Sunday, November 15, 2020

मानव परिचय ..

 

मानव परिचय ..  

दिवाली का दूसरा दिन था। शॉप बंद रहनी थी। इसलिए शहर से दूर अपने फार्म (कृषि-भूमि) पर वहाँ, काम की जानकारी लेने के विचार से, मैं अकेला ही गया था। शाम का धुंधलका होने पर वहाँ से मैं, लौट रहा था। तब ग्रामीण सुनसान मार्ग पर, मेरी कार रोकने के लिए, हाथ देती, एक पर्दानशीं स्त्री दिखाई दी। 

कुछ पल के लिए मुझे, कार रोकूँ या नहीं यह द्वंद हुआ। आखिर, मैंने कार रोक दी। वह (शायद) युवती, मेरे साइड आई तो मैंने काँच खोला। मैं कुछ बोलता उसके पूर्व ही उसने मुझसे पूछा - 

आप, क्या मुझे चार मीनार तक की लिफ्ट दे सकते हैं?

अनजान, वह भी, एक बुर्का पहने युवती, मुझे किसी जाल में तो नहीं फ़ांस रही है? इस विचार से मुझे, एकबारगी डर सा लगा। फिर मैं, सुनसान में सहायता मांगती इस औरत की उपेक्षा नहीं कर सका। 

यद्यपि चारमीनार होकर जाना, 10 किमी अतिरिक्त बड़ा रास्ता था। तब भी मैंने, सहमति में सिर हिलाया, साथ ही अपनी साइड वाली सीट की तरफ का गेट खोल दिया। 

युवती की हिचक से यूँ लगा, जैसे वह पीछे की सीट पर बैठना चाहती है। तब मैंने, पहली बार मुहँ खोला उसे बताया - 

पिछली सीट पर, मेरे खेत से लिए फल एवं सब्जी रखें हैं। 

उस पल में शायद उसने, सोचा होगा कि अजनबी आदमी के साथ अकेली कार में होने पर, कोई बड़ा अंतर नहीं पड़ने वाला है कि वह, पीछे या साइड वाली सीट पर बैठे। 

वह साइड बदल कर उस पर आ बैठी थी। वह बैठ चुकी तब मैंने, उसे देखा। वह मेरी ओर नहीं देखते हुए, सामने सड़क पर देख रही थी। मुझे, उसकी आँखों में गहन उदासी ही नहीं अपितु आँसू झिलमिलाते प्रतीत हुए थे। 

यह देख उससे, मैंने, फिर कोई बात नहीं की थी। मैंने कार आगे चला दी थी। अगले दो तीन मिनट में ही, हम दोनों ने ही यह अनुभव कर लिया था कि हमें, एक दूसरे से कोई खतरा नहीं है। 

कुछ सोचते हुए मैंने स्टीरिओ भी बंद कर दिया था। तब रास्ते भर मेरे और उस युवती के बीच ख़ामोशी पसरी रही थी। कनखियों से देख मैंने अनुभव किया था कि बीच बीच में अपने नकाब को थोड़ा हटा कर, हाथ में लिए रुमाल से वह, अपनी आँखे पोंछ लेती थी। 

तब मुझे, उसे लिफ्ट देने का अपना साहस करना उचित प्रतीत हुआ था। पता नहीं बेचारी, किस दर्द की मारी है। 

फिर चार मीनार तक के 45 मिनट की यात्रा में हम, अपनी अपनी सोच में डूबे रहे थे। वह किन विचारों में खोई है मुझे आभास नहीं था। मगर मेरे विचार, उसे लेकर ही चलते रहे थे। 

सर्वप्रथम उसका अन्य कौम की होने पर मेरा विचार गया था। अगले पल मैंने सोचा था कि ईश्वर ने, उसमें और मेरे बीच में एक ही भेद बनाया है - वह, मेरा पुरुष एवं उसका स्त्री होने का है। 

एक अन्य कुदरती भेद समय का दिया हुआ है। उस युवती ने दुनिया में मुझसे, शायद 25 वर्ष बाद जन्म लिया था। यह मात्र मेरा अनुमान था क्योंकि, उसके बुर्के में होने से, मुझे सिर्फ उसकी उदास, गम में डूबी आंखों की एक झलक बस देखने मिली थी। 

उसका सुनसान सड़क पर यूँ गमगीन मिलना मेरे हृदय में एक चुभन दे गया था। मैं, भाव विह्वल हुआ था। मैं सोच रहा था कि भगवान और समय के कारण हमं में प्राकृतिक रूप से थोड़े से कुछ भेद हैं ,मगर हम ने आपस में कितने अधिक कृत्रिम भेद बना लिए हैं। 

उसमें और मेरे बीच में अलग कौम का, एक विशाल से भेद हो गया है। जिससे, मेरे और उसके परिधान में बड़ा अंतर आ गया है। मैं, आवश्यक कपड़े पहने हुए हूँ। वह आवश्यकता से अधिक लिबास में सिमटी-छुपी हुई है। उसके और मेरे, दोनों की भूख का अहसास भी बहुत हद तक एक जैसा ही होगा। उसके हृदय में ख़ुशी एवं दर्द की अनुभूति भी शायद मुझसे ही मिलती जुलती होंगी। 

जीवन में अनुकूलताओं की अभिलाषायें भी हम दोनों में लगभग एक सी होंगी। और जितना लिफ्ट देते हुए उससे, मैं डर रहा था उतना ही कदाचित कार में बैठते हुए वह, मुझसे डर रही होगी। 

आगे मैं सोच रहा था कि - कितने सारे भेद, हमने अपने समाज में बना लिए हैं। रुपया पैसा बनाकर हम किसी को धनवान, किसी को निर्धन कहने लगे हैं। पढ़ाई लिखाई के अवसर आपस में, कम ज्यादा रखकर, किसी को ज्ञानी तो, किसी को अपढ़ कहने लगे हैं। 

इतना तक ही होता तो भी ज्यादा चिंता की बात नहीं थी। मगर दुनिया और समाज में गढ़ गए भेदों के आधार पर, परस्पर कोई इतिहास नहीं होने पर भी, बिलकुल ही अजनबी लोगों में हम, किसी से नफरत और किसी से अपनापन मान लेते हैं। इस नफरत या प्रेम का आधार सिर्फ कौम, भाषा या देश आदि का अलग या एक होना हो जाता है। 

मुझे विचार आया कि दुनिया में भेजने के पहले ईश्वर, हर मनुष्य के मन एवं अंग-प्रत्यंग एक ही साँचे में गढ़ता है। मगर दुनिया में जन्मते ही, उसके साथ कितने अलग अलग टैग लगते चले जाते हैं। 

जीवन अनुकूलतायें सभी को एक सी चाहिए। अपने लिए ख्याति और आदर की चाह सभी की एक सी होती हैं। हम सभी को, अपनों के संयोग और वियोग की ख़ुशी या गम में, एक ही जैसे अनुभव होते हैं। फिर भी प्रत्येक मनुष्य के अपने स्वयं के लिए तथा अन्य के लिए कामनायें एवं मापदंड इतने अलग क्यूँ होते हैं?

इन्हीं विचार-मंथन में डूबा मैं, कार चलाता रहा था। चार मीनार आने पर मैंने गाड़ी रोकी थी। तब युवती ने मुझसे मोबाइल नं. पूछा था। मैंने, पर्स में से अपना एक कार्ड उसे दिया था। 

वह गेट खोल कर उतरी थी। उसने झुक कर मुझे देखते हुए शुक्रिया कहा था और वापिस गेट बंद कर दिया था। फिर जब, वह चल दी एवं आगे की एक गली में मुड़ चुकी तब मैंने, कार अपने घर के मार्ग में चला दी थी। 

इसके लगभग एक महीने बाद मुझे फेसबुक पर किसी, एडवोकेट फिरदौस की रिक्वेस्ट आई थी। म्यूच्यूअल फ्रेंड कोई नहीं थे। उसकी फेसबुक भी लॉक थी। मेरी जानने की उत्सुकता में मैंने, रिक्वेस्ट एक्सेप्ट कर ली थी। उसकी वॉल पर स्क्रॉल करते हुए कुछ फोटो से मुझे, वह लिफ्ट लेने वाली युवती सी लगी थी। दरअसल यहां भी, उसके फोटो बुर्के में ही थे। 

मुझे अचरज सा हुआ कि अधिवक्ता होते हुए भी, कोई फिरदौस, अपने नकाब से बाहर नहीं आ पाती है। फिर यह सोचते हुए कि यह, उसके और उसके परिवार के निजी विषय हैं, उसे लेकर मैंने, अपने दिमाग में से विचार अलग कर दिए थे। 

फिर, दो महीने और बीते थे। एक सुबह फिरदौस की ओर से मुझे मैसेंजर (इनबॉक्स) में एक संदेश दिखाई दिया। 

संदेश हिंदी में था। फिरदौस ने मुझे, सर संबोधित करते हुए लिखा था- 

“मैं वही पर्दानशीं औरत हूँ जिसे आपने, 3 महीने पूर्व, चारमीनार तक कार में लिफ्ट दी थी। उस सुनसान जगह में खुद के द्वारा ही, लिफ्ट मांगने पर भी मुझे, आपकी साइड वाली सीट पर बैठते हुए डर लगा था। मुझे लग रहा था कि मैं, अपने ऊपर अनाचार और शायद अपनी हत्या को स्वयं ही बुलावा दे रहीं हूँ। मगर उस दिन जिस विपदा में मैं थी, उसमें, अपने पर ऐसी आशंकाओं को मैंने दरकिनार किया था। मैं, कार में आपके साथ अकेली होते हुए भी, आपके द्वारा सुरक्षित, मेरे गन्तव्य पर पहुँचाई गई थी। 

एक पराये पुरुष (आप) से ना डरने का कारण यह था कि उस दिन, जिसे मैं, अपना शौहर जानती थी उसने ही मुझसे, अपनों जैसा व्यवहार नहीं किया था। उस दिन मैं, शौहर के साथ अपनी आपा के घर गई थी। वहाँ हँसी मजाक की चल रहीं बातों में, आपा के देवर ने, मेरे शौहर के सामने एक मजाक कर दिया था। 

उसने कह दिया कि सब, मेरी शादी की बात करते हैं। मैं, उन्हें कैसे बताऊँ कि मैं फिरदौस से शादी करना चाहता हूँ। जिस दिन फिरदौस का तलाक हो जाएगा, उस दिन मैं, फिरदौस से शादी कर लूँगा। 

इस बात में कोई गंभीरता नहीं थी। होती तो वह ऐसा, क्या, मेरे शौहर के सामने कहता?

मेरा शौहर इस बात से तमतमाया हुआ था। उसकी बाइक पर पीछे बैठ कर वापसी में, अपनी सफाई में मैंने, यही बात कही थी। मैंने बताया था कि मेरा, उससे कोई संबंध नहीं हैं। मेरे शौहर ने, मेरा विश्वास नहीं किया था। 

बीच रास्ते में उसने मेरे सभी जेवर, पर्स आदि छीन लिए थे। फिर तीन बार तलाक कह कर उसने, मुझे उस सुनसान जगह में, छोड़ दिया था। तब मैंने, आपसे लिफ्ट ली थी। ऐसे चारमीनार में अपने अब्बा के घर पहुँच सकी थी। 

मैं अधिवक्ता हूँ। जानती हूँ देश में तीन तलाक अब, गैरकानूनी हो गया है। अभी मैं, अपने तथाकथित शौहर से गैरकानूनी तलाक की लड़ाई, अदालत में लड़ रही हूँ। शौहर अभी, हवालात की हवा खा रहा है।  

यह सब मैं, आपको इसलिए लिख रही हूँ कि आपने, उस दिन मेरी विपत्ति के समय, कार में जिस तरह मेरे साथ व्यवहार किया वह सभी के लिए अनुकरणीय है। मेरी लाचारी की उस परिस्थिति में आपने, मेरी निजता में, झाँकने का जरा भी प्रयास नहीं किया था। 

इस संदेश के माध्यम से अंत में मैं, आपको यह बताना चाह रही हूँ कि जो आप में है वह, एक मानव होने का परिचय है। 

--फिरदौस 

पढ़ने के बाद फिरदौस को, अगला मैसेज मैंने किया था। जिसमें मैंने पूछा - मैं, लिखने का शौक़ीन व्यक्ति हूँ। आपका नाम बदलकर इसे, मैं क्या, अपना संस्मरण के बतौर प्रकाशित कर सकता हूँ। 

फिरदौस ने रिप्लाई तुरंत नहीं दिया था। तब मैं, सोचने लगा कि -

कहीं मैंने, अपना मानव परिचय तो नहीं खो दिया?

दो दिन बाद फिरदौस का रिप्लाई आया, लिखा था - 

सर, बिलकुल, आप प्रकाशित कीजिये। ताकि कोई भी औरत, यूँ मर्दाना जुल्म के शिकार होने से बच सके।  इस हेतु आपको, फिरदौस नाम बदलने की भी जरूरत नहीं। आप एडवोकेट फिरदौस नाम के उल्लेख सहित ही अपना संस्मरण प्रकाशित कीजिये।                    

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

15-11-2020


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