Monday, April 11, 2022

परिचय - अरविन्द सक्सेना

 

परिचय - अरविन्द सक्सेना 

20 जून 1967 को जब जोबट जिला झाबुआ (मप्र) में आपने प्रथम पुत्र के रूप में जन्म लिया तब निश्चित ही आपके मम्मी-पापा के हृदय में, हर माँ-पिता के तरह की ही सहज आशाएं-अभिलाषाएं, आपके भविष्य को लेकर रहीं होंगीं।  

आपके पापा शिक्षक (अब सेवानिवृत्त) हैं। वे स्वयं अति आदर्शवादी, समर्पित शिक्षक रहने के साथ ही एक उत्कृष्ट समाज सेवी हैं। झाबुआ जिला जो मप्र के आदिवासी बाहुल अंचलों में से एक है, वहाँ के नागरिकों में शिक्षा एवं जाग्रति के लिए वे सदा सक्रिय एवं समर्पित रहे हैं। 

ऐसे पापा (और मम्मी) के स्नेह लाड़-दुलार की छत्र छाया में पले बढ़े आपमें, यदि सद्-गुणों की प्रधानता है तो यह अचरज की बात कदापि नहीं है। 

आपने अपने इन पालकों एवं अभिलाषाओं के अनुरूप प्रदर्शन करते हुए, प्रारंभिक शिक्षा जोबट में ही प्राप्त की थी। तत्पश्चात जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक डिग्री (बी. ई. - सिविल) प्राप्त की और फिर इंदौर के जीएसआईटी में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में प्रवेश लिया था। 

कदाचित् तब आप इंजीनियरिंग कॉलेज में रीडर एवं प्रोफेसर के रूप में अपना भविष्य देख रहे थे। 

यह वह समय था जब सिविल इंजीनियरिंग ग्रेजुएट्स के लिए जॉब के अवसर अत्यंत बिरले हो रहे थे। ऐसे में मप्रविमं ने बोधघाट परियोजना के माध्यम से एक पनबिजली विद्युत गृह निर्माण कार्य की योजना बनाई थी। तब ही सिविल इंजीनियरों को “सहायक अभियंता” के पद में नियुक्ति के लिए लिखित परीक्षा आयोजित की गई थी। 

इसमें चूँकि अनेक ग्रेजुएट इंजीनियर भाग ले रहे थे अतः यह कठिन प्रतियोगी परीक्षा (Competitive exam) थी। अपनी विलक्षण प्रतिभा से, आपका चयन इसमें हुआ और आपने एम टेक की पढ़ाई, जिसमें प्रोजेक्ट रिपोर्ट सिर्फ जमा किया जाना शेष बचा था, छोड़कर और मप्रविमं में जॉब ज्वाइन करने का निर्णय लिया था। इस कारण आपको एम टेक की डिग्री मिलते मिलते रह गई थी। 

यह आपका नहीं हमारे विमं का भाग्य कहा जाना उचित होगा कि इस बैच में आप सहित सभी 20 चयनित इंजीनियर एक से बढ़कर एक रत्न थे। 

संयोग से जब तक आपके बैच का एकवर्षीय प्रशिक्षण पूर्ण हुआ तब पर्यावरणीय अस्वीकृति से बोधघाट परियोजना रद्द हो गई। ऐसे में आपके बैच के सभी सिविल इंजीनियर की सेवाएं विभाग के अन्य कार्यों में लिए जाने का निर्णय लिया गया। इस समय आपने कंप्यूटर क्षेत्र का चुनाव किया था। 

समय आने पर आपका विवाह “शिल्पा जी” से हुआ। जो आज जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज में केमिस्ट्री डिपार्टमेंट की प्रमुख हैं। आपकी दो प्यारी बेटियां हैं। 

आपकी बैच के रत्नों में से शिशिर तिवारी, प्रशांत गुप्ता, फारुख अहमद एवं आप से मेरा अधिक और घनिष्ट साथ रहा है। इनमें से सर्वप्रथम मेरी भेंट एवं मित्रता शिशिर तिवारी अब (सीएफओ हैं) से वर्ष 1998 में हुई थी। शेष सभी मेरा परिचय वर्ष 2004 से हुआ।  

मेरे सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट टीम में शामिल होने से 2004 से आपसे मेरा परिचय हुआ। हमने 2004 से 2018 तक साथ बैठकर कंप्यूटर पर काम किया था। 2009 से मुझे इस टीम में लीड की भूमिका ग्रहण करनी पड़ी थी। तब छोटी सी रह गई हमारी टीम के सामने दिया गया दायित्व एक बड़ी चुनौती था। आप सहित इस टीम के सभी मेंबर से मुझे आशातीत सहयोग एवं स्नेह मिला था। 

आपके काम करने की शैली, अत्यंत ही सिस्टमैटिक एवं गंभीर जिम्मेदारी बोध सहित रहती है। इसे मैं अपना भाग्य कहूँगा कि आपका एवं टीम के प्रत्येक सदस्य का स्मरणीय योगदान मुझे मिला था। जब मैनेजमेंट मुझे इस कार्य की सफलता का श्रेय देता था तब मैं मानता था कि इसमें मेरी टीम का समर्पित कार्य कारण था। 

एक बार काम के स्ट्रेस एवं टेंशन में, तत्कालीन सीएमडी से मीटिंग में मैंने स्पष्ट शब्दों में ऐसा कह दिया जो किसी बॉस को सुनना गवारा नहीं होता है। तब सीएमडी महोदय ने इससे चिढ़कर मुझे मीटिंग से चले जाने के लिए कहा था। उस शाम जब घर आकर मैंने इस सिलसिले पर विचार किया तो मुझे लगा कि अगले दिन निश्चित ही मेरी नौकरी पर आ जाने वाली है। 

अगले दिन सुबह सीएमडी कार्यालय से ऑफिस खुलते ही कॉल करके, अरविन्द सक्सेना के साथ मुझे आने के लिए कहा गया था। तब आप और मैं कई बुरी संभावना पर चर्चा करते हुए सीएमडी महोदय के सामने गए थे।

उस दिन सीएमडी महोदय ने मुझसे कहा - 

आपके समक्ष चुनौतियों को मैं समझता हूँ। आपके कार्यों एवं प्रयासों से मैं संतुष्ट हूँ। मैं नहीं चाहता कि मेरे मातहत, निष्ठा से कार्य करने वाले कोई कर्मी चिंता एवं भय में रहें। आप अच्छे से कार्य कर रहे हैं। आगे भी निश्चिन्त रहकर अपना कार्य करते रहें। 

यह सुनने के बाद आप और मैं वापस लौट रहे थे। यह जो हुआ था हमारी आशंका के विपरीत था। लौटते हुए आप मुझसे कह रहे थे - सर, एक आईएएस अपने सब-ऑर्डिनेट से इससे अधिक स्पष्ट शब्द में सॉरी नहीं कह सकता है। 

लंबे समय तक हम साथ रहे थे। आप मेरे कार्यालीन कार्यों में तो अधिकतम सहयोगी थे ही मगर व्यक्तिगत रूप से भी मेरे सुख दुःख में हमेशा साथ थे और अब भी हैं। मेरे या परिवार के हर कठिन समय में, मुझे सर्वप्रथम आप सहित कुछ मित्रों का ही स्मरण आता था। हर ऐसे अवसर पर सहयोग एवं साथ देने के लिए, आप सदैव मेरे साथ उपस्थित रहते थे। 

हर वर्ष टैरिफ परिवर्तन होते थे। उसे समझ कर सभी टीम मेंबर एप्लीकेशन में आवश्यक बदलाव करते थे। इन बदलावों के बाद आप सभी संभावना पर विचार कर के, ऐसे कई सैंपल केस में बिलिंग के एक्साम्पल बना कर कमर्शियल कार्यालय को पुष्टि करने के लिए भेजते थे। ताकि सभी श्रेणी के बिल, टैरिफ अनुरूप त्रुटिरहत जारी हो सकें। ऐसा करने से हमारी टीम हमेशा, किसी विकट स्थिति में पड़ने से विभाग को बचाती रही थी। 

ऑफिस में मुझे मिलते साथ का आभार मानते हुए जब मैं भावुक हो जाता, तब एक गीत प्ले किया करता था - 

“एहसान मेरे दिल पर तुम्हारा है दोस्तों, ये दिल तुम्हारे प्यार का मारा है दोस्तों”

आप इनकम टैक्स प्रावधानों को समझते और सभी सदस्यों की ऑनलाइन रिटर्न सबमिट करते रहे थे। आप स्वास्थ्य परेशानियों एवं उनकी दवाओं एवं डॉ. के भी अच्छे जानकार हैं। मैं आपको 75% डॉ. कहता हूँ। सेविंग इन्वेस्टमेंट की भी आपकी जानकारी किसी अर्थशास्त्री से कम नहीं होती है। आपकी सलाह से किए गए इन्वेस्टमेंट पर भी मुझे अच्छा लाभ मिलता रहा है। 

आप क्लासिकल एवं गीत गजल गायन में भी कुशल एवं दक्ष हैं। आप विधिपूर्वक इसकी शिक्षा के लिए तबला, ढोलक एवं हारमोनियम संगत सहित मास्टर को घर बुलवाते हैं। अच्छा साहित्य पढ़ने में भी आपकी रूचि है। आप बागवानी (Gardening) भी पसंद करते हैं। आपके घर के गमलों में सुंदर सुगन्धयुक्त पुष्प देखने मिलते हैं। व्यस्त दिनचर्या में आप अपनी इन हॉबी के लिए भी समय निकालते हैं।  

मेरे बच्चे बड़े हो रहे थे। तब मैं उनके कोर्सेस के बारे में या बाद में विवाह आदि विषय पर, आपसे अपनी चिंता प्रकट करता था। ऐसे अवसर पर आपका सेंटेंस होता था - 

सर, आपका सब कार्य ठीक से होगा। हमेशा आपको करने वाले मिलेंगे। आपको स्वयं कुछ बहुत अधिक करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। 

इस शब्दों के कारण आज मुझे उन्हें सही भविष्यवक्ता भी मानना पड़ता है। 

बहुमुखी प्रतिभा के धनी आप (सिविल इंजीनियर) के साथ, विभाग का व्यवहार मुझे विसंगति पूर्ण लगता है। जिन कार्यों को करते हुए इलेक्ट्रिकल इंजीनियर प्रमोशन ले रहे थे। तब इन्हीं कार्यों को कुशलता से करने पर भी, सिविल की ग्रेडेशन लिस्ट अलग होने से, आपको प्रमोशन नहीं मिल रहे थे। आज भी बड़े काम करते हुए, आप उसी अतिरिक्त कार्यपालन यंत्री के पद पर ही हैं। 

आपके बारे में आपके मम्मी-पापा की भावनाओं के अनुरूप एक गीत मुझे याद आता है - 

“तुझे सूरज कहूँ या चंदा, तुझे दीप कहूँ या तारा, मेरा नाम करेगा रोशन जग में मेरा राज दुलारा”  

दुर्योग से पिछले वर्ष कोविड ने आपकी माँ की छत्रछाया से, आपके परिवार को वंचित कर दिया है। निश्चित ही वे आज जहाँ भी होंगीं उन्हें यही विचार आता होगा 

“मेरे बाद में दुनिया में जिन्दा मेरा नाम रहेगा, जो भी तुझ को देखेगा, तुझे मेरा लाल कहेगा”

उन्हें (माँ को) शत शत नमन - विनम्र श्रद्धांजलि   

आपने नैतिकता एवं मानवता से जीवन यापन करते हुए, अपने मम्मी-पापा की आशाओं-अभिलाषाओं को जीवंत किया है।  

अंत में मैं यह लिखूँगा कि यह मेरा सौभाग्य रहा है कि आप जैसे रत्न कहे जाने वाले कुछ मित्रों का जीवन में मुझे साथ मिला है। 

आशा करता हूँ कि शीघ्र ही आप कंप्यूटर विभाग के प्रमुख होंगे।


Thursday, March 31, 2022

जीवन रस

 

जीवन रस 

थाली में परोसा दिया गया जो भोजन होता है, उसे मैं खा लिया करता हूँ। उसमें क्या पसंद, क्या नहीं पसंद उसका कोई विचार किए बिना, भोज्य का आदर सहित  सेवन से अपनी पेट पूजा कर लिया करता हूँ। मेरे परिवार में सभी इस बात को जानते हैं। 

कभी कभी कोई प्रश्न करता है तो मेरा उत्तर होता है कि मैं जीवन रस, भोजन से नहीं अन्य बातों से ग्रहण करता हूँ। पौष्टिक भोजन मैं अपने जीवन को पुष्ट करने के लिए ग्रहण करता हूँ। 

इतना बताने पर एक सहज प्रश्न उठता है कि क्या वे बातें होतीं हैं जिनसे मुझे अपने जीवन में रस मिलता है? ये बातें, विषय अनेक हो सकते हैं। उनमें से कुछ यहाँ लिख रहा हूँ। 

मुझे जीवन की अलग अलग अवस्था में अलग अलग विषयों में रस (आनंद) मिलता रहा है। बचपन में निश्चित ही मुझे स्वादिष्ट नाश्ता, भोजन एवं पेय और तरह तरह की खाद्-य सामग्री के माध्यम से रस मिल करता था। खेलना, बाल साहित्य पढ़ना, क्रिकेट कमेंट्री सुनना एवं समाचार पत्रों का खेल पृष्ठ एवं संपादकीय पढ़ने में भी मुझे रस आया करता था। 

किशोर वय में गणित के प्रश्न एवं अन्य विषयों के संख्यात्मक प्रश्न (Numericals) हल (Solved) करना भी मुझे किसी गेम खेलने जैसा आनंद देते थे। 17 वर्ष की उम्र में बुलेट (बाइक) चलाना भी मुझे रस देता था। तब स्कूल की पढ़ाई से समय निकाल कर उपन्यास पढ़ना भी मुझे पसंद था।  

किशोर वय से लेकर लगभग पचपन की आयु तक मेरा प्रमुख आनंद विषय, प्रेम रस था। विवाह उपरांत मैं अपनी पत्नी एवं बच्चों में मग्न रहने के पलों में प्रसन्न रहता था। 

37 से लेकर 58 वर्ष के बीच की उम्र में मुझे कंप्यूटर पर काम करने एवं कंप्यूटर सॉफ्टवेयर के ज्ञान वृद्धि के लिए पढ़ना अच्छा लगता था। इसी बीच मैंने अपनी कार मारुति ज़ेन ली थी। तब अवकाश में अपने परिवार के साथ गृहनगर जाना भी मेरे लिए रसमय अनुभव होता था। इसमें ड्राइव करते हुए सांसारिकता (Worldliness) से अलग होकर, अपने पत्नी-बच्चों के साथ रिलैक्स होकर बातें करना मुझे अच्छा लगता था। 

मुझे याद है, बच्चों ने मुझे इतने फुर्सत में एवं बिलकुल अलग तरह से बात करते हुए, ऐसे ही समय में देखा था। कभी आश्चर्य से पूछा भी था - पापा, आप इतने अनूठे तरह से विचार करते हो? 

शायद उनने यह तब कहा था जब एक बार कार चलाते हुए मैं उन्हें बता रहा था - 

एक सामान्य मनुष्य, जीवन में 70 हजार से अधिक बार खाकर भी अतृप्त रहता है। वह हर 4-5 घंटे में फिर भूखा हो जाता है। जब ऐसे ही अतृप्त हमें रह जाना है तो क्यों (यूँ तृप्त होने के असफल प्रयासों के बावजूद) हमें इस बात को अधिक महत्व देना चाहिए कि हमें खाने के लिए क्या क्या चाहिए है। हमें जो सर्व किया गया हो (हम शाकाहारी परिवार से हैं) या जो उपलब्ध हो उसी से उदर पोषण कर लेना चाहिए। तथा आजीविका कमाने में भ्रष्ट या अनैतिक नहीं होना चाहिए। 

यहाँ यह उल्लेख प्रासंगिक होगा कि मैंने आरंभ से ही अपनी दादी, माँ, बहनों सहित पत्नी रचना के द्वारा, इस विवेक से पाक सामग्रियाँ बनाते देखा है कि क्या और कब खाना स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छा होता है।     

मैंने अच्छी बहुत सी बातें पढ़ीं हुईं थीं। कभी एक प्रसंग यह भी पढ़ा था कि -

एक घर में पति, अपनी पत्नी के बनाए भोजन की अत्यंत प्रशंसा करते हुए, उस भोज्य का कम सेवन करता तो पत्नी शिकायत करते हुए कहती - आप जिस भी सामग्री की अधिक प्रशंसा करते हो उसे कम खाते हो। 

पति का उत्तर होता - मेरी प्राणप्रिया, मैं चाहता हूँ जो आपने अच्छा बनाया है उसका रसास्वादन का अवसर परिवार एवं पड़ोस के अधिक से अधिक लोगों को मिले। 

ऐसे ही एक और प्रसंग भी पढ़ा था कि -

एक ऋषि के पास एक माँ, अपने बच्चे की अधिक गुड़ खाने की आदत छुड़ाने का उपाय पूछने गई थी। 

तब ऋषि ने उसे सात दिन बाद आने के लिए कहा था। सात दिन बाद वह माँ फिर पहुँची तब ऋषि ने उसे उपाय बता दिया था। 

माँ ने कहा - आचार्य जी, इतनी सी बात तो आप मुझे उसी दिन बता सकते थे। 

ऋषि ने कहा - उस दिन तक मैं स्वयं, बहुत गुड़ खाया करता था। जब मैं ही कोई काम कर रहा था तब उसे छोड़ने का कोई उपदेश अन्य को कैसे दे सकता था। 

ऐसे छोटे छोटे अच्छे प्रसंगों से, मैंने अपनी आदत बनाई है कि मैं वही बात कहूँ या लिखूँ, जिसे अच्छी मानकर मैं स्वयं अपने आचरण एवं कर्मों में अंगीकार करता हूँ। 

अभी पिछले महीने 23 फरवरी से 7 मार्च तक रचना (मेरी पत्नी) अपनी माँ से मिलने गईं थीं। इस बीच मैंने बचपन से लगी चाय पीने की अपनी आदत त्याग दी है। कारण यह था कि रचना, चाय कुछ वर्ष पूर्व छोड़ चुकीं थीं और ऐसे में उन्हें अब चाय अलग से सिर्फ मेरे लिए बनाना होता था। रचना को तो चाय बनाने में परेशानी नहीं थी, मगर मुझे मेरे अकेले के लिए उन्हें यह करता देखना अच्छा नहीं लगता था। ऐसे जीवन की अंतिम चाय मैंने 23 फरवरी 2022 को पी है। 

बात रस की है तो मुझे अब उन बातों में भोजन से अधिक रस आता है जिनमें मेरे कारण, दूसरों को प्रसन्नता एवं आनंद मिलता है। यह भी एक कारण है कि मैं अब अच्छे साहित्य सृजन में रस लिया करता हूँ। 

मैं सोचता हूँ जीवन कभी तो ऐसा भी जिया जाए जिसमें हमारे लिए, अपनी प्रसन्नता से अधिक दूसरों की प्रसन्नता का महत्व रहे। 


Friday, February 4, 2022

पॉजिटिव वाइब्स (Positive vibes)

 

पॉजिटिव वाइब्स (Positive vibes)

यह घटना 16-17 वर्ष पूर्व की है। हम (अरविंद सर और मैं) ग्वालियर टूर के बाद महाकौशल एक्सप्रेस से जबलपुर लौट रहे थे। हम एसी 2 शयनयान में थे। सतना आने तक क्षितिज से ऊपर उदय होते, तब लालिमा का गोला बने सूर्य ने, नव प्रभात की नई किरणें बिखेरना आरंभ कर दिया था। सतना से जब ट्रेन रवाना हुई तो मुझे अपने बाजू के कूपे के सहयात्रियों की चर्चा स्पष्ट सुनाई पड़ने लगी थी। 

ये लोग थर्मस से चाय कॉफी एवं अपने साथ रखा नाश्ता करते हुए वार्तालाप कर रहे थे। इनमें शायद एक महिला एवं तीन पुरुष थे। मुझे, वार्तालाप में प्रयुक्त की जा रही सधी हुई भाषा और शब्द, अत्यंत सुंदर लग रहे थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वह समूह कदापि साहित्यकारों का था जो किसी संपन्न हुए कार्यक्रम के बाद या आगामी कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए यात्रा कर रहा था। 

इतने वर्ष हुए उनकी चर्चा का विषय एवं अंतर्वस्तु (Contents) का ध्यान मुझे नहीं रह गया है। मुझे सिर्फ यह स्मरण रह गया है कि जीवन में अपने आसपास वैसा वार्तालाप मुझे कम ही सुनने को मिला है। मुझे स्मरण है कि उनकी चर्चा से मेरी यात्रा अत्यंत सुखद लग रही थी। 

शीर्षक के रूप में मेरे लिखे शब्द अँग्रेजी के हैं। इनका प्रयोग लिखने, सुनने एवं देखने में अब आम हुआ है। आरंभ में मुझे इसका अर्थ ही नहीं पता था। तब मैंने गूगल करके इसका अर्थ पढ़ा-समझा था। 

लिखना न होगा कि उन साहित्यकारों की उस समय की चर्चा, ट्रेन के उस कोच में पॉजिटिव वाइब्स निर्मित कर रही थी। मुझे लगता है आज हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि पॉजिटिव वाइब्स (Which create positive emotion/thought vibrations), सकारात्मक भावना/विचार कंपन पैदा करने से सभी को सुखद लगते हैं। यह होते (जानते) हुए भी हम सकारात्मक भावना/विचार युक्त वातावरण कम ही देखते या औरों के लिए निर्मित कर पाते हैं।  

अब मैं मेरे अपने बारे में लिख रहा हूँ। गणित मेरा प्रिय विषय रहा है। अपने जीवन में मैंने अनेकों गणित लगाए हैं। गणित की शब्दावली (Terminology) में एक शब्द “मात्रा” (Limit) का बहुत प्रयोग होता है। 

जीवन में किस बात की कितनी मात्रा होनी चाहिए मैंने यह समझते हुए, लिमिट तय करना अपना स्वभाव बनाया है। मैं संतोषी प्राणी भी हूँ। इससे अब जब मुझे जीवन यापन के लिए आवश्यक एक ठीकठाक सी संपन्नता लगती है तब से मैं धन अर्जन के पीछे नहीं लगता हूँ।  

बहुत से काम हमसे हमारी बाध्यताएं कराती हैं। जब हमारे साथ बाध्यताएं नहीं होती हैं तब हम वह काम करना पसंद करते हैं जो हमारे साथ ही सब को आनंद देते हैं। 

हालांकि भाषा मेरा मुख्य पढ़ने का विषय नहीं रहा था। तब भी मेरा साहित्य के प्रति रुझान किशोर वय से ही रहा था। अब अपने इस शौक (Hobby) के लिए मैं समय लगाया करता हूँ। साहित्य लेखन मेरे शौक एवं जीवन उद्देश्य दोनों की पूर्ति करता है। 

मुझे सामाजिक वातावरण में पॉजिटिव वाइब्स की मात्रा कम लगती है। मैं अपने सृजित साहित्य में वे बातें लिखता हूँ जो पढ़ने वाले के हृदय/मन को पढ़ते समय पॉजिटिव वाइब्स प्रदान करती हैं। 

मैं हास्य-विनोद (Humor) पसंद करता हूँ मगर ऐसा हास्य-विनोद मेरे साहित्य में नहीं होता जो किसी कॉमेडी शो जैसा फूहड़ मनोरंजन (Cheap Entertainment) उपलब्ध कराता है। मेरे साहित्य के पाठक को कहानी में आवश्यक होने पर अच्छे एवं स्वस्थ हास परिहास (Healthy Humor) का आनंद मिलता है। 

धन उपार्जन के लक्ष्य से बनाई जाने वाली वेब सीरीज या सिनेमा जैसी हिंसा, गाली गलौज, क्रोध एवं प्रतिक्रिया की अधिकता एवं सेक्स चर्चा भी मेरे साहित्य में नहीं होती। ये सब इतनी ही मात्रा में होते हैं, जितनी एक सामान्य नागरिक, परिवार-समाज में अनुभव और देखा-सुना करता है। 

मेरे साहित्य में हर बात हो सकती है मगर उसकी मात्रा कितनी हो इस पर मैं पर्याप्त विचार देता हूँ। मेरा साहित्य इस लक्ष्य से निर्मित किया जाता है कि पाठक कोई कोई एक ही नहीं अपितु सर्व पक्ष को देख/समझ पाए। 

मैं सोचता हूँ वह कृति साहित्य नहीं हो सकती है, जो पाठक के मन में पॉजिटिव वेव्स का अनुभव उसके स्वयं के आनंद के लिए तथा उसके माध्यम से औरों का प्रदान करने की प्रेरणा का साधन (Cause) नहीं बनती है। 


Monday, September 20, 2021

पत्नी - सुदर्शना …

 

पत्नी - सुदर्शना … 

धरती पर बिखरे दानों को चुगने एक सुंदर पक्षी, ऊपर से उड़ता हुआ आता देखने के साथ ही मेरी दृष्टि, वहाँ घात लगाए बैठी बिल्ली पर भी पड़ी थी। त्वरित रूप से मेरे मन में पक्षी के प्राण रक्षा के भाव आए थे। मैंने दौड़ लगाई थी। दाना चुगने बैठ चुके पक्षी पर बिल्ली, जब झपटने की तैयारी में थी तभी मेरे पहुँच जाने से पक्षी दूर फुदका, फिर उड़ गया था।

मंदिर, यूँ मैं नियमित नहीं आता हूँ। आज मेरा छब्बीसवां जन्मदिन था और अवकाश का संयोग भी था। मम्मी ने कॉल पर विश करते हुए, दर्शन के लिए मुझे मंदिर जाने को कहा था। इस कारण विलंब से जब मै मंदिर आया तब तक इक्के-दुक्के दर्शनार्थी ही बचे थे। दर्शन के बाद यूँ ही घूमता हुआ मैं मंदिर की छत पर आया था। संयोग से, तभी अनायास ही पक्षी के प्राणों की रक्षा हो गई थी। 

इस स्थान पर आसपास कोई और नहीं था। मंदिर में होने से मिलती शांति का अनुभव करते हुए मैं, वहीं मुंडेर से टिक कर आसमान की ओर निहारने लगा था। तब ही मुझे अपने सामने दिव्य प्रकाश दिखाई पड़ा था। पल भर में ही वह प्रकाश, एक मानव सदृश आकृति में परिवर्तित हो गया था। मुझे, उस दिव्य मानव के मुख से निकली वाणी सुनाई दी थी। वह कह रहे थे - 

प्राण रक्षक की तुम्हारी भावना से प्रसन्न हो मैं, तुम्हें मुझसे दो वरदान माँगने की अनुमति देता हूँ। 

मैं, चमत्कृत हुआ, मंत्रमुग्धता से उन्हें सुन रहा था। कुछ कह नहीं पाया था। तब दिव्य मानव ने ही पुनः कहा था - 

तुम्हारी वय विवाह की है। अतः ये वरदान तुम्हारी वधु के लिए उपयुक्त, योग्य कन्या से सबंधित हैं। पहला वरदान सरल है। दूसरे के चयन में, मैं हर विकल्प में संभावना बताते हुए उसमें से, श्रेष्ठ चयन हेतु तुम्हारी सहायता करूंगा। अब बताओ मनोहर, तुम्हें मुझसे ये वरदान चाहिए हैं?

मैं अचंभित हुआ था, दिव्य मानव मुझे मेरे नाम से संबोधित कर रहे थे। मैंने मन ही मन, उन्हें भगवान सबंधित करना तय किया। फिर कहा - मेरे भगवन, मैं आपकी आज्ञा शिरोधार्य करता हूँ। 

दिव्य मानव ने तब, मेरे सामने अनेक फोटो रखीं थीं फिर कहा - पहला वरदान, इन कन्याओं में से अपनी परिणीता बनाने के लिए तुम्हें, एक का चुनाव करना है। 

मैंने सभी फोटो ध्यानपूर्वक देखे थे। दिव्य मानव ने यह तो सरल वरदान बताया था मगर इन रूपसी कन्याओं में से, एक चुनाव कर पाना मुझे, दूभर कार्य लगा था। कठिनाई से तय करते हुए मैंने उनमें से एक फोटो, दिव्य मानव के हाथ में दे दी थी। 

दिव्य मानव ने तब अन्य फोटो हटाते हुए, पुनः चार फोटो मेरे समक्ष रखे थे। फिर बताया - 

तुम्हारे द्वारा चयनित कन्या का नाम सुदर्शना है। इन चार फोटो में, सुदर्शना के चार रूप हैं। अब दूसरे वरदान में तुम्हें सुदर्शना का कम से कम सुंदर, वह रूप पसंद करना है, जिसका होना तुम अपने जीवनकाल में देखना चाहते हो। 

मैंने चारों तस्वीरों पर दृष्टि डाली थी। इन तस्वीरों में सुदर्शना के क्रमशः यौवना से वृद्धा होने के चार रूप थे। 

अपनी पत्नी का वृद्धा वाला रूप किस पति को पसंद आता है। मैंने चार में से, ‘पहले वरदान’ में दिखाई वाली ही, सुदर्शना की तस्वीर दिव्य मानव को देते हुए कहा - भगवन, मेरी पत्नी का, यह रूप देखना मुझे पसंद होगा। 

दिव्य मानव ने पूछा - मनोहर, इस वरदान के प्राप्त करने का अर्थ तुम्हें समझ आता है?  

मैंने कहा - भगवन, आप ही अर्थ बताइए। 

दिव्य मानव ने बताया - सुदर्शना का यह रूप, अब 4-5 वर्ष ही और रह पाएगा। फिर सुदर्शना के रूप में (क्षीणता) परिवर्तन होते ही, तुम्हारे जीवन का अंत हो जाएगा। 

मैं भयाक्रांत हो गया। मैं इतने कम समय में मरना नहीं चाहता था। मैंने अब बाकी तीन में से पहली तस्वीर उठा कर उन्हें दी थी। इसमें सुदर्शना का ठीकठाक आकर्षक रूप विधमान दिख रहा था। 

दिव्य मानव ने मेरे अनकहे ही आशय को समझा और कहा - मनोहर, सुदर्शना का यह रूप जब तुम्हारे दो बच्चे, 8-10 वर्ष के होंगे तब तक ही रह सकेगा। सुदर्शना के इस रूप के भी क्षीण होने पर, तुम्हारे जीवन का अंत आ जाएगा।   

मेरे शरीर में भय से सिहरन दौड़ गई। किस पापा को पसंद होगा कि जब उसके बच्चे बाल वय में हों, तब ही उनके सिर पर से पिता का साया उठ जाए। वस्तुस्थिति को समझते हुए अब मुझे सुदर्शना की वृद्धा हुई (चौथी वाली) तस्वीर उठानी चाहिए थी मगर मैं, अपने रूप-लावण्य लोभी, भावना संवरण नहीं कर पाया था। मैंने, सुदर्शना जिसमें संभ्रांत महिला दिखाई दे रही थी, वह तस्वीर दिव्य मानव को दी थी।   

दिव्य मानव ने इसे देखते हुए कहा - सुदर्शना के इस रूप में होते तक तुम्हारे बच्चे, बड़े तो हो जाएंगे मगर उनके विवाह नहीं हुए होंगे। 

मैंने दिव्य मानव के आगे कहने के पहले ही, मन मसोसते हुए सुदर्शना की वृद्धा रूप वाली तस्वीर उन्हें दे दी थी। 

इस तस्वीर को लेते हुए, दिव्य मानव ने कहा - तथास्तु! 

मैं, उन्हें दुखी दिखाई दिया तो उन्होंने कहा - मनोहर, तुम्हारे द्वारा सुदर्शना का यह रूप देखना, माँग लेने के बाद एक अच्छी बात होगी। 

मैंने उत्सुकता में पूछ लिया - वह क्या, भगवन!

दिव्य मानव ने कहा - वह यह कि सुदर्शना का यह रूप भी ढ़लता, बदलता जाएगा। तब भी तुम रूप के ऐसे बदलने में भी जीते रह सकोगे। तुम उस दिन मृत्यु को प्राप्त होगे जिस दिन सुदर्शना, अपने कंपकंपाते हाथों में थामे गिलास से तुम्हें औषधि पिला रही होगी। 

अब मुझे स्पष्ट हो चुका था कि इन वरदान के माध्यमों से मैंने अपने लिए, अभी रूप लावण्या वधु सुदर्शना और उसके सहित, अपने दीर्घ जीवन की सुनिश्चितता कर ली थी। 

जब मुझे, दिव्य मानव आकृति मेरे सामने से ओझल होने की तैयारी करते प्रतीत हुई तो मैंने अधीरता से पूछ लिया - 

भगवान, ये तो मुझे बताते जाओ कि सुदर्शना मुझे कहाँ और कैसे मिल सकेगी?

दिव्य मानव ने कहा - शीघ्र ही सुदर्शना का तुमसे मिलने का प्रसंग बनेगा। 

फिर इस वाणी की गूँज मात्र, मेरे कर्णों में रह गई थी। दिव्य मानव, दिव्य प्रकाश में परिवर्तित होते हुए एक सूक्ष्म पुंज होकर ऊपर अनंत आकाश में लुप्त हो गए थे ….

(अगले भाग में समाप्त)

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

20-09-2021   

पत्नी - सुदर्शना (2)… 

मेरे ऑफिस में एक दिन, मैंने अपने फ्रेंड से सुना कि एक नई लड़की ने हमारे प्रोजेक्ट में ज्वाइन किया है। वह अत्यंत रूपवती है। तब मेरी भी इच्छा हुई कि मैं भी उसे देखूँ, फिर भी मैंने इसके लिए अनावश्यक अधीरता प्रदर्शित नहीं की। 

उस संध्या ऑफिस से लौटते समय, जब मैं पार्किंग में अपनी बाइक लेने गया तो देखा कि एक लड़की अपनी स्कूटी, वहाँ खड़ी अन्य गाड़ियों में से निकालने में परेशान हो रही है। मैंने उसकी सहायता करना उचित समझा। मैंने उसके पास जाकर, पूछा - मैं, सहायता करूं? आपकी!    

लड़की ने तब मेरी ओर देखते हुए कहा - जी हाँ, कृपया! 

जैसे ही तब मैंने उसका चेहरा देखा, मुझे ‘दिव्य मानव’ द्वारा मुझे दिखाई, तस्वीर स्मरण आ गई। यह लड़की, उस तस्वीर वाली सुदर्शना थी। मैंने चौंक जाने के भाव छुपाते हुए, उसकी स्कूटी निकाल दी थी। 

उसने, मुझे थैंक यू, कहा था। 

तब मैंने पूछा - आपका नाम सुदर्शना तो नहीं?

अब वह चकित हुई थी। उसने उल्टा प्रश्न किया - आप मेरा नाम कैसे जानते हैं?

मैंने मुस्कुराते हुए झूठ कह दिया - जस्ट अ गेस वर्क, मुझे लगा कि आप पर ऐसा ही कोई नाम शोभा देता है।

सुदर्शना मेरे कहने से लजा गई थी। फिर वह और मैं, अपने अपने रास्ते चल निकले थे। कुछ दिनों तक सुदर्शना और मेरे बीच कुछ विशेष बात नहीं हुई थी। हाँ मैं, सहकर्मियों में उसके रूप की चर्चा होते, जब तब सुना करता था। तब मैं सोच रहा होता था कि रहने दो सबकी रूचि उसमें, आखिर में तो सुदर्शना मेरी ही होनी है।

मैंने एक दिन इंस्टाग्राम में सुदर्शना की खोज की थी। सुदर्शना की आईडी मिल जाने पर मैंने, उसकी एक प्यारी तस्वीर डाउनलोड की थी। 

मैंने, कंप्यूटर एप्लीकेशन के प्रयोग से, उसके साथ अपनी तस्वीर मर्ज की थी। फिर हमारी सयुंक्त फोटो के तीन और संस्करण (Version) क्रिएट किए थे। इन तस्वीरों में क्रमशः, दूसरी में आज से 15 वर्ष बाद, तीसरी में 25 वर्ष बाद, और चौथी में 35 वर्ष बाद के, हम दोनों के लुक्स दर्शित हो रहे थे। 

फिर ऐसे तैयार, इन चारों तस्वीर के प्रिंट आउट लेकर मैंने, लेमिनेशन करा लिए और उन्हें, घर में रख दिए थे। 

बाद के समय में कार्य प्रसंग में हुई सहज मुलाकातों में, हम दोनों करीब आए थे। अंत में, दस माह बाद सुदर्शना और मेरा विवाह हो गया। 

हनीमून के लिए हमने केरल के समुद्रतटीय नगरों में प्रवास किया। उसी बीच एक दोपहर मैंने, पूर्व में लेमिनेट की गईं वे तस्वीरें, सुदर्शना को दिखाईं और पूछा - सुदर्शना इसमें से देखकर बताओ कि तुम्हें, अपने साथ इनमें से किस रूप में मुझे देखना हमेशा पसंद होगा?

सहज प्रवृत्ति अनुरूप उसने, मेरे अभी के रूप वाली तस्वीर पर हाथ रखा था। तब मैंने कहा - अगर, तुम मेरा यह रूप ही देखना चाहोगी, बाद के रूप नहीं देखना चाहोगी तो मुझे, 4-5 वर्ष में ही मरना होगा। अन्यथा 4-5 वर्ष में मेरे मुखड़े की आभा, आगे निरंतर फीकी पड़ती चली जाएगी।   

सुदर्शना ने मेरे मुँह पर अपनी हथेली रखते हुए कहा - नहीं, मनोहर ऐसा अशुभ नहीं कहते। 

तब मैंने, उसे पुनः वे तस्वीरें बताते हुए पूछा - हाँ अब कहो, अब बाकी 3 में से कौनसा मेरा रूप देखना, तुम सहन कर पाओगी? 

सुदर्शना ने हँसते हुए सभी फोटो समेट कर एक ओर रखते हुए कहा - मनोहर, तुम्हें उस रूप के लिए हमारी शक्लों का, 75 वर्ष बाद का संस्करण बनाना होगा। मैं विवाह की हीरक जयंती (Diamond Jubilee) के पूर्व तुमसे बिछुड़ना सहन नहीं कर पाऊँगी। 

मैं, खिसियाया हुआ सा हँसा था। सुदर्शना ने मुझे भगवान के द्वारा कहे गए, शेष 3 डायलाग मारने के अवसर नहीं दिए थे। 

तब समुद्र तट पर चल रही, शीतल जल समीर में मैंने, सुदर्शना को प्यार से अपनी बाँहों में ले लिया था। जब सुदर्शना, मेरी बाँहों में होने की मधुर अनुभूतियों में आनंदविभोर हो रही थी, तब मैं सोच रहा था कि ‘सुंदरता और साथ’ को लेकर, पत्नी का मन कम चंचल होता है। वह, ‘अधिक सुन्दर’ या ‘अधिक अच्छे’ साथ के लिए, भटकना पसंद नहीं करती है। इसलिए पतिव्रता होने में उसे कठिनाई नहीं होती है। 

कुछ मिनटों तक मेरे आलिंगन में रहते हुए ही सुदर्शना ने कहा था - मनोहर, हमें अपने रूप सौंदर्य के कम होते जाने की चिंता क्यों पालनी चाहिए। हममें जो भी शारीरिक कमी एवं परिवर्तन आएंगे वे हमारे परस्पर के साथ रहते हुए ही तो आएंगे। ऐसे रूप परिवर्तन, ना आप, मेरे और ना ही मैं, आपमें रोक सकूँगी। तब हमें ध्यान यह रखना होगा कि हम आपसी साथ को, इस तरह से जियें कि हमारे मन की सुंदरता क्रमशः निखार पाती चली जाए। 

तब मैं सोच रहा था - स्वयं को सबके बीच अच्छे बनाए रखने के लिए शारीरिक रूप के अपेक्षा, ‘मन सुंदर’ रखने का सुदर्शना का यह विचार ही, उपयुक्त है।   

घर लौटने के बाद मैंने एक चित्रकार से, हमारे 35 साल बाद के रूप वाली तस्वीर बड़े आकार में बनवा ली थी। फिर एक सीनरी की तरह, उसे बैठक कक्ष की वॉल पर लगा लिया था। 

इसे देखकर, हमारे परिचित, रिश्तेदार पूछा करते कि इस तस्वीर में आप दोनों से मिलते जुलते, ये लोग कौन हैं? 

इस पर सुदर्शना मुस्कुरा दिया करती थी। मैं उत्तर देता था - यह हम दोनों की ही, अब से 35 वर्ष के बाद की तस्वीर है। 

लोग चकित होकर इस आशय के प्रश्न करते - भला, इस तस्वीर को अभी दीवाल पर लगा लेने का औचित्य क्या है?

मैं कहता - समय निरंतर चलता जाएगा, हम लोगों के रूप, शक्ति आदि शिथिल होती चली जाएगी। इस क्रम में, तस्वीर को देखते हुए हम एक बात निरंतर अपने ध्यान में रखना चाहते हैं। 

लोग पूछते - कौनसी, बात?

इसका उत्तर सुदर्शना देती - 

वह बात यह है कि जब सभी को वृद्धावस्था में भी, सबका प्यारा होना पसंद है तब हमें, तन की नहीं, मन की सुंदरता को निखारने पर ध्यान देना चाहिए …                

(समाप्त)

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

21-09-2021                 

                     


Saturday, September 11, 2021

सीजन 2 - मेरे पापा (10)…

 

सीजन 2 - मेरे पापा (10)…

गर्भ में आते ही, हमारे शिशु को लेकर हमने सपना देखना आरंभ कर दिया था। रात्रि सुशांत मुझसे कह रहे थे - रमणीक, कुलज्योत या कुलदीपक, हमारे संकीर्ण विचारों के द्योतक शब्द हैं। 

आशय नहीं समझकर मैंने पूछा - संकीर्णता! कैसे?

सुशांत ने कहा - हमारे देश में करोड़ों कुल परिवार हैं। ये सब अपने अपने कुल के चिंतन तक सीमित हैं। फिर भी कोई कुलज्योत या कुलदीपक, अपनी चार पाँच पीढ़ी पहले के पूर्वजों का नाम तक नहीं जानते हैं। हम अपनी ही ले लें, हमें ही पता नहीं कि हम, ज्योति और दीपक होकर किनके कुल को प्रकाशमान् कर रहे हैं। 

मुझे अब इनके कहने का आशय समझ आया था। मैंने पूछा - जी, तो इसे लेकर हमारा वृहत् (Broad) चिंतन क्या होना चाहिए? 

सुशांत ने उत्तर दिया - 

यह सरल है। हमें अपने बच्चे के राष्ट्रज्योति और/या राष्ट्रदीपक बनने की कामना करनी चाहिए। आज देश में करोड़ों परिवार के कुलज्योत और कुलदीपक हैं मगर ये हम, अपेक्षित सुखद समाज परिवेश देने में सफल नहीं हुए हैं। माँ या पिता बनते हुए हमें, अपने बच्चे के ‘कुल-’ नहीं ‘राष्ट्र-’ ‘ज्योति’ या ‘दीपक” होने की कामना करनी चाहिए। इससे और इसे हेतु किए प्रयास से, हमारे बच्चे, परिवार को ही नहीं अपितु भारत राष्ट्र को अपना देखने की दृष्टि पाते हैं। ऐसे संस्कारित बच्चे ही, अपने भारत को एक सुखद परिवेश देने की दिशा में अग्रसर हो सकते हैं। तब ही हमारी पीढ़ियों को, सुखद परिवेश में जीवन अवसर मिलने पर भारतीय होने में, सच्चा गर्व बोध का अनुभव मिल सकता है। 

यह सुनकर मैं चकित हुई, सुशांत को देखने लगी थी। मैं सोच रही थी कि स्वयं किसी राष्ट्रदीपक में ही ऐसे विचार हो सकते हैं। तब मुझे, अपने को देखता पाकर, सुशांत ने प्यार से, अपनी ओर खींच लिया था। 

एक सप्ताह बाद, सुशांत ने मुझे दिल्ली की ट्रेन में बैठाया था। इनसे जुदा होना मुझे उदास तो कर रहा था मगर साथ ही डेढ़ माह बाद, पापा-मम्मी जी से मिलने की कल्पना मुझे रोमांचित कर रही थी। मैं सोच रही थी कि जब मैं, दोनों को बताऊंगी कि आप दादा-दादी बनने जा रहे हैं तो वे कितने प्रसन्न होंगें। 

यात्रा में अन्य यात्रियों की तरफ से उदासीन, मैं अपनी कल्पनाओं एवं विचारों के साथ, अपना चाहा एकांत पा रही थी। मैं, गर्भ में शिशु, पुत्र या पुत्री है इस सोच में खोई-सोई रही थी। मेरी झपकी (Nap), सहयात्रियों के स्टेशन पर उतरने की हलचल से टूटी थी। मैंने स्वयं को अपने गंतव्य पर पाया था। कोच में आए कुली को मैंने, ट्रॉली बेग और पिटठू बेग लेने के लिए कहा था। मैं ट्रेन से उतर कर, मुझे लेने आए, पापा के साथ होकर निश्चिंत हुई, कार में बैठ, घर की ओर चल पड़ी थी। मैं सोच रही थी कि - जब मैं गई थी तब एकल जीव थी और आज लौटी हूँ तब, अपने गर्भस्थ जीव सहित दो हो गई हूँ। 

सुशांत या मैंने, अब तक पापा, मम्मी जी को इस बारे में नहीं बताया था। मैं सोच रही थी कि जब दोनों को, मैं यह शुभ समाचार दूँगी तो इनकी प्रतिक्रिया क्या होगी। 

घर पहुँच कर, आशीर्वचनों की अभिलाषा में, मैंने दोनों के बारी बारी चरण स्पर्श किए थे। जब दोनों ने मुझे आशीर्वाद दिए तब मैंने, अपने पेट की ओर आँखों से संकेत करते हुए कहा - 

पापा-मम्मी जी, अब आप दोनों इसे भी आशीष दीजिए। 

यह देखते-सुनते हुए दोनों के मुख पर अभूतपूर्व प्रसन्नता, मैंने देखी थी। पापा ने मुझे अपने कंधे लगाया तो, मम्मी जी भी हमारे साथ मिल गई थीं। मम्मी जी ने कहा - 

स्वागतम् स्वागतम्! कुल रोशन करने वाले इस शिशु का, अपने गृह आगमन पर हार्दिक स्वागत!    

मैंने लजाते हुए कहा - पापा, सुशांत कहते हैं, गर्भ में आया यह जीव, राष्ट्रदीप या राष्ट्रज्योत होनी चाहिए। 

पापा ने कहा - तथास्तु! मम्मी जी ने भी यही कहा - तथास्तु!

हम सब अत्यंत प्रसन्न हो रहे थे। मैं, पापा-मम्मी जी से जो आशीष अपने शिशु के लिए चाहती थी वह मिल चुका था। 

मुझे दिल्ली लौटे, जब तीन दिन हुए थे तब समाचार मिला कि दीदी को बेटी हुई है। इस नवलक्ष्मी ने, नववर्ष आने की प्रतीक्षा नहीं करके, तीन दिन पहले ही जन्म ले लिया था। मैंने, मेरी मम्मी से बात करके, उन्हें नानी होने की बधाई दी थी। तब मुझे, मम्मी के स्वर में उदासी अनुभव हुई थी। उन्होंने कहा - 

हाँ निकी, सब खुश हैं। मैं और भी अधिक खुश होती, अगर तुम्हारी दीदी को पुत्ररत्न की प्राप्ति होती। 

मैंने कहा - मम्मी, ऐसे न सोचो। काल परिवर्तन के साथ पुत्र या पुत्री का होना पेरेंट्स के लिए अब एक जैसी उपलब्धि हो गई है। 

मम्मी ने कहा - रमणीक, तुम दोनों मेरी बेटियाँ जन्मी थीं। कम ही साथ रहकर तुम्हारे पापा, चले गए थे। अकेले हो जाने पर, तुम दोनों के दायित्व मुझे कठिन लगे थे। सोचती थी कि तुम दोनों में एक, मेरा बेटा होता तो मुझे कम कठिनाई होती। इसी कारण, तुम्हारी दीदी को बेटे की प्राप्ति की हो, मेरी ऐसी अभिलाषा थी। 

तब मैंने, मम्मी से कुछ नहीं कहा था। खुद सोचने लगी थी कि कदाचित, मम्मी की सोच को गलत कहना उचित नहीं होगा। इस की अपेक्षा, उन समाज मान्यताओं और परिवेश को मेरा गलत कहना उचित होगा, जिसमें एक लड़की परिवार के कर्तव्य निर्वहन यथा - शिक्षा पाने, आजीविका अर्जन और कहीं भी बाहर आने जाने, में किसी लड़के की अपेक्षा अधिक, असुरक्षा और चुनौती अनुभव करती है। 

अच्छे बुरे की परख की, नारी के लिए पुरुष से अलग एक कसौटी होना अन्यायपूर्ण होता है। मैं संशय में थी कि, यद्यपि परिवर्तन आरंभ हुआ है मगर कितने और दशक लगेंगे जब एक ही कसौटी पर दोनों की परख की जाने लगेगी। और तब लड़की (नारी) और लड़के (पुरुष) के लिए जीवन में समान अवसर उपलब्ध हुआ करेंगे। 

कुछ दिनों बाद दीदी के घर जाने का प्रश्न उपस्थित हुआ था। अब तक पापा और मम्मी जी, मेरी अवस्था के प्रति अधिक सजग हो गए थे। दोनों ने तय किया कि रमणीक के लिए, अभी कार में लंबी यात्रा ठीक नहीं है। अतः रमणीक घर पर ही रहेगी और वे दोनों दीदी के घर जाएंगे। 

जिस दिन वे दीदी के घर जाने के लिए निकले थे, मैं दो विचार से उदास थी। मैं दीदी की नन्हीं बेटी को गोद लेकर, अपनी आने वाली संभावित बेटी के स्पर्श को अनुभव करना चाहती थी। 

मेरे मन में दूसरा विचार यह चल रहा था कि काश! मैं, दीदी से मिलकर बता पाती कि अब मैं भी माँ होने की दिशा में कदम बढ़ा चुकी हूँ। यह जानने के बाद दीदी, मुझे मेरे पतिदेव का नाम लेकर अत्यंत प्रिय लगते उलहाने देकर चिढ़ाती। तब चिढ़ना दिखाती हुई मैं उसमें आनंद लेती। मैं पहले प्रत्यक्षतः लजाना दिखा कर मुख पर लाज की वह गुलाबी रंगत लाती जिसे सुशांत, नारी का श्रृंगार कहते हैं। फिर दीदी को निर्लज्जता से बताती कि (अधूरी) मैं इनके साथ से ही पूर्ण होती हूँ। यह कहने के बाद पुनः - ‘लाज, नारी का आभूषण होता है’ अपने मुख पर कृत्रिम भावों को प्रकट करके यह चरितार्थ करती। 

दिन व्यतीत होने लगे थे। तब कोरोना वैक्सीन, देश में सफलता से निर्मित की जाकर वरिष्ठ नागरिकों को लगाए जाने लगी थी। भारत ने मानवता के प्रति मैत्री भाव का पुनः परिचय देते हुए, यह वैक्सीन कई देशों को वायुसेना विमानों से पहुँचाई थी। सुशांत ने भी इस पावन कार्य में हिस्सा लेने का सौभाग्य पाया था। 

मेरे गर्भ के 12 सप्ताह होने पर सोनोग्राफी के माध्यम से, गर्भ की स्थिति की जाँच हुई थी। जिसमें सब सामान्य पता चलना सुखद था। फिर कुछ दिन और बीते थे। तब एक दिन सुशांत आए थे। 

मैंने इनसे कहा कि मेरा वजन असामान्य तेजी से बढ़ रहा है। सुशांत मुझे डॉक्टर के पास ले गए थे। सोनोग्राफी फिर से की गई थी। परीक्षण के बाद डॉक्टर ने मुझसे अलग, सुशांत को बात करने बुलाया था। मुझे आशंका हुई कि कोई चिंता वाली बात तो नहीं! मैं सोच में डूबी थी। तब सुशांत आए थे। उनका, मुझे देख कर मंद मंद मुस्कुराना, मुझे भेदपूर्ण लगा था। मैंने तीव्र जिज्ञासा में पूछा - 

सुशांत, क्या बात है? आप ऐसे मुझे क्यों देख रहे हो?

सुशांत ने बनावटी दुःख जताते हुए कहा - ये लो! बच्चे के गर्भ में आते ही, मुझ पर अपनी प्रिय पत्नी को निहारने तक की पाबंदी लग गई। 

मुझे डॉक्टर के कहे की सुनने की उतावली हो रही थी। सुशांत के किए परिहास में मुझे हँसी नहीं आई थी। मैंने कहा - जी, मुझे परेशान न कीजिए, सीधी बात बताईये। 

सुशांत ने बताया - निकी, हमारे दो बच्चे साथ आने वाले हैं। बाकी सब सामान्य है। 

सुनकर मुझे समझ नहीं आया था कि मैं हँसू या रोऊँ! जो हजारों में एक के साथ होता है, वह मेरे साथ होता आया था। सुशांत जैसे श्रेष्ठतम पति और जुड़वाँ बच्चों का होना हजारों में से एक के साथ होता है। 

फिर कोरोना की दूसरी लहर अत्यंत घातक रूप लेकर आई थी। पूरे देश में ऑक्सीजन और दवाओं को लेकर हाहाकार मच गया था। यहाँ देश की वायुसेना ने भूमिका ग्रहण की थी। वायुसेना के विमान, ऑक्सीजन और दवाएं देश के विभिन्न हिस्से में पहुँचा रहे थे। सुशांत फिर, इस पावन कार्य में भी सक्रिय रहे थे। 

जब कोरोना लहर नियंत्रित की जा सकी तब तक मेरे पाँच माह पूरे हुए थे। मेरा  वजन 9 किलो बढ़ गया था। अब गर्भ का आकार मेरे लिए कष्टदायक हो गया था। ऑफिस से, मैंने मातृत्व अवकाश ले लिया था। पापा-मम्मी जी, सब मेरी देखरेख में लगे रहते थे। सुशांत भी, बार बार घर आ-जा रहे थे। कष्टदायी इन दिनों में भी मैं, अपने दो बच्चों के आँचल में आने की कल्पना से रोमाँचित होती थी। प्रायः सोचा करती - क्या हमारे, दोनों बेटियाँ होंगी या दोनों बेटे होंगें या एक बेटी और एक बेटा होगा। 

मैं सोचती बेटी या बेटियाँ हुईं तो मैं, उन्हें अपनी दीदी जैसी बनाऊंगी। जो गलत रास्ते पर बढ़ते, अपने पति, भाई या पिता को अपनी सूझबूझ, तर्क और व्यवहार से रोककर, उन्हें सही रास्ते पर लाने में समर्थ होती हैं। 

अगर बेटा या बेटे हुए तो निश्चित ही उन्हें मैं, सुशांत जैसा बनाऊंगी। जो पेरेंट्स के अच्छे बेटे, राष्ट्र के सपूत, समाज की बेटियों के भ्राता और अपनी पत्नी के लिए योग्यतम पति होते हैं। 

मैं सोचती कि क्या! अपने पापा को जल्दी खो देने पर भी मेरा यह जीवन इतना प्रिय हो सकता था। मुझे लगता कि कदापि प्रिय नहीं होता यदि मुझे पुनः ये ‘मेरे पापा’ और सुशांत जैसे वीर और विशुद्ध पुरुष, पतिदेव रूप में ना मिले होते। 

एक दिन जब सुशांत आए तो मैंने उनसे कहा - जी सुनिए, एक साथ दो बच्चों के लालन पालन के लिए मैं अपना यह जॉब छोड़ दूंगी। अब मैं वह जॉब करुँगी जिसमें आपकी पोस्टिंग जहाँ जहाँ होगी, वहाँ वहाँ मेरा ट्रांसफर हो सके। 

सुशांत ने कहा - ऐसी नौकरियों में आपका, आज जितना पैकेज संभव नहीं होगा। 

मैंने कहा - 

ना हो, मुझे चिंता नहीं। मुझे आपका साथ और प्यार की पूर्ति सर्वप्रथम सुनिश्चित करनी है। हमारे बच्चों के आने पर, आपका समय और प्यार उनमें भी बट जाएगा। ऐसे में मेरे लिए आज जितना समय और प्यार आपसे पाना, आपके साथ रहने पर ही सुनिश्चित हो पाएगा। 

सुशांत परिहास के कोई अवसर नहीं चूकते हैं। उन्होंने तुरंत कहा - 

ये लो, इन देवी जो को मेरे द्वारा, अपने बच्चों के लिए प्यार और समय देने की कल्पना भी सताने लग गई है। 

मैंने तुनक कर कहा - जी आप, मुझे ऐसे ना सताओ। मैंने उनके लिए प्यार और समय देने को अनुचित नहीं कहा है। मैंने तो मुझ पुजारन के लिए, अपने (पति)देव के वरदान की निरंतरता की बात कही है। 

सुशांत ने अब गंभीर होकर कहा - 

निकी, मेरी नौकरी को कभी कुछ हुआ तो आपकी कमाई का कम हो जाना कभी हमारे परिवार के लिए अपर्याप्त न हो जाए। यह तो हमारे लिए ‘विकेट छोड़ कर क्रिकेट खेलना’ जैसा हो जाएगा। 

मैंने इनकी अनकही बात को समझा था। स्पष्ट था कि वे राष्ट्र के लिए अपने अल्पजीवन में, बलिदान की आशंका में ऐसा कह रहे थे। अपने अंदर हो रही इस बात की असहनीय वेदना, मैंने मुख पर प्रकट नहीं होने दी थी। मैंने दृढ़ता से कहा - 

जी, परिस्थिति होने पर कभी कभी ‘विकेट छोड़ कर क्रिकेट खेलना’ होता है। मेरे लिए सर्वाधिक जरूरी आपका साथ और प्यार है। मैं यह जॉब निश्चित ही छोडूंगी। 

अंततः मेरा वजन 15 किलो बढ़ गया था। अपनी हर गतिविधि में सावधानी रखना, मेरे लिए असुविधा की इस स्थिति को और असुविधाजनक कर देता था। 

फिर स्वतंत्रता दिवस आया था। प्रसव एक दो दिन में संभावित लग रहा था। मैं फॉल्स लेबर पेन सहन कर रही थी कि प्रसव में सी-सेक्शन न करना पड़े। 

इस बीच अफगानिस्तान में सत्ता का उलट फेर हुआ था। जिसमें सत्ता, तालिबान के हाथों आ जाने वाला समाचार आया था। यह बात विशेषकर अफगानिस्तानी औरतों के लिए और हमारे देश पर आतंकी खतरे बढ़ने की संभावना वाली थी। 

देश पर संकट बढ़ने से, सुशांत की ड्यूटी पुनः खतरनाक हो जाएगी। इस आशंका ने, मेरे साहस और आत्मविश्वास को डिगा दिया था। मैं लेबर पेन सहन नहीं कर पाई थी। 

मैं, जो नहीं चाहती थी, उस सी-सेक्शन से मेरे बच्चों ने जन्म लिया था। एक बेटी और एक बेटा, एक साथ दो नए, नन्हें सदस्यों का हमारे परिवार में पदार्पण हुआ था। मेरा कष्ट बोध, मेरे पापा, दोनों मम्मियों और सुशांत के मुख पर छाई असीम प्रसन्नता से कम हो रहा था। मैं इन सबके साथ, अपने नन्हें शिशुओं को दुलार भरी दृष्टि से देख रही थी। क्या होता है माँ होना, अब मुझे बहुत कुछ समझ आ गया था। 

जब सुशांत अकेले में मेरे सामने थे तब, डिंपल चीमा के जीवन का स्मरण करते हुए मैंने कहा - 

अब आप सहित, ‘आपके अंश’ भी मेरे जीवन में साथ हो गए हैं। 

इन्हें पता नहीं था कि मैं किस भाव वशीभूत, ‘इनके अंश’ हमारे बच्चों के साथ होने पर जोर दे रही थी। 

इस बात से अनजान इन्होंने आत्मविश्वास से कहा - निकी, यह तो होना ही था। 

मैंने इन पर और पास सो रहे बच्चों के मुख पर बारी बारी से प्यार-दुलार की निगाह की थी। तब निद्रा मुझ पर हावी होने लगी थी। उनींदी में, मैं मुस्कुराते हुए कल्पना करने लगी थी कि ये दोनों बच्चे थोड़े बड़े होने पर कैसे इन पर - 

‘मेरे पापा’ - ‘मेरे पापा’ बोलकर, अपना अपना अधिकार जताएंगे ....              

(समाप्त)

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

11-09-2021

Thursday, September 9, 2021

सीजन 2 - मेरे पापा (9)…

 

सीजन 2 - मेरे पापा (9)…

स्वर्ण जयंती शताब्दी एक्सप्रेस से सुबह 7.20 बजे, मैं अंबाला के लिए चल पड़ी थी। मैं अनेक बार किसी किसी गंतव्य के लिए चलती रही थी, मगर आज का मेरा गंतव्य विशेष था। आज मैं उस गंतव्य पर पहुंचने वाली थी, जहाँ मेरी आत्मा पहले ही पहुँची हुई थी (मेरी आत्मा तो मेरे पतिदेव से बंधी हुई थी) और अब 150 मिनट बाद मेरे शरीर को वहाँ पहुंचना था। 

आसपास अन्य यात्रियों की तरफ मेरा ध्यान नहीं था। आरंभ में, मेरा ध्यान सुशांत को साथ लेकर मधुर कल्पनाओं में रहा था। फिर अनायास ही मुझे परमवीर बलिदानी, विक्रम बत्रा की प्रेयसी डिंपल याद आ गईं थीं। विक्रम के जाने के बाद जिन्होंने, स्वयं को उनकी पत्नी मानकर जिया था। वे स्वयं को अन्य किसी से जोड़ नहीं सकीं थीं। मैं सोच रही थी ऐसे में यदि विक्रम से, उनके बच्चे होते तो डिंपल के लिए कितना अच्छा होता। डिंपल के पास एक लक्ष्य होता कि वे परमवीर विक्रम जैसा ही उन्हें भी बनाती और इस तरह से विक्रम तो नहीं मगर विक्रम के अंश साक्षात, जीवन भर उनके साथ होते। 

यह कल्पना किसी भी युवती के लिए भीषण वेदनादायी होती है कि उसके पति, उसे छोड़ अनंत में विलीन हो सकते हैं। डिंपल पर दुखद बीती के स्मरण से, वेदनाकारी यह आशंका मुझे भी होती थी। सुशांत के बच्चे की माँ हो जाने की उतावली मुझे इसलिए रहती थी। इस कटुतम कल्पना में रहते हुए मैं, आज यथार्थ उस गंतव्य पर पहुँचने वाली थी जिसमें सुशांत का साथ मुझे मिलना था। साथ ही मुझे यह भी सुनिश्चित लग रहा था कि इस बार के साथ में, उनका अंश मेरे गर्भ में आ जाने वाला है। 

लगभग अढ़ाई घंटे की यात्रा में रही मेरी इस तंद्रा में, तीन बार सुशांत के ही कॉल से व्यवधान पड़ा था। अंततः ट्रेन अंबाला कैंट स्टेशन पर आ खड़ी हुई थी। 

मेरे कोच के बाहर ही वायुसेना की वेशभूषा में सुशांत दिखाई दिए थे। इन्हें देख मुझे संशय हुआ कि पहले कभी मैंने, इनका इतना अधिक आर्कषक रूप देखा है या नहीं। प्लेटफार्म पर उतरते हुए मेरा मन हुआ था कि मैं इनकी बाँहों में यूँ समा जाऊं, इनके अधरों पर यूँ चुंबन अंकित कर दूँ, ज्यूँ पश्चिमी जोड़ों में खुलेआम देखा जाता है। 

अपनी संस्कृति के स्मरण आ जाने से, मैंने अपनी भावनाओं को नियंत्रण किया था। मैंने अपना ट्राली बेग हैंडल, इनके हाथ में थमाया था। अपने कंधे पर टँगे बेग को व्यवस्थित किया था। फिर शालीनता से मैं, इनके कंधे से लग गई थी। इन्होंने, मुझे एक हाथ से हल्का सा अपनी ओर दबाया था। इस प्रेम भाव से हुए मिलन में मैंने इनके स्पर्श और इनके शरीर की गंध को अपने में रचाते - बसाते हुए परम सुख अनुभव किया था। 

फिर साथ हम प्लेटफॉर्म के बाहर आए थे। मैं, इनके साथ सामने खड़ी कार में पहुँची थी। मेरा सामान इन्होंने कार में रखा था। तब मैं इनके साथ साइड सीट पर बैठकर, हमारे प्रेम बसेरे की ओर चल पड़ी थी। 

सुशांत, ऑफिस से स्टेशन, मुझे घर तक छोड़ने के लिए आए थे। इन्होंने मुझे घर में अंदर छोड़ा फिर कहा - 

रमणीक, तुम खुद ही यहाँ की व्यवस्था समझना, मुझे ड्यूटी पर जल्दी पहुँचना है। मैं शाम को जल्दी आने की कोशिश करूंगा। 

कहते हुए इन्होंने मुझे अपने सीने से लगाकर हल्के से दबाया था। मैं इनसे ऐसे ही लगा रहना चाह रही थी मगर इन्होंने, मेरी दोनों पलकों को हल्के से चूमा था, फिर मुझे छोड़कर, बाय कहते हुए चले गए थे। 

मैंने निरीक्षण किया तो घर व्यवस्थित लगा था। तब डोरबेल बज उठी थी, खोला तो दरवाजे पर कुक था। शायद उसे, सुशांत ने मेरे बारे में बता दिया था। वह अभिवादन करके किचन में जाकर काम करने लगा था। फिर से दरवाजे पर कोई आया जानकर जब मैंने दरवाजा खोला तो इस बार एक साफ सुथरी, अधेड़ महिला मीरा थी। घर की साफ़ सफाई, बर्तन इनके जिम्मे था। महिला होने से ये, कुक जितनी शांत नहीं थी। मीरा, मुझसे कुछ कुछ कहते, पूछते हुए काम कर रही थी। मैं उसकी जिज्ञासा पर उत्तर देते रही थी। कुक काम करने के बाद, टिफिन लेकर जाते हुए बता गया कि वह, सुशांत के लिए टिफिन, ऑफिस गॉर्ड को देता जाएगा। उसने यह भी बताया कि आज वह, देर से आया है अन्यथा वह जल्दी आता है और सुशांत स्वयं अपना टिफिन ले जाते हैं।

ऐसे आने के बाद के दो घंटे में, मैंने यहाँ की सब व्यवस्था समझ ली थी। अब मेरे पास समय था। मैं वर्क फ्रॉम होम, माध्यम से अपनी ऑफिस की जिम्मेदारी निभाने लगी थी। संध्या के समय सुशांत आ गए थे। फिर रात्रि से अगली सुबह तक का पूरा समय नितांत हमारा था। 

अगले दिन से हमारी यही दिनचर्या बन गई थी। हम लव बर्ड्स की तरह अपने बसेरे में प्रेम से रह रहे थे। 

ओवुलेशन के लिए पिछले दो मासिक चक्र के अपने प्रयोग एवं अध्ययन से मुझे अंबाला आने के पाँचवे दिन ओवुलेशन संभावित लगा था। उस दिन से अगले पाँच दिन मैं, पतिदेव से कुछ कहे बिना, विशेष रूप से सजग-सावधान रही थी। 

ये दिन मेरे चाहे अनुसार बीतने के बाद मेरी जिज्ञासा, बच्चों को लेकर सुशांत उपयुक्त समय क्या मानते हैं, यह जानने की हुई थी। मैंने उस रात इनसे, इस विषय की चर्चा छेड़ते हुए पूछा - जी, क्या, अब हमें अपनी सयुंक्त अनुकृति संसार में लाने की सोचना नहीं चाहिए?

सुशांत ने ‘अनुकृति’ प्रयुक्त शब्द से हमारे बच्चे वाला, मेरा आशय समझ लिया था। वे हँसते हुए बोले - 

निकी, इसमें सोचने वाली कोई बात कहाँ है। हम जब भी मिलकर साथ रहे हैं, हमने कोई साधन प्रयोग किया ही नहीं है। इससे स्वतः स्पष्ट है कि हम दोनों में परस्पर सहमति रही है। सहज ही हमारी अनुकृति का जन्म, जब ईश्वर चाहे हम तैयार हैं। 

मैं लजा गई थी। मुझे समझ आ गया था, मेरे पतिदेव भोले नहीं हैं। चूँकि मैंने कभी (साधन प्रयोग की) अन्यथा कोई बात नहीं कही थी। अतएव इन्होंने भाँप लिया था कि मैं, हमारी संतति शीघ्र संसार में लाने की इच्छुक थी।

मैंने फिर कुछ नहीं कहा था। अपना चोर भाव, पकड़े जाने की शर्मिंदगी छुपाने के लिए मैंने, अपना चेहरा इनके सीने से सटा दिया था। सुशांत, कभी हास्य के लिए किसी कमजोरी का लक्ष्य नहीं करते हैं। तब भी विनोदी स्वभाव अनुरूप उन्होंने मुझे छेड़ते हुए कहा था - 

अब और नहीं बाबा! मुझे कल ऑफिस ड्यूटी के लिए भी तो अपनी शक्ति बचाए रखनी है।  

मैंने लजाते हुए कहा - कुछ भी! मैंने ‘और के लिए’ कब कहा है। 

सुशांत ने कहा - निकी, क्या मुख से निकली वाणी ही कुछ कह सकती है? तुम्हारा स्पर्श भी तो मुझसे कुछ कुछ कहता लगता है। 

मैंने कहा - फिर तो आप इस स्पर्श के भाव समझने में भूल कर गए हैं, पतिदेव जी!

इन्होंने तब प्यार से कहा - हो सकता है। मैं, इस शारीरिक हाव-भाव की भाषा (body language) का विशेषज्ञ नहीं हूँ। 

फिर हम सोने की चेष्टा करने लगे थे। सुशांत यह नहीं जानते थे कि उनसे गोपनीय रखते हुए मैंने अपना मंतव्य सिद्ध कर लिया था। जिसकी सफलता-असफलता का परिणाम लगभग पच्चीस दिनों में पता होने वाला था। यह सुखद बात थी कि तब तक मुझे, इनके साथ रहने का अवसर मिलने वाला था। 

ड्यूटी, सुशांत की और वर्क फ्रॉम होम से मेरी भी, चलती जा रही थी। सुखद दिन व्यतीत हो रहे थे। फिर जब समय पर, मेरे पीरिएड्स नहीं आया, तब मुझे आशा बँध गई कि अब शायद मुझे अपने मंतव्य में सफलता मिल गई है। उचित प्रतीत हो रहे दिन, मैंने सुशांत से कहा - जी सुनिए, ड्यूटी से लौटते हुए आप, प्रेगनेंसी टेस्ट किट लेते आइएगा। 

इन्होंने मुझे अपने आलिंगन में लिया और कहा - लगता है आपकी खुशी के माध्यम से मुझे खुशी मिलने वाली है। 

मैंने ओंठों पर प्यार भरी मुस्कान बिखेर कर, मौन उत्तर दिया था। तब ये ऑफिस चले गए थे। 

रात्रि, मैं सोने के ठीक पहले सोच रही थी कि प्रातःकाल बिना इन्हें डिस्टर्ब किए चुपचाप टेस्ट करूंगी। ताकि यदि टेस्ट नेगेटिव रहा तो मेरे मुख पर तुरंत संभावित उदासी और मेरी व्यथा के भाव, ये देख न पाएं। 

अगली सुबह, इस तय बात से विपरीत बात हुई थी। ये नितदिन से उलट, मुझसे पहले जाग गए थे। जब मैं वॉशरूम जाने को उठी तो ये भी मेरे साथ उठ गए। इन्होंने कहा - निकी, डोर खुला रहने दो। 

मैं ऐसा नहीं चाहती थी, मगर इनके कहने का विरोध मुझे कभी उचित नहीं लगता था। दो मिनट पीछे ये वॉशरूम में आए थे। तब तक लिया गया सैंपल, कार्ड पर मैं अप्लाई कर चुकी थी। इन्होंने मुझे अपने पास खींच कर मेरे कन्धों पर अपनी बाँह रख दी थी। मुझे इनके साथ होने से टेस्ट नेगटिव का भय भी लग रहा था मगर इनका साथ भा भी रहा था। हम दोनों निरंतर कार्ड पर टकटकी लगा कर देख रहे थे। तब कार्ड पर कंट्रोल एवं टेस्ट वाली दोनों लाइन उभर आईं थीं। अर्थात मेरी प्रेगनेंसी, पॉजिटिव आई थी। 

मैंने अपनी प्रसन्नता इनसे छुपाने के लिए, अपना चेहरा इनके सीने में छुपा लिया था। इन्होंने समझा कि मैं लजा रही हूँ। अपनी विनोदप्रियता अनुरूप इन्होंने मेरा मजा लेते हुए कहा - निकी, बात इस हद तक पहुँचने के बाद भी मुझसे लजा रही हो। क्या जीवन भर यूँ ही लजाती रहोगी, मुझसे!

मैंने अपना मुखड़ा उनके सीने पर रखे हुए ही बहाना करते हुए कहा - नहीं जी, अभी हमने दाँत ब्रश नहीं किए हैं। इसलिए मैं, आपसे छुप रही हूँ।

तब इन्होंने मेरे ऊपरी हिस्से पर दबाव बढ़ा कर, मुझे अपने सीने से भींचा फिर कहा - तो निकी आप, मेरी बधाई ऐसे लीजिए। 

मैंने भी उनकी नकल में ऐसा ही किया और कहा - जी आपको भी बधाई। 

मुझे इनकी खुशी का अनुमान तो नहीं था, मगर अपने नित्य कर्म करते हुए मैं अत्यधिक आनंदित थी। 

उसी दिन से, हमारे अंश से मेरे गर्भ में आया जीव भी, हमारी चर्चा में प्रमुख एवं प्रिय विषय हो गया था। 

उस रात्रि मैंने कहा - हमारी, कुलज्योति अब मेरे गर्भ में है। 

इन्होंने कहा - निकी, इतने विश्वास से कैसे कह रही हो, कुलदीपक भी तो हो सकता है। (फिर मुझे छेड़ने के लिए) ऐसा भी तो हो सकता है कुलज्योति और कुलदीपक दोनों एक साथ हों।

मैंने यह तो सोचा ही नहीं था। इनके कहने से जब मुझे यह कल्पना हुई तो मेरे हर्ष की सीमा नहीं रही। तब भी प्रत्यक्ष में, मैंने दिखावटी शिकायत के स्वर में इनसे कहा - 

चलो जी, आपको ऐसा कहते हुए मुझ पर दया नहीं आती! मैं कश्मीर की नाजुक सी कली, कैसे इतना सह पाऊँगी। 

सुशांत ने मुख पर समर्पण भाव लाते हुए कहा - निकी, चलो ठीक है, अपनी बात क्षमा सहित मैं वापस ले लेता हूँ। मगर मुझे यह तो बताओ कि आपने, गर्भ में अपनी कुलज्योति होने की घोषणा कैसे की है?

मैंने तब राज खोलते हुए इन्हें बताया - जिस सुबह मुझे अंबाला के लिए रवाना होना था, उसके दो रात पहले मुझे एक स्वप्न आया था। जिसमें मैंने देखा कि हमारी प्यारी छोटी सी एक बेटी है। वह आपको अपनी बाल सुलभ मधुर वाणी में कह रही है - 

‘मेरे पापा’ ….                     

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

09-09-2021