त्याग (Sacrifice) ...
अपनी सेवानिवृत्ति के पश्चात, आज मुझे अपने मन में नित दिन उमड़ आते विचारों को लिपिबद्ध करना अत्यंत प्रिय लगता है। विचारों के उमड़ आने का यह क्रम, मेरी प्रातः कालीन भ्रमण में अधिक चलता है। भ्रमण के बीच उत्पन्न विचारों से बनी, लेखन भावदशा में मैं, यह तय करता हूँ कि वापस घर पहुँच कर, मैं इन्हें लिखूंगा।
फिर प्रायः यह होता है जिस दिन अधिक और अच्छे विचार मेरे मन में होते हैं। उस दिन घर पहुंच कर मैं अपने हिस्से में अधिक कार्य देखता हूँ। तब मैं व्यथित हो जाता हूँ। मुझे लगता है कि लिखने के पहले, अन्य कार्य में लग जाने से मेरे यह विचार विस्मृत हो जाएंगे और फिर बिन लिखे रह जाएंगे।
अनमने ही मैं, अन्य काम करने लग जाता हूँ। तब देखता और सोचता हूँ कि परिवार के हर सदस्य, किसी ने किसी प्रकार से अपने आराम एवं पसंदीदा काम को छोड़ कर, पारिवारिक हित में प्रत्यक्ष रूप से आवश्यक लग रहे काम को प्राथमिकता दे रहे हैं। हर कोई मुझे ऐसे काम में व्यस्त दिखता है। उसके मन में भी मेरे जैसे व्यथित भाव चल रहे होंगे मैं, यह कल्पना कर पाता हूँ। फिर इस निष्कर्ष पर पहुंचता हूँ कि ऐसे परस्पर त्याग से ही हर कोई, हमारे परिवार का सयुंक्त हित सुनिश्चित कर देता है।
मैं बहुत दिन तक, अपने परिवार में प्रमुख होने की जिम्मेदारी अंजाम देते रहा हूँ। अतः जब मेरे परिवार के हित की दिशा में, सब परिजन योगदान करते यूँ तत्पर मिलते हैं तो एक प्रमुख के रूप में, सयुंक्त पारिवारिक उपलब्धि को मैं, अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन मान लेता हूँ। तब मन में उत्पन्न विचारों पर लिखने की अपनी उत्कंठा मैं, त्याग देता हूँ। अपने विचारों को अलिखित ही मनो मस्तिष्क से उड़ जाने देता हूँ। इसे मैं, मन ही मन अपना किया त्याग मान लेता हूँ।
यह अनुभव करते हुए मैं, इस विचार से आनंदित रहता हूँ कि अन्य परिजन के लिए हमारे त्याग, हमारा न्यायप्रियता का द्योतक है। साथ ही यह मानता हूँ कि ऐसे परस्पर त्याग, हमारे साहासिक और निःस्वार्थ कार्य होते हैं, जिन्हें वीर पुरुष और वीरांगनाएं ही कर निभा पाते हैं।
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
13-06-2021
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