Wednesday, September 16, 2020

पापा ..

 पापा .. 

ऑफिस जाने के समय में वे प्रायः दिखाई पड़ते थे तब ज्यादा समय नहीं होता था कि मैं, उनसे विस्तृत कुछ कह पाती। आज मेट्रो से वापसी के समय में भी, जब पहली बार वे प्रौढ़ व्यक्ति स्टेशन पर खड़े दिखाई पड़े तो मैं, अपने को रोक न सकी थी। वापसी होने से, आज समय था कि वे यदि सहमत करें तो मैं, उनसे बात कर सकूँ । 

मैं उनके पास ही जाकर खड़ी हो गई थी। उनका ध्यान, अपनी ओर खींचने के लिए मैंने कहा - नमस्ते सर, मैं रमणीक हूँ। आपके समय पर ही, ऑफिस जाते हुए प्रायः मेट्रो में, आपके साथ ही यात्रा किया करती हूँ। 

उन्होंने उत्तर में कहा - हाँ, मेरे नोटिस में भी यह बात आई है। 

तभी मेट्रो ट्रेन, प्लेटफॉर्म पर आते दिखी थी। अतः बात बीच में खत्म हुई थी। मैं, सप्रयास, उनके पीछे ही मेट्रो में चढ़ी थी एवं जिस सीट पर वे बैठे, उनके साथ वाली खाली सीट में लपककर, जा बैठी थी। 

फिर मैंने, उनसे पुनः बात छेड़ी, मैंने पूछा - सर आप ग्रेटर कैलाश ही जायेंगे ना?

उन्होंने मुझे गौर से देखते हुए संक्षिप्त उत्तर दिया - जी हाँ। 

मैंने फिर कहा - अगर आपके पास थोड़ा समय हो तो किसी रेस्टोरेंट में, मैं आपसे कॉफी के साथ कुछ बात करना चाहती हूँ। 

इस पर वे थोड़े विचार में पड़ते दिखाई दिए, फिर उन्होंने हामी में सिर हिलाया। 

इसके बाद के 20 मिनट के सफर में वे अपने लैपटॉप पर एवं मैं अपने मोबाइल पर कोई कोई काम में व्यस्त रहे थे। ग्रेटर कैलाश में उतरने के बाद, मैं ही उन्हें एक अच्छे रेस्टोरेंट में ले गई। मैंने कॉफी एवं कुछ स्नैक्स आर्डर किये। फिर बात आरंभ करते हुए कहा - 

सर पिछले चार महीनों से ऑफिस के जाने के समय में मैंने, कई बार आपके साथ यात्रा की हैं। शायद आपने ज्यादा ध्यान नहीं दिया है मगर इन यात्राओं में मेरा ध्यान एक तरह से आप पर ही केंद्रित रहा है। आपने इसे यदि अनुभव किया हो तो आप अन्यथा कुछ तो नहीं सोचते हैं, मुझे यह शंका हुई है। अतः अपनी सफाई में कहने के लिए ही मैंने कॉफी हेतु आपसे आग्रह किया है। 

उन्होंने खामोशी में ही मुझे प्रश्नवाचक दृष्टि देखा। तब मैंने आगे अपनी बात कही - 

सर, मैं 2009 में अपने पापा को खो चुकीं हूँ। तब में बारहवीं में पढ़ती थी। यह एक संयोग है कि आप मेरे पापा के हमशक्ल हैं। यही कारण है कि जब से आपको मैंने देखा है, मैं यात्रा में जान बूझकर आपके आसपास ही रहती आईं हूँ। मेरी दृष्टि आपको, मेरे अपने (दिवंगत) पापा जैसे ही देखती है। आप में अनायास मेरी रूचि इस कारण है।  

मेरी कही बात के बाद उन्होंने पहली बार अपने बारे में बताया कि - मैं सुधीर पाण्डे, एनडीएमसी में मुख्य अभियंता हूँ एवं दो महीने बाद रिटायर हो जाने वाला हूँ। 

यह सुन कर मैं चौंक गई थी। तब बेयरा हमारा आर्डर सर्व करने आ गया था। बेयरे के जाने के बाद, कॉफी का घूँट भरते हुए मैंने जिज्ञासा पूर्वक जानना चाहा - सर, आप इस रैंक के अधिकारी हैं फिर भी मेट्रो में चलते हैं? 

उन्होंने कहा - हाँ ऑफिस तक पहुँचना मेरा निजी कार्य होता है। इसलिए इसके लिए मैं विभागीय गाड़ी प्रयोग नहीं करता हूँ। 

उनकी बात ने मुझे प्रभावित किया मैंने कहा - आज ऐसा करते देखा नहीं जाता इसलिए मुझे तनिक अचरज हुआ, मगर ऐसे ही आदर्श मेरे पापा के भी होते थे। किसी दिन मैं, आपको लंच पर अपने घर आमंत्रित कर आप को एलबम दिखाऊँगी आप स्वयं देख सकेंगे कि मेरे पापा, आपसे दिखने में कितने समान थे। 

उन्होंने हँस कर उत्तर दिया - जरूर बेटी। मैं अपनी पत्नी सहित आकर आपके आमंत्रण का मान रखूँगा। 

फिर मैंने अपना मोबाइल नं उन्हें दिया था एवं उनसे, उनका नं लिया था। हमने अपने अपने निवास की जानकारी भी शेयर की थी। उनके एवं मेरे घर में आधे किमी की ही दूरी थी। 

कॉफी के बाद, बिल मेरे चाहने के विपरीत उन्होंने अदा किया था। फिर हम अपने अपने घर की ओर चल दिए थे। उस दिन मैं, एक घंटे विलंब से घर पहुँची थी। तब चिंता से बुझा हुआ मेरी माँ का चेहरा, मुझे आया देख, खिल उठा था। उन्होंने पूछा - निकी, देर क्यूँ हुई है?

मैंने चहक हुए उत्तर दिया - माँ, मै उन सर के साथ, कॉफी लेकर आई हूँ।  

दरअसल पापा जैसे दिखते उन सर की चर्चा मैंने माँ से पहले ही कर रखी थी। मेरे उत्तर पर माँ परेशान हुईं बोलीं - बेटी क्यों अंजान व्यक्ति से मिलने का खतरा ले रही हो ? पापा जैसे दिखने से कोई पापा हो तो नहीं जाता! तुम जानती तो हो उस पत्रकार की करतूत, जिसने अपनी बेटी की सहेली तक से नीयत खराब की थी। 

मैंने कहा - माँ, मगर वे मुझे वैसे नहीं लगते हैं। मैंने उनसे लंच के लिए किसी दिन घर पर आमंत्रित करने की स्वीकृति ली है। जिस दिन वे घर आएँगे आप स्वयं देख लेना। 

माँ के मुखड़े पर चिंता की लकीरें उभर आईं वे बोलीं - हे भगवान, तुम खतरों को ऐसे क्यों घर का रास्ता दिखाती हो?

मैंने कहा - नहीं माँ, आप चिंता न करो वे ख़राब व्यक्ति नहीं हैं। उन्होंने स्वीकृति देते हुए अकेले आने की जगह अपनी पत्नी को साथ लेकर आने की बात कही है। इससे आप समझ सकतीं हैं कि वे पारिवारिक संबंधों के तौर तरीकों को जानते हैं।    

माँ को इस उत्तर से तसल्ली हुई तब भी वे बोलीं - तुम्हारे जीजू को मगर यह पसंद नहीं होगा। 

जीजू के जिक्र से मुझे वितृष्णा से हुई मैंने कहा - माँ, आप दीदी या उन्हें यह मत बताना। उन्हें घर न बुलाने से मुझे दुःख होगा। 

माँ चुप हो गईं थीं। वे मुझे उदास देखना पसंद नहीं करतीं थीं। फिर एक रविवार दोपहर पर वे सपत्नीक हमारे घर आये थे। साथ ही एक तनिक भारी सा उपहार उनके हाथों में था जिसे मैंने सहायता कर सेंटर टेबल पर रखवाया था। साथ ही कहा था - सर, इस औपचारिकता में पड़ने की क्या आवश्यकता थी। 

उनकी पत्नी ने उत्तर दिया था - रमणीक, जब तुम इनमें अपने पापा को देखती हो फिर अगर ये तुम पर अपनी बेटी की तरह दृष्टि रखें तो वह औपचारिकता तो नहीं कहलाएगी। 

मेरी माँ, दोनों को देख और ऑन्टी के इस उत्तर से निश्चिंत दिखने लगीं थीं। मैंने लंच के पूर्व उन्हें पुराने एल्बम दिखाये थे। जिसे देख ऑन्टी ने ही परिहास में कहा - सच में तुम्हारे पापा एवं ये, भगवान द्वारा एक ही साँचे में गढ़े गए लगते हैं। 

मेरी माँ, ऑन्टी की बात से भावुक दिखाई पड़ीं उन्होंने सहमति में कहा - सच में मुझे भी यही लगता है। 

सर कम बोलते हुए, हँसते-मुस्कुराते हुए, हम सबके साथ का आनंद लेते रहे। फिर हम सभी ने एक साथ लंच लिया। उन्होंने मेरी माँ से प्रशंसा करते हुए कहा - भाभी जी, आपने एक एक सामग्री अत्यंत स्वादिष्ट बनाई है। हमें रमणीक ने आमंत्रित नहीं किया होता तो निश्चित ही इसके स्वाद से वंचित होते। 

मेरी माँ ने उत्तर में कहा - भाई साहब, इसके लिए प्रशंसा, रमणीक की ही कीजिये। यही सुबह से, मेरे साथ रसोई में लगी है। इसने यह कहते हुए सब सामग्री तैयार करवाई है कि पापा के लिए बनानी है। 

इस पर सर, ने मुझे स्नेह से देखा एवं मुस्कुराये थे मगर कहा कुछ नहीं था। लंच के बाद फिर कुछ समय वे रुके थे। तब मैंने पूछा था - सर, आपके तौर तरीके आपकी बड़ी पोस्ट से कुछ भिन्न हैं। आप आज के चलन के विपरीत ऐसा कैसे कर लेते हैं? 

इस पर उनका उत्तर अत्यंत प्रेरणादायी था, उन्होंने कहा - बेटी कुछ बातें मैंने अपनी माँ के जीवन से बिना उनके कुछ कहे-सुने सीखीं थीं। उन्हें ही अपने आचरण एवं व्यवहार में मैंने लिया है। 

मेरी उत्सुकता जागी थी मैंने पूछा - कौन सी बातें, सर ?

उन्होंने बताया - मैंने बचपन से ही देखा था कि माँ, हमारे सयुंक्त परिवार में घर की आधार स्तंभ थीं। रसोई से लेकर हमारे लालन पालन एवं शिक्षा, सभी में उनकी प्रमुख भूमिका होती थी। मगर घर के बाहर उनकी पहचान अत्यंत सीमित थी। तात्पर्य यह कि परिवार एवं समाज के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान उनका होता था, मगर उसका प्रत्यक्ष श्रेय, कुछ उन्हें मिलता दिखता नहीं था। पूरे घर परिवार के लिए समर्पित रहने से उन्हें आराम को समय नहीं होता। हम सबको तो अच्छा खिलातीं-पिलातीं एवं पहनातीं मगर स्वयं के उपभोगों के प्रति उदासीन रहतीं थीं। अपनी इंजीनियरिंग की पढाई के बाद मैंने एक दिन उनसे पूछा था - माँ, आपने सबके सुख की चिंता तो रखी है मगर अपने लिए जीवन में सुख की चिंता नहीं की है। आपको अपने त्याग का श्रेय भी कुछ कहीं मिलता नहीं, कैसे ऐसा सब कर लेतीं हैं, आप? इस पर उन्होंने हँसते हुए उत्तर दिया था - बेटे, तुम्हें यह देखने की दृष्टि मिल गई है। यह मेरे लिए इतनी सुखद अनुभूति है कि जिसके आगे कोई पहचान या किसी श्रेय से मिलने वाला सुख, छोटा ही लगता है। 

मैंने फिर उनसे पूछा - लेकिन आपकी माँ ने कभी यह कहा था कि आप सादगी का जीवन जीना?  

सर ने उत्तर दिया - ऐसा उन्होंने नहीं कहा था। उनका कार्य क्षेत्र, घर एवं परिवार रहा था। जिसमें उन्होंने सादगी में सुख की परिभाषा बताई थी। मेरी शिक्षा अनुरूप मेरा कार्य क्षेत्र एक सार्वजनिक सिस्टम रहा है। मैंने देश और समाज को अपना घर एवं परिवार समझा है एवं माँ जैसे ही अपनी पहचान एवं श्रेय के झमेले में नहीं पड़ा। मैंने भी प्रत्यक्ष उपभोगों में मिलने दिखने वाले सुख की अपेक्षा अपने दायित्वों के साथ न्याय करने की अनुभूति में सुख अनुभव किया है। इसलिए तुम मुझे ऐसे सादा रूप में देख रही हो। 

सर एवं ऑन्टी फिर चलीं गईं थीं। उनके हमारे घर आने की घटना एवं उनसे सुनी बातों ने पैसे की चकाचौंध से प्रभावित मेरी सोच पर शंका उत्पन्न कर दी थी। मेरे दिमाग में कितने ही प्रश्न उत्पन्न किये थे। 

मैं सोचने लगी थी कि जीवन सार्थकता, क्या आडंबर विहीन सादगी में है ? 

या 

आडंबर एवं मान प्रतिष्ठा एवं प्रसिध्दि की जीवन शैली में है ?

क्या अपनी कोई पहचान प्राप्त कर, उपभोग-प्रधान जीवनशैली जिसमें समाज या मानवता, के प्रति दायित्व बोध नहीं, में सफलता है?

 या 

बिना पहचान बनाये समाज और राष्ट्र के लिए अपने निःस्वार्थ योगदान में सफलता है?

मैं सोच रही थी कि सर की माँ की तरह ही, मैं भी एक नारी हूँ। क्या नारी, किसी पुरुष को अपने निश्छल कर्मों से इस कदर प्रभावित कर सकने में समर्थ होती है? 

यदि ऐसा है तो मुझे भी, सर की माँ की तरह ही क्यों नहीं परिवार की ऐसी धुरी बनना चाहिए? 

एवं 

क्यों नहीं, सर की तरह सादा जीवन रखते हुए इस समाज को, जिसे जरूरत भी है, अपने कर्मों से बेहतर योगदान देना चाहिए?

उस संध्या, मेरी माँ की कही बात ने, मेरे संशय मिटा दिए थे। उन्होंने कहा कि भगवान ने इन सर और तुम्हारे पापा का सिर्फ सूरत की साँचा ही एक नहीं रखा है अपितु सीरत का साँचा भी समान ही रखा है। तुमने इन्हें सही पहचाना है। जिस भी व्यक्ति का आदर्श उसकी माँ होती है, वह पुरुष किसी बहन, बेटी या अन्य नारी के लिए कभी खतरा नहीं हो सकता है। 

फिर दिन व्यतीत होने लगे थे। मेरी उनसे मेट्रो में मुलाकातें एवं मोबाइल पर बातें होतीं रहीं थीं। एक शाम सर ने ऑन्टी से मेरी माँ की बात करवाई थी। ऑन्टी ने माँ से कहा - मैं, रमणीक से अपने बेटे सुशांत की मुलाकात करवाना चाहती हूँ। और यदि रमणीक एवं सुशांत एक दूसरे को पसंद करें तो रमणीक को अपनी बहू रूप में, बेटी बनाना चाहती हूँ। 

क्या आप एवं रमणीक को यह प्रस्ताव स्वीकार होगा? इन दिनों हमारा बेटा, अवकाश में घर आया हुआ है।           

माँ ने बिना मुझसे पूछे उन्हें सहर्ष सहमति दे दी। इसके अनुसार मुझे अगले रविवार, उनके घर जाकर सुशांत से मुलाकात करनी थी। यह हुई सब बातें माँ ने मुझे बाद में बताई। 

मुझे इस प्रस्ताव से अत्यंत हर्ष अनुभव हुआ। मुझे यह विचार अत्यंत पुलकित कर रहा था कि यदि सुशांत और हमारा विवाह होता है तो मैं सर को, पापा कहने का अधिकार पा सकूँगी। अर्थात मेरे खोये पापा, मुझे 11 वर्षों बाद अपने ही रूप, में पुनः प्राप्त हो जायेंगे। 

मेरे आनंद का विषय यह विचार भी था कि उस परिवार की सदस्य होकर मुझे, सर के तरह की, लुप्तप्राय मानव प्रजाति एवं परंपरा को संरक्षित कर सकने का, अवसर मिलेगा। मैं प्रस्ताव को लेकर अति उत्साहित थी एवं रविवार की प्रतीक्षा व्यग्रता से करने लगी थी। 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

16-09-2020








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