Friday, November 20, 2020

मन से मन का मिलन …

 मन से मन का मिलन … 

रात, तन मिल गए थे। तन मिलने के लिए, शर्त यही थी क़ि विवाह हो जाए। 

चूँकि फिरदौस के तीन तलाक पर सुनवाई करते करते, विधुर जज हरिश्चंद्र का दिल फिरदौस पर आया था। तथा -

हरिश्चंद्र के प्रस्ताव को फिरदौस द्वारा स्वीकृत कर लेने से जब विवाह हो ही गया तब, उनमें तन का मिलन, कोई अचरज का विषय था। चुनौती तो, मन से मन के मिलन की थी। 

हरिश्चंद्र एवं फिरदौस के मन मिलने में चुनौतियाँ अधिक थीं। सर्वप्रथम, यह एक स्पष्ट कारण था कि ये दोनों अलग अलग कौम के थे। जिससे, दोनों के धार्मिक विश्वास, पारिवारिक रीति रिवाज एवं खानपान बिलकुल ही विपरीत थे। 

इसके अतिरिक्त 10 साल बड़े-छोटे होने से, दोनों की वैचारिक परिपक्वता का अंतर भी, चुनौती कठिन कर सकता था। 

एक के विधुर एवं एक के तलाकशुदा होने से, दोनों का पिछले दांपत्य का इतिहास था। मानवीय प्रवृत्ति होती है जो बीत चुका होता है, उसकी अच्छी यादगार मस्तिष्क पटल पर बनी रहती हैं। 

ऐसे में, दांपत्य में कभी कभी की विपरीतताओं के समय यह होना सहज-स्वाभाविक था कि हरिश्चंद्र, फिरदौस के व्यवहार की तुलना, अपनी पूर्व (मृत) पत्नी के व्यवहार से करें। ऐसे ही यह भी स्वाभाविक था कि फिरदौस, हरिश्चंद्र की मोहब्बत की परख, अपने पहले शौहर की याद कर करे। 

फिर दोनों ही मन ही मन, अपने अपने पिछले स्पाउस (अच्छी यादगार मन में बसी होने से) से, वर्तमान की तुलना करके, अवसर अवसर पर व्यथित हुआ करें। ऐसा होने पर इनमें, मन मिलन अधिक चुनौतीपूर्ण हो सकता था।       

इससे बीत चुकी सुहागरात के बाद पग पग पर मन भेद के कारण एवं खतरे संभावित थे। 

प्रथम रात्रि पर पत्नी को उपहार दिए जाने की रस्म, हरिश्चंद्र ने भी निभाई थी। फिरदौस को मिला उपहार का बड़ा सा पैकेट, उसने अगली दोपहर खोला था। उपहार में वस्त्र, कसीदाकारी का चूड़ीदार-कुरता एवं ओढ़नी के साथ ही एक स्टाइलिश बुर्का था। आभूषण में सोने की नथ एवं चाँदी की भारी पाजेब भी थी। 

फिरदौस को अचंभा हुआ था कि वस्त्र आभूषण में परंपरागत मुस्लिम औरत की पसंद को ध्यान में रखा गया था। अधिक आश्चर्य तो फिरदौस को, बुर्का देख हुआ था। बुर्के को, कौम के बाहर शादी करने से फिरदौस, त्यागने के लिए खुद को मानसिक रूप से तैयार कर चुकी थी। 

तब भी फिरदौस, बहुत खुश हुई कि हरिश्चंद्र ने फिरदौस की पसंद का गंभीरता से अनुमान किया था। फिरदौस को संतोष हुआ कि हरिश्चंद्र, यूँ फिरदौस की खुशियों की परवाह करेंगे तो उसका, यह दूसरा दांपत्य अत्यंत सुखद रहेगा। 

तब फिरदौस ने पति के पास जाकर उपहार की तारीफ़ की। तब हरिश्चंद्र ने फिरदौस को बाँहों में खींच लिया था। फिरदौस ने प्रतिरोध नहीं किया और हरिश्चंद्र की आँखों में आँखे डाल कर कृत्रिम तुनक प्रदर्शित करते हुए इठलाकर बोली - चलो जी, हम, आपसे बात नहीं करते?

हरिश्चंद्र ने पूछा - आखिर, क्यों भई?

फिरदौस ने कहा - आपने गिफ्ट में बुर्का क्यों दिया? अब से हम बुर्का नहीं पहनना चाहते। 

हरिश्चंद्र ने फिरदौस के गाल पर उंगली फेरते हुए कहा - कठिनाई कोई नहीं है, तुम नहीं पहनना चाहती तो ना पहनना। 

फिरदौस ने हरिश्चंद्र से छेड़खानी करते हुए कहा - आप लाये हो तो बुर्का, आप ही पहनना। 

हरिश्चंद्र ने छेड़छाड़ का आनंद लेते हुए मुस्कुरा कर उत्तर दिया - आपको अच्छा लगेगा हम, जज वाला गाउन पहनने की जगह, बुर्का पहन कर सुनवाई एवं न्याय किया करें?

इस बात से फिरदौस के मन में न्यायालय का एक कल्पना चित्र खिंच गया, जिसमें (हरिश्चंद्र) जज महोदय, बुर्का पहन कर सुनवाई कर रहे हैं। एक मुवक्किल की पैरवी, फिरदौस खुद कर रही है। इस कल्पना से फिरदौस की हँसी छूट पड़ी वह पति की बाँहों में ही खिलखिला कर हँस पड़ी। 

हरिश्चंद्र ने इसका आनंद लेते हुए पूछा - इतने जोर से हँसने की बात क्या है? जरा हमें भी तो बताओ। 

तब फिरदौस ने कहा - नहीं, बुर्का आप पर नहीं जँचेगा, ना आप, ना ही मैं, बुर्का दोनों ही नहीं पहनेंगे। 

तब हरिश्चंद्र जी की बेटी, पापा-पापा कहते हुए, कमरे में आ गई थी। फिरदौस ने पति की बाँहों से निकलते हुए, उसे गोदी में उठा लिया था। तब उसकी चुम्मी लेते हुए कहा - 

अब से आप, पापा-पापा नहीं, मम्मा-मम्मा कहा कीजिये। (फिर) - क्या चाहिए, आपको!

 पूछते हुए फिरदौस उसे लेकर कमरे से चली गई थी। हरिश्चंद्र तब सोचने लगे थे - वेल बिगिन हाफ डन। 

फिर अगले तीन दिन हरिश्चंद्र ने फिरदौस को हर समय खुश देखा था। मगर डाइनिंग टेबल पर फिरदौस, उन्हें गंभीर सी दिखा करती थी। चौथे दिन सुबह, रसोई में फिरदौस, कुक से, वह क्या क्या बनाना जानती है, इस बारे में जानकारी ले रही थी। 

तब, फिरदौस ने कुक से क्या पूछा था वह तो, हरिश्चंद्र नहीं सुन पाए थे मगर, कुक का कहना कि - 

“नहीं, नहीं मैडम जी, हम मांसाहार ना तो खाते हैं ना ही बनाते हैं, हम ब्राह्मण हैं”, 

यह उन्होंने सुन लिया था। हरिश्चंद्र को पूर्ण वृत्तांत समझ आ गया था। बाद में हरिश्चंद्र कोर्ट चले गए थे। 

उस दिन हरिश्चंद्र कोर्ट से लौटे नहीं थे तब, उस संध्या बंगले पर एक गुड्स ऑटो आया। फिरदौस ने देखा, उनके सेवक के दरवाजे खोलने पर, ऑटो से चार कार्टन उतार कर अंदर लाये जा रहे थे। 

फिरदौस ने, ऑटो में आये शॉप के व्यक्ति से पूछा - यह क्या है?  

उसने उत्तर दिया - जज साहब ने, फ्रिज, माइक्रोवेव, गैस चूल्हे एवं कुछ खाना पकाने के बर्तन आर्डर किये थे। वही लेकर आये हैं। 

तब फिरदौस ने, सेवक से, उन्हें स्टोर में रखवा लेने कहा था। 

उस शाम, जब हरिश्चंद्र घर लौटे तब उनके साथ चाय पीते हुए फिरदौस ने उनसे पूछा - 

घर में ये सामान अभी अच्छे ही हैं। आपने नए क्यों खरीदे हैं?

हरिश्चंद्र ने बताया - अपनी जो कुक है, वह शाकाहारी भोजन बनाती है। अतः मांसाहारी खाने के लिए अन्य कुक रखना होगा। इस हेतु यह सामान लगेगा। 

इस पर फिरदौस ने पूछा - आप नॉन वेज खाते हैं?

हरिश्चंद्र ने बताया - नहीं?

फिरदौस ने फिर पूछा - क्या आपकी, नॉन वेज खाना शुरू करने की योजना है?

हरिश्चंद्र ने उत्तर दिया - नहीं, हमारे यहाँ शाकाहार ही खाया जाता है। और जिसे नहीं खाकर मैं, 35 वर्ष का हो गया, उसे अब शुरू करना मुझे अनावश्यक लगता है। 

फिरदौस ने तब पूछा - फिर आपने, मांसाहार पकाये जाने एवं रखने के लिए यह अलग सामग्री क्यों खरीद ली है?  

हरिश्चंद्र ने उत्तर दिया - फिरदौस, आप ने शुरु से नॉन वेज खाना जाना हुआ है। मैं, नहीं चाहता कि अपने नए इस घर में आपको, इसका ना मिलना अखरा करे। 

तब फिरदौस ने कहा - नहीं, मैं यहाँ नॉन वेज नहीं खाउंगी। हमारी बेटी अबोध है, उसे ज्ञान नहीं है कि नॉन वेज उसकी माँ का भोज्य नहीं था। वह, मुझे खाता देख नॉन वेज की मांग कर सकती है। जो ठीक बात नहीं होगी। 

हरिश्चंद्र ने तीखी प्रतिक्रिया के स्वर में कहा - 

फिरदौस, अपने विवाह में कोई भी शर्तें नहीं थीं। आपके, मुझसे विवाह करने से, मैं नहीं चाहता कि आपको, ऐसी कुर्बानी देनी पड़े। 

तब नाटकीय रूप से फिरदौस ने, निर्णयात्मक स्वर में कहा - 

मैं, वकील हूँ। मेरी दलील यह है कि जिसे ना खाते हुए, आप 35 के हो गए, उसे, अपनी 25 की उम्र में मैं छोड़ दूँ तो, मैं मर नहीं जाऊँगी। 

हरिश्चंद्र को कोई उत्तर नहीं सूझा। यह देख फिरदौस ने फिर कहा - जज साहब, आप चुप क्यों हैं? प्रकरण पर फैसला सुनाइये। 

हरिश्चंद्र ने पहले विचार किया, फिर मन ही मन कुछ तय किया, फिर कहा - 

सभी तथ्य एवं दलील सुनने के बाद, यह अदालत पहले तो इस बात की प्रशंसा करती है कि एक वकील जो अपनी सारी दलीलें, अपना पक्ष मजबूत करने के लिए करता है। ऐसे में यहाँ वकील, फिरदौस ने अपने पक्ष में दलील रखने की जगह, न्याय के पक्ष में दलील रखी है। 

अर्थात वकील होते हुए भी, फिरदौस ने जज की भूमिका निभाई है। ऐसे में यह एकल पीठ अदालत, दो न्यायाधीशों की निर्विवाद राय से, यह फैसला सुनाती है कि इस नवदंपत्ति के घर में, एक ही रसोई रहेगी जिसमें शाकाहार भोजन, पूर्ववत बनाया जाता रहेगा। 

साथ ही यह भी आदेश दिया जाता है कि विरुद्ध पक्ष द्वारा, दूसरे किचन के लिए क्रय की गई सामग्री, उपयोग नहीं किये जाने से दुकानदार को, उचित क्षतिपूर्ति भुगतान सहित वापस की जाए। 

फिरदौस ने, हरिश्चंद्र से अनूठी शैली में, अपनी तारीफ किया जाना, अनुभव किया था। वह प्रशंसा से खुश हुई थी। 

फिरदौस के लिए नॉन वेज सुनिश्चित किये जाने का हरिश्चंद्र का प्रयास, फिरदौस को चार दिन में ही दूसरी बड़ी बात लगी थी, जिससे दर्शित होता था कि हरिश्चंद्र, फिरदौस की अपेक्षाओं का अनुमान करते हुए, उसे पूरा करने के प्रति अत्यंत गंभीर रहते हैं। 

यह अनुभव करने के साथ, फिरदौस, हरिश्चंद्र को खड़े होने के लिए कहती है। तब हरिश्चंद्र कौतुहल से खड़े हो जाते हैं। फिरदौस, उनके कंधे पर सिर रखते हुए अपनी दोनों हथेलियाँ हरिश्चंद्र की पीठ पर रखती है। हरिश्चंद्र प्यार से उसकी पीठ थपथपाते हैं। 

तब ऐसी ही पोजीशन में मिनटों खड़ी रहती हुए, फिरदौस स्वर्गिक आनंद की अनुभूति करती है। तब आनंद में सरोबार, उसके मन में विचार आता है कि 

हरिश्चंद्र में वे गुण हैं जिनके होने से उनमें, मानव का परिचय मिलता है 

उसे अब कोई संदेह नहीं रह जाता कि इस विवाह से उनके - 

“तन से तन के मिलन के साथ साथ 

मन से मन का मिलन भी सदा रहेगा ….”  

 --राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

20-11-2020          

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