कुलज्योत या कुलदीपक, हमारे संकीर्ण विचारों के द्योतक शब्द हैं। 

आशय नहीं समझकर मैंने पूछा - संकीर्णता! कैसे?

सुशांत ने कहा - हमारे देश में करोड़ों कुल परिवार हैं। ये सब अपने अपने कुल के चिंतन तक सीमित हैं। फिर भी कोई कुलज्योत या कुलदीपक, अपनी चार पाँच पीढ़ी पहले के पूर्वजों का नाम तक नहीं जानते हैं। हम अपनी ही ले लें, हमें ही पता नहीं कि हम, ज्योति और दीपक होकर किनके कुल को प्रकाशमान् कर रहे हैं। 

मुझे अब इनके कहने का आशय समझ आया था। मैंने पूछा - जी, तो इसे लेकर हमारा वृहत् (Broad) चिंतन क्या होना चाहिए? 

सुशांत ने उत्तर दिया - 

यह सरल है। हमें अपने बच्चे के राष्ट्रज्योति और/या राष्ट्रदीपक बनने की कामना करनी चाहिए। आज देश में करोड़ों परिवार के कुलज्योत और कुलदीपक हैं मगर ये हम, अपेक्षित सुखद समाज परिवेश देने में सफल नहीं हुए हैं। माँ या पिता बनते हुए हमें, अपने बच्चे के ‘कुल-’ नहीं ‘राष्ट्र-’ ‘ज्योति’ या ‘दीपक” होने की कामना करनी चाहिए। इससे और इसे हेतु किए प्रयास से, हमारे बच्चे, परिवार को ही नहीं अपितु भारत राष्ट्र को अपना देखने की दृष्टि पाते हैं। ऐसे संस्कारित बच्चे ही, अपने भारत को एक सुखद परिवेश देने की दिशा में अग्रसर हो सकते हैं। तब ही हमारी पीढ़ियों को, सुखद परिवेश में जीवन अवसर मिलने पर भारतीय होने में, सच्चा गर्व बोध का अनुभव मिल सकता है। 

यह सुनकर मैं चकित हुई, सुशांत को देखने लगी थी। मैं सोच रही थी कि स्वयं किसी राष्ट्रदीपक में ही ऐसे विचार हो सकते हैं। तब मुझे, अपने को देखता पाकर, सुशांत ने प्यार से, अपनी ओर खींच लिया था। 

एक सप्ताह बाद, सुशांत ने मुझे दिल्ली की ट्रेन में बैठाया था। इनसे जुदा होना मुझे उदास तो कर रहा था मगर साथ ही डेढ़ माह बाद, पापा-मम्मी जी से मिलने की कल्पना मुझे रोमांचित कर रही थी। मैं सोच रही थी कि जब मैं, दोनों को बताऊंगी कि आप दादा-दादी बनने जा रहे हैं तो वे कितने प्रसन्न होंगें। 

यात्रा में अन्य यात्रियों की तरफ से उदासीन, मैं अपनी कल्पनाओं एवं विचारों के साथ, अपना चाहा एकांत पा रही थी। मैं, गर्भ में शिशु, पुत्र या पुत्री है इस सोच में खोई-सोई रही थी। मेरी झपकी (Nap), सहयात्रियों के स्टेशन पर उतरने की हलचल से टूटी थी। मैंने स्वयं को अपने गंतव्य पर पाया था। कोच में आए कुली को मैंने, ट्रॉली बेग और पिटठू बेग लेने के लिए कहा था। मैं ट्रेन से उतर कर, मुझे लेने आए, पापा के साथ होकर निश्चिंत हुई, कार में बैठ, घर की ओर चल पड़ी थी। मैं सोच रही थी कि - जब मैं गई थी तब एकल जीव थी और आज लौटी हूँ तब, अपने गर्भस्थ जीव सहित दो हो गई हूँ। 

सुशांत या मैंने, अब तक पापा, मम्मी जी को इस बारे में नहीं बताया था। मैं सोच रही थी कि जब दोनों को, मैं यह शुभ समाचार दूँगी तो इनकी प्रतिक्रिया क्या होगी। 

घर पहुँच कर, आशीर्वचनों की अभिलाषा में, मैंने दोनों के बारी बारी चरण स्पर्श किए थे। जब दोनों ने मुझे आशीर्वाद दिए तब मैंने, अपने पेट की ओर आँखों से संकेत करते हुए कहा - 

पापा-मम्मी जी, अब आप दोनों इसे भी आशीष दीजिए। 

यह देखते-सुनते हुए दोनों के मुख पर अभूतपूर्व प्रसन्नता, मैंने देखी थी। पापा ने मुझे अपने कंधे लगाया तो, मम्मी जी भी हमारे साथ मिल गई थीं। मम्मी जी ने कहा - 

स्वागतम् स्वागतम्! कुल रोशन करने वाले इस शिशु का, अपने गृह आगमन पर हार्दिक स्वागत!    

मैंने लजाते हुए कहा - पापा, सुशांत कहते हैं, गर्भ में आया यह जीव, राष्ट्रदीप या राष्ट्रज्योत होनी चाहिए। 

पापा ने कहा - तथास्तु! मम्मी जी ने भी यही कहा - तथास्तु!

हम सब अत्यंत प्रसन्न हो रहे थे। मैं, पापा-मम्मी जी से जो आशीष अपने शिशु के लिए चाहती थी वह मिल चुका था। 

मुझे दिल्ली लौटे, जब तीन दिन हुए थे तब समाचार मिला कि दीदी को बेटी हुई है। इस नवलक्ष्मी ने, नववर्ष आने की प्रतीक्षा नहीं करके, तीन दिन पहले ही जन्म ले लिया था। मैंने, मेरी मम्मी से बात करके, उन्हें नानी होने की बधाई दी थी। तब मुझे, मम्मी के स्वर में उदासी अनुभव हुई थी। उन्होंने कहा - 

हाँ निकी, सब खुश हैं। मैं और भी अधिक खुश होती, अगर तुम्हारी दीदी को पुत्ररत्न की प्राप्ति होती। 

मैंने कहा - मम्मी, ऐसे न सोचो। काल परिवर्तन के साथ पुत्र या पुत्री का होना पेरेंट्स के लिए अब एक जैसी उपलब्धि हो गई है। 

मम्मी ने कहा - रमणीक, तुम दोनों मेरी बेटियाँ जन्मी थीं। कम ही साथ रहकर तुम्हारे पापा, चले गए थे। अकेले हो जाने पर, तुम दोनों के दायित्व मुझे कठिन लगे थे। सोचती थी कि तुम दोनों में एक, मेरा बेटा होता तो मुझे कम कठिनाई होती। इसी कारण, तुम्हारी दीदी को बेटे की प्राप्ति की हो, मेरी ऐसी अभिलाषा थी। 

तब मैंने, मम्मी से कुछ नहीं कहा था। खुद सोचने लगी थी कि कदाचित, मम्मी की सोच को गलत कहना उचित नहीं होगा। इस की अपेक्षा, उन समाज मान्यताओं और परिवेश को मेरा गलत कहना उचित होगा, जिसमें एक लड़की परिवार के कर्तव्य निर्वहन यथा - शिक्षा पाने, आजीविका अर्जन और कहीं भी बाहर आने जाने, में किसी लड़के की अपेक्षा अधिक, असुरक्षा और चुनौती अनुभव करती है। 

अच्छे बुरे की परख की, नारी के लिए पुरुष से अलग एक कसौटी होना अन्यायपूर्ण होता है। मैं संशय में थी कि, यद्यपि परिवर्तन आरंभ हुआ है मगर कितने और दशक लगेंगे जब एक ही कसौटी पर दोनों की परख की जाने लगेगी। और तब लड़की (नारी) और लड़के (पुरुष) के लिए जीवन में समान अवसर उपलब्ध हुआ करेंगे। 

कुछ दिनों बाद दीदी के घर जाने का प्रश्न उपस्थित हुआ था। अब तक पापा और मम्मी जी, मेरी अवस्था के प्रति अधिक सजग हो गए थे। दोनों ने तय किया कि रमणीक के लिए, अभी कार में लंबी यात्रा ठीक नहीं है। अतः रमणीक घर पर ही रहेगी और वे दोनों दीदी के घर जाएंगे। 

जिस दिन वे दीदी के घर जाने के लिए निकले थे, मैं दो विचार से उदास थी। मैं दीदी की नन्हीं बेटी को गोद लेकर, अपनी आने वाली संभावित बेटी के स्पर्श को अनुभव करना चाहती थी। 

मेरे मन में दूसरा विचार यह चल रहा था कि काश! मैं, दीदी से मिलकर बता पाती कि अब मैं भी माँ होने की दिशा में कदम बढ़ा चुकी हूँ। यह जानने के बाद दीदी, मुझे मेरे पतिदेव का नाम लेकर अत्यंत प्रिय लगते उलहाने देकर चिढ़ाती। तब चिढ़ना दिखाती हुई मैं उसमें आनंद लेती। मैं पहले प्रत्यक्षतः लजाना दिखा कर मुख पर लाज की वह गुलाबी रंगत लाती जिसे सुशांत, नारी का श्रृंगार कहते हैं। फिर दीदी को निर्लज्जता से बताती कि (अधूरी) मैं इनके साथ से ही पूर्ण होती हूँ। यह कहने के बाद पुनः - ‘लाज, नारी का आभूषण होता है’ अपने मुख पर कृत्रिम भावों को प्रकट करके यह चरितार्थ करती। 

दिन व्यतीत होने लगे थे। तब कोरोना वैक्सीन, देश में सफलता से निर्मित की जाकर वरिष्ठ नागरिकों को लगाए जाने लगी थी। भारत ने मानवता के प्रति मैत्री भाव का पुनः परिचय देते हुए, यह वैक्सीन कई देशों को वायुसेना विमानों से पहुँचाई थी। सुशांत ने भी इस पावन कार्य में हिस्सा लेने का सौभाग्य पाया था। 

मेरे गर्भ के 12 सप्ताह होने पर सोनोग्राफी के माध्यम से, गर्भ की स्थिति की जाँच हुई थी। जिसमें सब सामान्य पता चलना सुखद था। फिर कुछ दिन और बीते थे। तब एक दिन सुशांत आए थे। 

मैंने इनसे कहा कि मेरा वजन असामान्य तेजी से बढ़ रहा है। सुशांत मुझे डॉक्टर के पास ले गए थे। सोनोग्राफी फिर से की गई थी। परीक्षण के बाद डॉक्टर ने मुझसे अलग, सुशांत को बात करने बुलाया था। मुझे आशंका हुई कि कोई चिंता वाली बात तो नहीं! मैं सोच में डूबी थी। तब सुशांत आए थे। उनका, मुझे देख कर मंद मंद मुस्कुराना, मुझे भेदपूर्ण लगा था। मैंने तीव्र जिज्ञासा में पूछा - 

सुशांत, क्या बात है? आप ऐसे मुझे क्यों देख रहे हो?

सुशांत ने बनावटी दुःख जताते हुए कहा - ये लो! बच्चे के गर्भ में आते ही, मुझ पर अपनी प्रिय पत्नी को निहारने तक की पाबंदी लग गई। 

मुझे डॉक्टर के कहे की सुनने की उतावली हो रही थी। सुशांत के किए परिहास में मुझे हँसी नहीं आई थी। मैंने कहा - जी, मुझे परेशान न कीजिए, सीधी बात बताईये। 

सुशांत ने बताया - निकी, हमारे दो बच्चे साथ आने वाले हैं। बाकी सब सामान्य है। 

सुनकर मुझे समझ नहीं आया था कि मैं हँसू या रोऊँ! जो हजारों में एक के साथ होता है, वह मेरे साथ होता आया था। सुशांत जैसे श्रेष्ठतम पति और जुड़वाँ बच्चों का होना हजारों में से एक के साथ होता है। 

फिर कोरोना की दूसरी लहर अत्यंत घातक रूप लेकर आई थी। पूरे देश में ऑक्सीजन और दवाओं को लेकर हाहाकार मच गया था। यहाँ देश की वायुसेना ने भूमिका ग्रहण की थी। वायुसेना के विमान, ऑक्सीजन और दवाएं देश के विभिन्न हिस्से में पहुँचा रहे थे। सुशांत फिर, इस पावन कार्य में भी सक्रिय रहे थे। 

जब कोरोना लहर नियंत्रित की जा सकी तब तक मेरे पाँच माह पूरे हुए थे। मेरा  वजन 9 किलो बढ़ गया था। अब गर्भ का आकार मेरे लिए कष्टदायक हो गया था। ऑफिस से, मैंने मातृत्व अवकाश ले लिया था। पापा-मम्मी जी, सब मेरी देखरेख में लगे रहते थे। सुशांत भी, बार बार घर आ-जा रहे थे। कष्टदायी इन दिनों में भी मैं, अपने दो बच्चों के आँचल में आने की कल्पना से रोमाँचित होती थी। प्रायः सोचा करती - क्या हमारे, दोनों बेटियाँ होंगी या दोनों बेटे होंगें या एक बेटी और एक बेटा होगा। 

मैं सोचती बेटी या बेटियाँ हुईं तो मैं, उन्हें अपनी दीदी जैसी बनाऊंगी। जो गलत रास्ते पर बढ़ते, अपने पति, भाई या पिता को अपनी सूझबूझ, तर्क और व्यवहार से रोककर, उन्हें सही रास्ते पर लाने में समर्थ होती हैं। 

अगर बेटा या बेटे हुए तो निश्चित ही उन्हें मैं, सुशांत जैसा बनाऊंगी। जो पेरेंट्स के अच्छे बेटे, राष्ट्र के सपूत, समाज की बेटियों के भ्राता और अपनी पत्नी के लिए योग्यतम पति होते हैं। 

मैं सोचती कि क्या! अपने पापा को जल्दी खो देने पर भी मेरा यह जीवन इतना प्रिय हो सकता था। मुझे लगता कि कदापि प्रिय नहीं होता यदि मुझे पुनः ये ‘मेरे पापा’ और सुशांत जैसे वीर और विशुद्ध पुरुष, पतिदेव रूप में ना मिले होते। 

एक दिन जब सुशांत आए तो मैंने उनसे कहा - जी सुनिए, एक साथ दो बच्चों के लालन पालन के लिए मैं अपना यह जॉब छोड़ दूंगी। अब मैं वह जॉब करुँगी जिसमें आपकी पोस्टिंग जहाँ जहाँ होगी, वहाँ वहाँ मेरा ट्रांसफर हो सके। 

सुशांत ने कहा - ऐसी नौकरियों में आपका, आज जितना पैकेज संभव नहीं होगा। 

मैंने कहा - 

ना हो, मुझे चिंता नहीं। मुझे आपका साथ और प्यार की पूर्ति सर्वप्रथम सुनिश्चित करनी है। हमारे बच्चों के आने पर, आपका समय और प्यार उनमें भी बट जाएगा। ऐसे में मेरे लिए आज जितना समय और प्यार आपसे पाना, आपके साथ रहने पर ही सुनिश्चित हो पाएगा। 

सुशांत परिहास के कोई अवसर नहीं चूकते हैं। उन्होंने तुरंत कहा - 

ये लो, इन देवी जो को मेरे द्वारा, अपने बच्चों के लिए प्यार और समय देने की कल्पना भी सताने लग गई है। 

मैंने तुनक कर कहा - जी आप, मुझे ऐसे ना सताओ। मैंने उनके लिए प्यार और समय देने को अनुचित नहीं कहा है। मैंने तो मुझ पुजारन के लिए, अपने (पति)देव के वरदान की निरंतरता की बात कही है। 

सुशांत ने अब गंभीर होकर कहा - 

निकी, मेरी नौकरी को कभी कुछ हुआ तो आपकी कमाई का कम हो जाना कभी हमारे परिवार के लिए अपर्याप्त न हो जाए। यह तो हमारे लिए ‘विकेट छोड़ कर क्रिकेट खेलना’ जैसा हो जाएगा। 

मैंने इनकी अनकही बात को समझा था। स्पष्ट था कि वे राष्ट्र के लिए अपने अल्पजीवन में, बलिदान की आशंका में ऐसा कह रहे थे। अपने अंदर हो रही इस बात की असहनीय वेदना, मैंने मुख पर प्रकट नहीं होने दी थी। मैंने दृढ़ता से कहा - 

जी, परिस्थिति होने पर कभी कभी ‘विकेट छोड़ कर क्रिकेट खेलना’ होता है। मेरे लिए सर्वाधिक जरूरी आपका साथ और प्यार है। मैं यह जॉब निश्चित ही छोडूंगी। 

अंततः मेरा वजन 15 किलो बढ़ गया था। अपनी हर गतिविधि में सावधानी रखना, मेरे लिए असुविधा की इस स्थिति को और असुविधाजनक कर देता था। 

फिर स्वतंत्रता दिवस आया था। प्रसव एक दो दिन में संभावित लग रहा था। मैं फॉल्स लेबर पेन सहन कर रही थी कि प्रसव में सी-सेक्शन न करना पड़े। 

इस बीच अफगानिस्तान में सत्ता का उलट फेर हुआ था। जिसमें सत्ता, तालिबान के हाथों आ जाने वाला समाचार आया था। यह बात विशेषकर अफगानिस्तानी औरतों के लिए और हमारे देश पर आतंकी खतरे बढ़ने की संभावना वाली थी। 

देश पर संकट बढ़ने से, सुशांत की ड्यूटी पुनः खतरनाक हो जाएगी। इस आशंका ने, मेरे साहस और आत्मविश्वास को डिगा दिया था। मैं लेबर पेन सहन नहीं कर पाई थी। 

मैं, जो नहीं चाहती थी, उस सी-सेक्शन से मेरे बच्चों ने जन्म लिया था। एक बेटी और एक बेटा, एक साथ दो नए, नन्हें सदस्यों का हमारे परिवार में पदार्पण हुआ था। मेरा कष्ट बोध, मेरे पापा, दोनों मम्मियों और सुशांत के मुख पर छाई असीम प्रसन्नता से कम हो रहा था। मैं इन सबके साथ, अपने नन्हें शिशुओं को दुलार भरी दृष्टि से देख रही थी। क्या होता है माँ होना, अब मुझे बहुत कुछ समझ आ गया था। 

जब सुशांत अकेले में मेरे सामने थे तब, डिंपल चीमा के जीवन का स्मरण करते हुए मैंने कहा - 

अब आप सहित, ‘आपके अंश’ भी मेरे जीवन में साथ हो गए हैं। 

इन्हें पता नहीं था कि मैं किस भाव वशीभूत, ‘इनके अंश’ हमारे बच्चों के साथ होने पर जोर दे रही थी। 

इस बात से अनजान इन्होंने आत्मविश्वास से कहा - निकी, यह तो होना ही था। 

मैंने इन पर और पास सो रहे बच्चों के मुख पर बारी बारी से प्यार-दुलार की निगाह की थी। तब निद्रा मुझ पर हावी होने लगी थी। उनींदी में, मैं मुस्कुराते हुए कल्पना करने लगी थी कि ये दोनों बच्चे थोड़े बड़े होने पर कैसे इन पर - 

‘मेरे पापा’ - ‘मेरे पापा’ बोलकर, अपना अपना अधिकार जताएंगे ....              

(समाप्त)

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

11-09-2021

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