Thursday, March 18, 2021

शिकवे शिकायत ..

 शिकवे शिकायत .. 

अपने जीवन की पुरानी कई बातें मेरे मस्तिष्क पटल पर स्पष्ट झलक रहीं थीं। कदाचित जैसा मैंने सुना था कि अंतिम समय में ऐसा होता है। मुझे लग रहा था मेरा अंतिम समय आ गया है। मुझे स्मरण आ रहा था कि - 

मेरा बेटा शिशिर, बचपन में अति जिद्दी था। उसके पापा के अति लाड़ दुलार में वह ऐसा बिगड़ा था। उसे जो चीज चाहिए होती उस के मिले बिना वह आसमान सिर पर उठा लिया करता था। 

उसके पसंद की स्पोर्ट्स सामग्रियाँ एवं कपड़े दिलवाए जाने के चक्कर में मेरी दो बेटियों की आवश्यकता एवं चाही गई सामग्रियाँ कई बार, मेरे पति लाने में असमर्थ हो जाते थे। मैं शिकायत करती कि आपने शिशिर को “एकलौता पूत सिर पर मूत” तरह का बिगाड़ दिया है। आप समझते नहीं, मेरी दोनों बेटियां बड़ी होकर विवाह के बाद ससुराल चली जाएंगी तो उन्हें, हमारे घर में उन्हें मिले अभाव ही स्मरण में रहेंगे। 

मेरे पति मेरी इस बात पर असहाय से दिखाई पड़ते। तब मैंने, उनसे ऐसी बातें कहना बंद कर दिया। वे अपने बेटे से अगाध प्रेम में आसक्त थे। उन्हें अपनी बेटियों की भी परवाह रहती थी मगर वे, अपनी सीमित आय में चाहकर भी पूरा नहीं कर पाते थे। 

उस साल बेटियाँ विवाह योग्य, क्रमशः 22 एवं 20 की हुईं थीं। शिशिर 18 का हुआ था एवं तभी कॉलेज में दाखिल हुआ था। यद्यपि उसकी आदतें वैसी ही थीं मगर पढ़ने में कुशाग्रता के कारण उसे कॉलेज में स्कॉलरशिप मिलने लगी थी। जिससे मेरे पति को, बेटियों के विवाह के लिए बचत करने में सुविधा अनुभव हुई थी। 

पता नहीं, बेटे की अच्छी पढ़ाई से प्राप्त सफलता की उन्हें ख़ुशी थी या यह, बेटियों के विवाह को लेकर उनकी चिंताएं थी कि एक रात वे सोए तो अगली सुबह उन्होंने आँखें नहीं खोलीं थीं। मैं, उनके बाजू में ही सोती थी मगर कब, दुनिया में उनकी श्वास अंतिम हुई थी, इसका मुझे आभास नहीं हो सका था। 

गृहस्थी कच्ची थी। उनकी मौत, परिवार पर मुसीबत का पहाड़ जैसे टूटा था। बेटियाँ बिलख बिलख कर रोती रहीं थी। तब शिशिर की आँखे पथरा गईं दिखती थीं। पति का यूँ बीच मँझधार में हमें डूबने के लिए छोड़ जाना मेरे अथाह दुःख एवं चिंताओं का कारण हुआ था। 

मेरी दुविधा ये थी कि मैं उनके यूँ चले जाने पर खुलकर रो भी नहीं सकती थी। बेटियाँ मेरे रोने से और अधिक दुखी होंगी यह एक चिंता थी। दूजी चिंता शिशिर की थी। शिशिर के वह, पापा चले गए थे जो उसे सिर पर चढ़ाए रखते थे। वे थे तो एक मध्यमवर्गीय पापा मगर, उसे आभास यह दिलाते थे जैसे कि खुद टाटा जैसे अति संपन्न हों। 

शिशिर उनकी मौत पर रोता हुआ नहीं दिखा था। रिश्तेदार यही समझते रहे कि इस स्वार्थी बेटे को अपने पिता की मौत का दुख नहीं हुआ था। बाद के दिनों में मैंने तथा बेटियों ने शिशिर को देखकर, यह जाना था कि रोते दिखने से ही विकट दुख प्रकट नहीं किया जाता है। पापा की मौत से दुखी, शिशिर में एक़दाम बदलाव आ गए थे। आगे के पाँच वर्षों की पढ़ाई के साथ साथ, शिशिर ने स्टूडियो में पापा के सहयोगी रहे लक्ष्मण चाचा के साथ से, अपने पापा के फोटो स्टूडियो को चलाये रखा था। उसकी सभी स्पोर्ट्स एक्टिविटीज एकदम बंद हो गईं थी। 

मुझे याद नहीं पड़ता कि शिशिर ने तब अपने कॉलेज की पढ़ाई पूर्ण होने तक कोई नए कपड़े भी लिए हों। कॉलेज की पढ़ाई के पाँच वर्षों में ही उसने, अपनी बड़ी बहनों का पापा जैसा बनकर, उनका विवाह करवाया था। 

मैंने तब एहसास किया था कि इस होनहार अपने बेटे को मैं, उसके बचपन एवं लड़कपन में पहचान नहीं सकी थी। मुझे अब लग रहा था कि मेरे पति ने मगर शिशिर में विलक्षण प्रतिभा को पहचान रखा था।

शिशिर ने शायद उनसे ही संस्कार ग्रहण किये थे कि जिसे चाहते हो, उसके लिए अपनी ख़ुशी की तिलाँजलि देने को थोड़ा भी ना हिचकिचाओ। मुझे, मेरे पति की कमी तो उनके बाद हमेशा ही अनुभव होती रही थी मगर मैं सच कहूँ तो, जितनी सुविधाएं शिशिर ने, उनके बाद मेरे लिए उपलब्ध करवायीं, उतनी मुझे पति के रहते हुए नहीं मिलीं थी। 

अब जब पिछले एक वर्ष से मैं, पैरालिसिस के कारण बिस्तर पकड़ चुकी थी। मेरा निचला धड़ निष्क्रिय हो गया तब शुरू में शिशिर खुद ही मेरे निस्तार एवं साफ़ सफाई में लगा रहता था। मेरी बहू, पोते-पोती एवं अपने विभागीय कर्तव्यों में व्यस्त रहने वाला मेरा बेटा शिशिर, मुझे मालूम था कि उच्च पदस्थ अधिकारी है। अपने कार्यालय से घर लौट आने पर भी उसके पास उसके कामकाज से संबंधित फोन आया करते थे। 

मैं कहती - शिशिर तुम उच्च श्रेणी अधिकारी हो। मेरे लिए कोई नर्स रख दो। ऑफिस जाने के पहले एवं आने के बाद, व्यस्त एवं थके होने पर भी मेरी सेवा सुश्रुषा में तुम्हारा लगा रहना मुझे अच्छा नहीं लगता है। 

शिशिर पूछता - मम्मी, क्या मैं अच्छे से आपकी देखरेख नहीं कर पाता हूँ?

मैं कहती - नहीं, मेरे बेटे यह नहीं कह रही हूँ। बल्कि मैं यह कह रही हूँ कि इतना बड़ा आदमी हो गया है ये छोटे काम तुझे करते देखना मुझे अच्छा नहीं लगता। 

शिशिर कहता - काय का बड़ा आदमी, मम्मी! अगर माँ की जरूरत पर काम ना आ सकूँ! 

तब मैंने कहा था - बेटा, जो समय तुम, मेरी अकेली के देखरेख में लगा देते हो अपनी विशेषज्ञता का, वह ‘और समय’ तुम, अपने विभागीय कर्तव्यों में लगा सकोगे तो बहुत से हितग्राहियों के अपेक्षित काम, उनकी आशा अनुरूप सुगमता से होंगे। 

शिशिर ने, मेरा कहा मान लिया था। मेरे लिए नर्स का प्रबंध किया था। फिर भी, जब जब उसके पास समय होता नर्स के रहते हुए भी वह खुद मेरी साफ़ सफाई करता था। शिशिर को ऐसा करते देखने से, बहू (नीरजा) जिसे शुरू में इन कार्यों से घिन होती थी, धीरे धीरे उसने भी, मेरे निस्तार में नर्स एवं शिशिर का साथ देना आरंभ कर दिया था। 

मुझे पराश्रित होने के विकट वेदनाकारी समय में तब यह अनुभूति संतोष देती थी कि मुझे सिर्फ (पराई) नर्स के भरोसे ही नहीं छोड़ दिया गया है। 

फिर एक साल बीत गया था। मुझे, मेरा अंतिम समय दिखना शुरू हुआ था। मेरे बेटे को भी समझ आ गया था कि अब, माँ के कुछ दिन ही शेष रहे हैं। इससे शिशिर के चेहरे पर उदासी छा गई थी। मैंने पूछा - शिशिर कोई परेशानी है, तुम अब चुप से हो गए हो?

शिशिर ने कहा - पापा, तो कुछ कहे बिना चले गए थे। आपको भी मैं, उपचार और सेवा करते हुए, बिस्तर से उठा, फिर चलने फिरने योग्य नहीं बना पाया हूँ। अपनी इस असहाय अवस्था तथा ऐसी क्षमता हीनता से मुझे दुख होता है। 

शायद मैं यही उससे सुनना चाहती थी। जिस पर अपनी हृदय की अंतिम कुछ भावनाएं उससे कह सकूँ। मैंने उसे अपने और पास बुलाया, उसके सिर पर अपने कपकपाते हाथ रख कर कहा -

 मेरे बेटे, मेरी यह हालत, मेरी वृद्धावस्था के कारण हुई है। इसके लिए तुम या कोई और बिलकुल भी जिम्मेदार नहीं। सबकी ऐसी अवस्था आने पर, किसी दिन इससे मिलती जुलती हालत होती है।      

अपनी अशक्तता से कहने की शक्ति पुनः जुटाने के लिए मैं चुप हुई थी। तब शिशिर के आँखों से गिरे अश्रुओं से मेरी हथेली नम हुई थी। मुझे समझ आया कि शिशिर रो रहा था। मेरा यह, वही बेटा था। जो अपने पापा की मौत पर नहीं रोया था। 

मैंने कहा - ना रो बेटा, तुझे रोते मैं नहीं देख सकती। 

शिशिर ने रुंधे गले से कहा - पापा, गए थे मैं ना रोया था। मुझे हमारे ऊपर आपकी छत्र छाया अनुभव होती थी। 

मैंने कहा - तब, तुम्हारे ही होने से हम अनाथ नहीं हुए थे, बेटे।  

शिशिर ने कहा - लेकिन अब तो हम अनाथ हो जाएंगे, माँ!

मैंने कहा - शिशिर तू तो ऐसा योग्य है कि औरों का नाथ है। बेटे, दुःख बिलकुल भी ना करना। अपने काम से, हमें जानने वालों में हमारी प्रशंसा होते रहे यह कोशिश करना। मैं, जा रही हूँ कामना रखते हुए कि अगले जन्मों जन्मों तक तू ही मेरा बेटा बन मेरी गोद में फिर जन्मता रहे!

शिशिर ने, अपना सिर मेरी छाती पर ऐसे रख दिया था कि उसका वजन मुझ पर नहीं पड़े। मुझे लगा शिशिर मेरा बेटा, मेरे हृदय के अंतिम हो रहे स्पंदन की अनुभूति शायद हमेशा के लिए अपने स्मरण में ले लेना चाहता है। 

मुझे संतोष हुआ था कि अपने अंतिम शब्द मैं, सही रूप में कह पाई थी। मुझे लगा, मेरे बच्चे ने मेरा यह जीवन सार्थक कर दिया था। 

फिर मैं चली गई थी, अपने जीवन एवं मौत से बिना कोई शिकवे शिकायत रखते हुए  … 

राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 

18.03.2021                                           


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